बुधवार, 21 अगस्त 2013

भारतवर्ष के पतन का कारण विद्वत्ता अर्थात ब्राह्मणत्व में ह्रास - अशोक "प्रवृद्ध"

भारतवर्ष के पतन का कारण विद्वत्ता अर्थात ब्राह्मणत्व में ह्रास
  
महाभारत के युद्ध में योद्धाओं की संख्या में अपार हानि हुई थी। महाभारत -युद्ध में योद्धाओं, क्षत्रियों का महान विनाश होने पर देश राजनितिक विचार स्व असुरक्षित और हिन् होना चाहिए था , परन्तु महाभारत के काल से लेकर अशोक के निधन तक देश में कोई भी विदेशी आक्रमण नहीं हुआ था।
इससे यह बात स्पष्ट होती है कि विशाल संख्या में क्षत्रिय योद्धाओं के मरने पर भी भारतवर्ष राजनितिक दृष्टि से दुर्बल नहीं हुआ था।
भारतवर्ष में दुर्बलता आई थी बौद्धिक दृष्टि से , भारतवर्ष में विद्वता अर्थात ब्राह्मणत्व में ह्रास आने से , और ब्राह्मणत्व में ह्रास महाभारत युद्ध के पूर्व से ही आरम्भ हो चूका था , जो युद्धोपरांत तेजी से हुआ। जिसके कारण अहिन्सावादियों अर्थात बौद्धों, जैनों और नास्तिकों को पनपने का मौका मिला । फलतः विदेशियों को हमला करने की हिम्मत हुई और हम सदियों तक विदेशी दासता में जकड़ने को बाध्य हुए। आज भी हम विदेशी मानसिकता और विदेशी शासन से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाए हैं।

रविवार, 18 अगस्त 2013

वैदिक देवता

वैदिक देवता
दिव्य गुण और देने वाले को देवता कहते हैं। जो दूसरों को सिर्फ दे बिना कुछ
वापस लेने की इक्छा के | इस प्रकार जो कोई भी यह दैव गुण रखता हैं उसे
देवता कह सकते हैं | इस प्रकार देवता २ प्रकार से वर्गीकृत होते हैं एक जड़
और एक चेतन | जड़ देवता ३३ हैं | ८ वसु, ११ रूद्र, १२ आदित्य, १
यज्ञ, १ विघु ये कुल ३३ जड़ देवता कहे गए हैं |
पहले हम इनका विवरण देते हैं |
८ वसु हैं – सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश
(यह सब हमें कुछ ना कुछ देते हैं लेते नहीं)
११ रूद्र हैं – दस प्राण और ग्यारहवी जीवात्मा
१२ आदित्य हैं – बारह मास
जड़ देवताओ का पूजन कैसे किया जाए अब यह प्रश्न उठता हैं | क्या धुप,
दीप, अगरबत्ती से इनका पूजन हो जाएगा | नहीं , इन चीजों से ना होकर
अपितु जड़ देवताओ का पूजन देव यज्ञ से होगा | हवन करिये वातावरण में
जो गंदगी हम फैला रहे हैं वह साफ़ करना भी हमारा कर्तव्य हैं | प्रतिक्षण
कितनी मृत त्वचा गिरती हैं | वायु हम कितनी अशुद्ध करते हैं और वातावरण
से जो भी अन्न लेते हैं उसमे लगभग सभी जड़ देवताओ का योगदान हुआ |
हवन कर के हम वापस उनका कुछ अंश उन देवताओ को लौटा देते हैं | और
इसीलिए कहा गया के यज्ञ से बचा हुआ ही हम ले | हम यज्ञ की अग्नि में
यह कहते हुए समिधा डाले के इदम नमम् | यह
मेरा नहीं प्रकृति का प्रकृति को लौटते हैं | दीप अगरबत्ती तो अशुद्ध रूप
आगये बिना जिस से किसी भी लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती |
अब आते हैं चेतन देवताओ पर और उनके पूजन पर | चेतन देवता ५ कहे गए
हैं
१ परमात्मा, गुरु, माता-पिता, पति के लिए पत्नी और पत्नी के लिए पति,
और अथिति
सम्पूर्ण वेद हमें सवितु देव परमात्मा के बारे में बताते हैं | मातृदेवो भव,
पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव
परमात्मा का ध्यान करना उसके अधिक से अधिक गुणों को आचरण में
लाना ही उसकी सच्ची पूजा हैं |
माता पिता का श्राद्ध और तर्पण करना उनकी पूजा हैं | यानी श्रद्धापूर्वक
धर्मानुसार उनकी आगया माननी चाहिए |
सबका गुरु परमात्मा हैं | पर भिन्न विषयो में जिन तपस्वियों ने तप किया हैं
उनको उन विषयों पर गुरु बनाना चाहिए | और वे गुरु जो समाज उद्धार के
लीये शिक्षा दान करे जो पदार्थ का तत्वों का ज्ञान कराये वह गुरु देव हैं |
विवाह यज्ञ हैं जो समाज हित के लिए कहा जाता हैं | वैदिक समाज में पति-
पत्नी एक दूसरे को ईश प्राप्ति में सहायता करते हैं | यही विवाह
का उद्देश्य होता हैं अतः वे देवी-देव कहे गए हैं एक दूसरे के लिए |
अतिथि को हम लोगो ने मान लिया हैं के जो बिना तिथि के आ जाए अरे
बिना तिथि के तो घर चोर-लुटेरे भी आ जाते हैं | अतिथि उसे कहते हैं
जिसका आचरण अच्छा हू | जो धर्मानुसार व्यहवार करता हो | और उसमे
दैव गुण हो |
जड़ पूजा का अर्थ सिर्फ इतना हैं के उन तत्वों का यथा योग्य उपयोग
किया जाए | चेतन की पूजा यह हैं के उस व्यक्तित्व के अधिक से अधिक
अच्छे गुणों को आचरण में लाया जाए | इसी प्रकार जड़ और चेतन
पूजा की जानी चाहिए |

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

संध्या-उपासना हेतु वैदिक मन्त्र

ईश्वरस्तुतिप्रार्थानोपासना- मंत्र
स्वामी दयानंद सरस्वती
संध्या उपासना हेतु वैदिक मनर -
ओ३म्। विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव।
यद् भ॒द्रन्तन्न॒ आ सुव ॥१॥
अर्थ – हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकत्-र्ता, समग्र
ऐश्वर्ययुक्त (देव) शुद्धस्वरूप, सब सुखें कें दाता परतेश्वर! आभ
कृपा करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पुर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुव्-र्यसन
और दुःखों को (परा, सुव) दुर कर दूजिए, (यत्) जो (भद्रम्)
कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव आर पदार्थ है (तत्) वह सब
हमको (आ, सुव) प्रप्त कीजिए॥१॥
हि॒र॒ण्य॒गर्भः सम॑वत्-र्त॒ताग्रे॑ भूतस्य॑ जातः पति॒रेक॑ आसीत्।
स दा॑धार पृथि॒वीन्ध्यामुतेमाक्ङस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम।२॥ यर्ज० १३।

(अर्थ) – जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप आर जिसने प्रकाश
करने-हारे सुर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये है,
जो (भुतस्य) उत्पन्न हुए सम्पुर्ण जगत् का (जातः) ;प्रसिद्ध (पतिः)
स्वामी (एकः) एक ही चेतन-स्वरूप (आसोत्) था, जो (अग्रे) सब जगत्
के उत्पन्न होने से पुर्व (समवत्-र्तत) वर्तमान था, (सः) सो (इमाम्)
इस (पृथिवीम्) भुमि (उत) आर (ध्याम्) सुर्यादि को (दाधार) धारण कर
यहा है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए
(हविषा) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष
भकि्त किया करें॥२॥
य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॒ दे॒वाः ।
यस्य॒ छा॒याऽमृतं॒ यस्य मृत्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥३॥ – यजु०
२५।११
अर्थ – (यः) जो (आतमदाः) आत्मज्ञान का दाता, (बलदाः) शरीर,
आत्मा और समाज के बल का देनेहाया, (यस्य) जीसकी (विश्वे) सब
(देवाः) विद्धान् लोग (उपासे) उपासना करते हैं, और (यस्य)
जिसका (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष, सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात
शिक्षा को मानते हैं, (यस्य) जिसका (छाया) आश्रय हू (अमृतम्)
मोक्षसुखदायक है, (यस्य) जिसका न मानना अर्थस् भकि्त न
करना ही (मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस (कस्मै)
सुस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमास्मा की लिए (हविषा)
आस्मा और अन्सःकरण से (विधेम) भकि्स अर्थात् उसी की आ
ज्ञा पालन में सस्पर रहें॥३॥
यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक इद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑ ।
य ईशे॑ऽअ॒स्य व्दिपद॒श्पदः कस्मै॑ ढे॒वाय॒ ह॒विषा॑ विधेम ॥४॥यजु० २३ ।३
अर्थ – (यः) जो (प्राणतः) प्राणवाले और (निमीषतः) अप्राणिरूप
(जगतः) जगत् का (महित्वा) अपने अनन्त महिमा से (एक इत्) एक
ही (राजा) विराजमान राजा (बभूव) है, (यः) जो (अस्य) इस
(द्धिपदः) मनुष्यादि और (चतुष्पदः) गौ आदि प्राणियों कें शरीर
की (ईशे) करता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकलैश्वर्य
के देहv66रे परमात्मा के (हविशा) अपनी सकल उत्तम से (विधेम) विशेष
भकि्त करें ॥४॥
येन॒ ध्यौरूग्रा पृ॑थि॒वी च॑ ढृढा येन॒ स्वॆ॒ सतभितं येन॒ नाकः॑।
योऽअन्तरि॑क्षे कज॑सो वि॒मानः कस्मै॑ देवाय॑ हविषा॑ विधेम ॥५॥ – यजु०
३२।६१
अर्थ – (येन) जिस परमात्मा ने (उग्र) तीक्ष्ण स्वभाववाले (ध्यौः)
सूर्य आदी (च) और (पृथिवी) भूमि को (दढा) धारण, (येन) जिस
जगदीश्वर (स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण, और (येन) जिस (नाकः)
दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है। (यः) जो (अन्तरिक्षे) आकाश में
(रजसः) सब लोक-लोकान्तरों को (विमानः) विशेषमानुक्त अर्थात
जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और
भ्रमण कराता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखदायक (देवाय)
कामना करने के योग्य परब्रहा की प्राप्-ति के लिए (हविषा) सब
सामथ्-र्य से (विधेम) विशेष भकि्त करें॥५॥
प्रजा॑पते॒ न त्वढेतान्य॒न्यो विश्वा॑ जा॒तानि परि॒ ता व॑भूव।
यत्का॑मास्ते जुहुमस्तन्नो॑ऽअस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयीणाम् ॥६॥
अर्थ – हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामी परमात्मन्! (त्वत्) आपसे
(अन्यः) भीन्न दुसरा कोई (ता) उन (एतानी) एन (विश्वा) सब
(जातानि) उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को (न) नहीं (परि, बभूव)
तिरस्कार करता है अर्थात् आप सर्वोपरि है। (यत्कामाः) जिस-जिस
पदार्थ की कामनावाले हम लोग (ते) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और
वाञ्छा करें, (तत) उस-उसकी कामना (नः) हमारी सिद्ध (अस्सु)
होवे, जिससे (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनैश्वर्य के (पतयः)
स्वामी (स्याम) होवें ॥६॥
सनो॒ बन्धरजनिता स विधा॒ता धामा॑नि वे॒द भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
यत्र॑ देवा अ॒मृत॑मानशा॒नास्तृतीये॒ धाम॑न्न॒ध्यैर॑यन्त ॥७॥
अर्थ – हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामि परमात्मन! (त्वत) आपसे
(अन्यः) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन (एतानि) इन (वश्वा) सब
(जातानि) उत्पन्न हए जड़-चेतनादिकों को (न) नही (परि, बभूव)
तिरस्कार करता है अर्थात आप सर्वोपरि हैं (यत्कामाः) जिस-जिस
पदार्थ की कामनावाले हम लोग (से) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और
वाञ्छा करें, (तत्) उस-उसकी कामरा (नः) हमारी सिद्ध (अस्तु) होवे,
जिससे (वयम्) हम लोग (रयीणाम) धनैश्वर्यो के (पतयः)
स्वामी (स्याम) होवें ॥८॥
अग्ने॒ नय सु॒पथा॑ रायेऽअस्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान् ।
युयो॒ध्य स्मज्जु॒हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठान्ते॒ नम॑ऽउक्तिंविधेम ॥८॥
अर्थ-(हे अग्ने) स्वप्रकाशक ज्ञानस्वरूप सब जगत् के प्रकाश करने-
हारे (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर! आप दिससे (विव्दान) सम्पुर्ण
विध्य-युवत हैं, कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान
वा राज्यादि ऐश्वर्य कि प्राप्-ति के लिए (सुपथा) अच्छे, धर्मयुक्त,
अप्त लोगों के मार्ग से (विश्वानिं) सम्पुर्ण
(वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्-त कराइए, और
(अस्मत्) हमसे (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म
को (युयोधि) दुर कीजिए। इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्)
बहुत प्रका की स्तुतिरूप (नमउकि्तम्)
नम्रतापुर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा रिया कें और सर्वदा आनन्द में रहें। ॥
८।।

राष्ट्र गानम

वैदिक राष्ट्र गान

वैदिक राष्ट्र गानम् !

ओ३म् ! आ ब्रह्म॑न् ब्राह्म॒णो ब्र॑ह्मवर्च॒सी जा॑यता॒म रा॒ष्ट्रे
रा॑ज॒न्यः शूर॑ऽइष॒व्यो॒ऽतिव्या॒धी म॑हार॒थो जा॑यतां॒ दोग्ध्री॑ धे॒नुर्वोढा॑न॒ङ्
र॑थे॒ष्ठाः स॒भेयो॒ युवास्य यज॑मानस्य वी॒रो जा॑यतां निका॒मेनि॑कामे नः प॒र्
फलव॑त्यो न॒ऽओष॑धयः पच्यन्तां योगक्षे॒मो नः॑ कल्पताम् (यजु २२/२२)
हे महतो महान परमेश्वर ! हमारे राज्य में वेदविद्या में निष्णात , वेद और
उत्पन्न हों
हमारे राष्ट्र में बाण चलाने में प्रवीण ,शत्रुओं को पीड़ित करनेवाले शूर
हमारे राष्ट्र में खूब दूध देनेवाली गौएँ हों
हमारे राष्ट्र में भार ढोने में समर्थ बैल और शीघ्रगामी घोड़े हों
हमारे राष्ट्र में नारियां नगर की रक्षा करने में समर्थ हों
हमारे राष्ट्र में रथ पर स्थित वीर विजयशील हों
हमारे राष्ट्र में जब-जब हम कामना करें तब-तब मेघ जल वर्षाएं
ओषधियाँ हमारे लिए उत्तम फलवाली होकर पकें
हमारा सर्वविध योग = अप्राप्त वास्तु की प्राप्ति और क्षेम = प्राप्
— स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
भावार्थ :– जिन-जिन पदार्थों से एक राष्ट्र समृद्ध हो सकता है , उन
में हुआ है | कोई राष्ट्र समृद्ध नहीं हो सकता , जिसमे ब्राह्मण न हों ,
की शिक्षा देनेवाले महाचार्य न हों | वह राष्ट्र तो अज्ञानान्धकार में
कर बैठेगा , जिसमे सकल कलाकलाप के आलाप करनेवाले महाविद्वान न
अतः राष्ट्रहितचिन्तकों का यह प्रथम कर्तव्य है कि वे यत्न करके अपने
विद्वानों को बसाएँ , ताकि “विद्या की वृद्धि और अविद्या का नाश”
अविष्कारों से राष्ट्र की श्रीविद्धि होती रहे , किन्तु केवल विद्याव्यस
का सञ्चालन नहीं हो सकता | राष्ट्ररक्षा के लिए बुद्धिबल के साथ ब
अतः ब्राह्मणों के साथ योद्धाओं का भी आकलन करें | योद्धा नामम
शस्त्रास्त्र -व्यवहार में निपुण , शत्रु को कँपा देनेवाले महारथी और शू
की भरमार हो , घोड़े , बैल , यातायात के समस्त साधन हों | स्त्रियाँ
आवश्यकता पड़ने पर नगर तथा राष्ट्र का प्रबन्ध करने में समर्थ हों |
अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि और उनके कारण होनेवाले दुर्भिक्ष भी न हों |
| आजीविका कमाने में कोई बाधा न हो , कमाई सफल तथा सुरक्षित ह
पर सभी सस्य पकें |
— स्वामी वेदानन्द ( दयानन्द ) तीर्थ
पद्यानुवाद :–
ब्रह्मन ! स्वराष्ट्र में हों , द्विज ब्रह्म तेजधारी |
क्षत्रिय महारथी हों , अरिदल-विनाशकारी ||
होवें दुधारू गौवें , वृषभाश्व आशुवाही |
आधार राष्ट्र की हों , नारी सुभग सदा ही ||
बलवान सभ्य योद्धा , यजमान -पुत्र होवें |
इच्छानुसार वर्षें , पर्जन्य ताप धोवें ||
फल-फूल से लदी हों , औषध अमोघ सारी |
हो योगक्षेमकारी स्वाधीनता हमारी ||

सोमवार, 12 अगस्त 2013

शिवलिंग और ब्रह्माण्ड

शिवलिंग और 
शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड
( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।
शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय .................. चिह्न,
निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है।
""लिंग"" एक संस्कृत का शब्द है.........
जिसके निम्न अर्थ है :
त आकाशे न विधन्ते -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५
अर्थात..... रूप, रस, गंध और स्पर्श ........ये लक्षण आकाश में
नही है ..... किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है ।
निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकशस्य लिंगम् -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ०
२ ०
अर्थात..... जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है ....वह आकाश का लिंग
है ....... अर्थात ये आकाश के गुण है ।
अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । -वै०। अ ० २ । आ
० २ । सू ० ६
अर्थात..... जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम
शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये .... काल के लिंग है

इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ०
अर्थात....... जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे
का व्यवहार होता है ....उसी को दिशा कहते है....... मतलब कि....ये
सभी दिशा के लिंग है इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञाना
न्यात्मनो लिंगमिति -न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०
अर्थात..... जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख,
(ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है...... और, ये
सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है ।
इसीलिए......... शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष
का प्रतीक होने के कारन.......... इसे लिंग कहा गया है...।
स्कन्दपुराण में स्पष्ट कहा है कि....... आकाश स्वयं लिंग है...... एवं ,
धरती उसका पीठ या आधार है .....और , ब्रह्माण्ड का हर चीज .......
अनन्त शून्य से पैदा होकर..... अंततः.... उसी में लय होने के कारण इसे
लिंग कहा है .........
यही कारन है कि...... इसे कई अन्य नामो से भी संबोधित
किया गया है ........जैसे कि .....: प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग,
उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam) ...
इत्यादि...!
यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि.....
इस ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है : ऊर्जा और प्रदार्थ........!
इसमें से....... हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है ........ जबकि आत्मा एक
ऊर्जा है.......|
ठीक इसी प्रकार...... शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन
कर......... शिवलिंग कहलाते हैं |
क्योंकि.... ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित
है.........!
अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की दृष्टि से बोलने की जगह ... शुद्ध
वैज्ञानिक भाषा में बोला जाए तो..... ..... हम कह सकते हैं कि.....
शिवलिंग.... और कुछ नहीं बल्कि..... हमारे ब्रह्मांड की आकृति है. (The
universe is a sign of Shiva Lingam.)
और.... अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की भाषा में बोला जाए तो.....
शिवलिंग ......... भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-
अनादि एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक है....!
अर्थात........ शिवलिंग हमें बताता है कि...... इस संसार में न केवल पुरुष
का..... और न ही केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है ........ बल्कि,
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही समान हैं..!
शिवलिंग की पूजा को ठीक से समझने के लिए ......
आप जरा आईसटीन का वो सूत्र याद करें...... जिसके आधार पर उसने
परमाणु बम बनाया था....!
क्योंकि.... उस सूत्र ने ही .....परमाणु के अन्दर छिपी अनंत ऊर्जा की एक
झलक दिखाई ...... जो कितनी विध्वंसक थी..... ये सर्वविदित है |
और... परमाणु बम का वो सूत्र था.....
e / c = m c {e=mc^2}
अब ध्यान दें कि .... ये सूत्र एक सिद्धांत है .... जिसके अनुसार पदार्थ
को पूर्णतया ऊर्जा में बदला जा सकता है .....अर्थात, अर्थात..... पदार्थ
और उर्जा ... दो अलग-अलग चीज नहीं... बल्कि , एक ही चीज हैं.....
परन्तु.... वे दो अलग-अलग चीज बनकर ही सृष्टि का निर्माण करते हैं....!
और..... जिस बात तो आईसटीन ने अभी बताया ..... उस रहस्य
को तो ...हमारे ऋषियो ने हजारो-लाखों साल पहले ही ख़ोज लिया था.
यह सर्वविदित है कि..... हमारे संतों/ऋषियों ने हमें वेदों और
उपनिषदों का ज्ञान लिखित रूप में प्रदान किया है ... परन्तु, उन्होंने
कभी यह दावा नहीं किया कि यह उनका काम है.. बल्कि, उन्होंने हर काम
के अंत में स्वीकार किया कि....... वे हमें वही बता रहे हैं.... जो, उन्हें अपने
पूर्वजों द्वारा कहा गया है.
और....लगभग १३.७ खरब वर्ष पुराना .... सार्वभौमिक ज्ञान हमें तमिल
और संस्कृत जैसी महान भाषाओँ में उपलब्ध होता है..... और, भावार्थ
बदल जाने के कारण... इसे किसी अन्य भाषा में पूर्णतया (exact) अनुवाद
नही किया जा सकता .... कम से कम अंग्रेजी जैसी कमजोर भाषा में
तो बिलकुल नही ।
इसके लिए.... एक बहुत ही छोटा सा उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा कि.....
आज ""गूगल ट्रांसलेटर"" में ......लगभग सभी भाषाओँ का समावेश
है .....परन्तु... संस्कृत का नही ... क्योकि संस्कृत का व्याकरण विशाल
तथा दुर्लभ है ...!
अब मूर्खों और सेकुलरों द्वारा ... एक मूर्खतापूर्ण सवाल यह
उठाया जा सकता है कि..... संस्कृत इतनी इम्पोर्टेन्ट नही इसलिए
नही होगी....... तो, उसका जबाब यही है कि.... यदि .. संस्कृत इम्पोर्टेन्ट
नही तो नासा संस्कृत क्यों अपनाना चाहती है ...???????
अति मूर्ख प्राणी नासा वाली बात का सबूत यहाँ देख सकते हैं.
हुआ दरअसल कुछ ऐसा है कि........... जब कालांतर में ज्ञान के स्तर में
गिरावट आई तब पाश्चात्य वैज्ञानिको ने वेदों /
उपनिषदों तथा पुराणो आदि को समझने में मूर्खता की ...क्योकि,
उनकी बुद्धिमत्ता वेदों में निहित प्रकाश से साक्षात्कार करने योग्य
नही थी ।
और.... ऐसा उदहारण तो हम हमारे दैनिक जीवन में भी हमेशा देखते ही रहते
हैं कि....देखते है जैसे परीक्षा के दिनों में अध्ययन करते समय जब कोई
टॉपिक हमें समझ न आये तो हम कह दिया करते है कि ये टॉपिक तो बेकार
है .....जबकि, असल में वह टॉपिक बेकार नही.... अपितु , उस टॉपिक में
निहित ज्ञान का प्रकाश हमारी बुद्धिमत्ता से अधिक है ।
इसे ज्यादा सरल भाषा में ....इस तरह भी समझ सकते है कि,.....
बैटरी चालित 12 वोल्ट धारण कर सकने वाले विद्युत् बल्ब में.., अगर घरों में
आने वाले वोल्ट (240) प्रवाहित कर दिया जाये तो उस बल्ब
की क्या दुर्गति होगी ??????
जाहिर सी बात है कि.... उसका फिलामेंट तत्क्षण अविलम्ब उड़ जायेगा ।
यही उन बेचारे वैज्ञानिकों के साथ हुआ ... और, वेद जैसे गूढ़ ग्रन्थ
पढ़कर .... उनका भी फिलामेंट उड़ गया और..... मैक्स मूलर जैसे गधे के
औलदॊन तो ..... वेदों को काल्पनिक तक बता दिया !
खैर..... हम फिर शिवलिंग पर आते हैं.....
शिवलिंग का प्रकृति में बनना.. हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते है
जब कि ......
किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है .....तो ,
उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में
तथा उपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दशोदिशाओं
(आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री (360 डिग्री)+ऊपर व नीचे ) होता है..
जिसके फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है
उसी प्रकार.... बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप... एवं, शांत जल
में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग (उर्जा) का प्रतिरूप .... भी शिवलिंग
का निर्माण करते हैं....!
दरअसल.... सृष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात् उर्जा का प्रवाह
वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ फलस्वरूप एक महाशिवलिंग
का प्राकट्य हुआ..... जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द
पुराण आदि में इस प्रकार मिलता है कि ........ आरम्भ में निर्मित शिवलिंग
इतना विशाल (अनंत) तथा की देवता आदि मिल कर भी उस लिंग के
आदि और अंत का छोर या शाश्वत अंत न पा सके ।
हमारे पुराणो में कहा गया है कि...... प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त
संसार..... इसी शिवलिंग में समाहित (लय) होता है तथा इसी से पुनः सृजन
होता है ।
इस तरह........... सामान्य भाषा में कहा जाए तो....उसी आदि शक्ति के
आदि स्वरुप (शिवलिंग ) से इस समस्त संसार की उत्पति हुई
तथा उसका यह गोलाकार/सर्पिलाकार स्वरुप प्रत्यक्ष अथवा प्ररोक्ष
तथा प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से हमारे चारों और स्थित है ....
और, शिवलिंग का प्रतिरूप ब्रह्माण्ड के हर जगह मौजूद है.... जैसे कि....
1. हमारी आकाश गंगा , हमारी पडोसी अन्य आकाश गंगाएँ (पांच -सात -दस
नही, अनंत है) , ग्रहों, उल्काओं आदि की गति (पथ), ब्लैक होल
की रचना , संपूर्ण पृथ्वी पर पाए गये सर्पिलाकार चिन्ह ( जो अभी तक
रहस्य बने हए है.. और, हजारों की संख्या में है.. तथा , जिनमे से अधिकतर
पिरामिडों से भी पुराने है । ), समुद्री तूफान , मानव डीएनए, परमाणु
की संरचना ... इत्यादि...!
इसीलिए तो शिव को शाश्वत एवं अनादी, और निरंतर भी कहा जाता है।

रविवार, 4 अगस्त 2013

भारतवर्ष में भेद-भाव का आरम्भ - अशोक "प्रवृद्ध"

भारतवर्ष में भेद-भाव का आरम्भ
    अशोक "प्रवृद्ध"
भारतवर्ष में बुद्धि से अविचारित भावना के कारण ही मत-मतान्तर के
आधार पर जन-जन में भेदभाव उत्पन्न होने लगा है। भारत में यह विभेद
महात्मा बुद्ध के काल से आरम्भ हुआ है।
‘‘यद्यपि महात्मा बुद्ध का यह आशय नहीं था। उन्होंने तो कर्म और
व्यवहार में शुद्धता और सरलता ही लाने का यत्न किया था। परन्तु उस
व्यवहार में सरलता का कोई दिग्दर्शन न रह पाने से शुद्धता और
सरलता केवल नाम की ही रह गई और ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं
गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि’ का घोष प्रमुख हो गया है। उससे श्रद्धा में
अपार वृद्धि हुई है किन्तु आचरण पतन की ओर प्रवृत्त हो गया है।
‘‘समाज में मानव पथ-प्रदर्शन तो सामयिक ही होता है, स्थायी पथ-
प्रदर्शन धर्म-साहित्य होता है। जब तक महात्मा बुद्ध का जीवन रहा, तब
तक किसी सीमा तक उनका जीवन उनके शिष्यों और भक्तों का पथ-
प्रदर्शन करता रहा किन्तु उनकी मृत्यु के उपरान्त ऐसी कोई वस्तु
नहीं रही जो उनका पथ-प्रदर्शन कर पाती। प्राचीन धर्मग्रन्थों पर से
बुद्ध के जीवन काल में ही आस्था को समाप्त कर दिया गया था। स्वयं
बुद्ध ने कुछ नवीन रचना की नहीं।
‘‘इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बौद्ध समाज दिशाविहीन हो गया और
उसके फलस्वरूप समस्त समाज ही दिशाविहीन हो गया। इसका यह
भी दुष्परिणाम हुआ कि शताधिक मत-मतान्तरों की सृष्टि हो गई। बुद्ध से
पूर्व प्रजा में एक आधार पर ही बंटवारा पाया जाता था। वह आधार था कर्म
का। कर्म के आधार पर बंटवारा होता था। संसार में दो ही प्रकार के कर्म हैं।
एक कर्म होता है दैवी और दूसरा होता है आसुरी। इसके आधार पर प्रजानन
या तो दैवी स्वभाव के होते थे या फिर आसुरी स्वभाव के। परन्तु जब से
भावनाओं का आवेश हुआ है तब से दलबन्दियां होने लगी हैं जो कि आधार
रहित हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग बुद्धियुक्त व्यवहार को छोड़कर
दल-बन्दियों के पीछे चल पड़े हैं।
‘इसकी जड़ें बड़ी गहन पैठ गई हैं। अब इस समय समझाने से इसका कुछ
भी प्रभाव नहीं होगा। बुद्धिरहित विचार करने से तो भावना अटल
ही बनी रहती है और फिर सब अपनी-अपनी भावना के अनुसार व्यवहार
करते हैं। किसी दूसरे की कोई सुनने को तैयार ही नहीं होता।

भारतवर्ष पर इस्लाम का प्रथम आक्रमण - अशोक "प्रवृद्ध"

भारतवर्ष पर इस्लाम का प्रथम आक्रमण
      अशोक "प्रवृद्ध"
विक्रमी संवत् 769 में भारतवर्ष (हिन्दुस्थान) पर इस्लाम का प्रथम
आक्रमण हुआ था, जिसे कुछ अंशों में ही सफल आक्रमण
कहा जा सकता है। यह आक्रमण समुद्र मार्ग से किया गया था और भारत
के पश्चिमी भाग सिन्ध देश पर हुआ था।
इससे पूर्व भी इस देश पर विदेशी आक्रमण होते रहे थे, किन्तु इस्लाम
का यह आक्रमण उन सबसे भिन्न था। इस आक्रमण का उद्देश्य केवल
भारत देश की धन सम्पत्ति पर अधिकार करना, मात्र नहीं अपितु इससे
कहीं अधिक था। देश पर अधिकार करना, उस आक्रमण का एक उद्देश्य होने
पर भी उसका कारण कुछ और ही था। वह कारण था, इस देश में ‘इस्लाम’
का प्रचार करना। यही कारण है कि यह आक्रमण बगदाद स्थित इस्लाम के
खलीफा की ओर से किया गया था।
खलीफा न केवल बगदाद का शासक ही था अपितु वह इसके अतिरिक्त
इस्लाम, जो महजब के रूप में विद्यमान है, का कर्णधार भी था। वास्तव में
बगदाद में उसकी नियुक्ति भी इसी प्रकार द्विविध उद्देश्य के लिए की गई
थी। एक तो उस प्रदेश पर शासन करना और दूसरे उस प्रदेश में इस्लाम
का प्रचार-प्रसार करना।
इस्लाम एक मजहब है इस महजब का प्रचलन मक्का निवासी मोहम्मद ने
किया था, जो स्वयं को परमात्मा का पैगाम लानेवाला-सन्देशवाहक
कहता था। इसी कारण वह कालान्तर में पैगम्बर कहलाने लगा और आज वह
इसी नाम से जाना जाता है।
मोहम्मद साहब का यह सौभाग्य था कि उनका विवाह एक धनी महिला से
हुआ था। इस कारण उनको आजीविका की किसी प्रकार की कोई
चिन्ता नहीं रही। परिणामस्वरूप उनके मस्तिष्क में भाँति भाँति की कल्पनाएँ
उड़ान भरने लगीं। इस प्रकार कई वर्ष तक चिन्तन करने के उपरान्त उन्होंने
स्वयं को परमात्मा का सन्देश वाहक अर्थात् पैगम्बर घोषित कर दिया। इस
घोषणा के साथ ही उन्होंने अपने कल्पित परमात्मा और उसके सन्देश
को सुनाना आरम्भ किया। इस पर वह पैगम्बर के रूप में विख्यात हो गया।
अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उसने अपनी एक
निजी सेना भी गठित करनी आरम्भ कर दी और समय पाकर वह इसके लिए
युद्ध भी करने लगा। इस प्रकार मोहम्मद साहब ने परमात्मा और मनुष्य के
रहन-सहन आदि-आदि के विषय में अपनी एक धारणा बनाई और अपने
विचारों को अपनी उस निजी सेना के बल पर जन-साधारण पर
थोपना आरम्भ कर दिया।
आरम्भ में जैसा कि स्वाभाविक है, मोहम्मद साहब को अपने इस कार्य में
अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हुई। इसके विपरीत उनको अपने पैतृक स्थान
मक्का से भागकर मदीना जाना पड़ा था। वहाँ जाकर उन्होंने
अपनी स्थिति पर विचार किया और फिर अपने सैनिकों को अधिक
प्रोत्साहन देने के लिए उनको अपने प्रकार की सुविधाएँ देने का आश्वासन
दिया। उसका पारिणाम यह हुआ कि उनके सैनिक अधिक उत्साह से जन
साधारण पर बल प्रयोग करने लगे।
मोहम्हद ने, जो अब हजरत मोहम्मद कहे जाने लगे थे, अपने
सैनिकों को आदेश दिया कि जिस किसी नगर, कबीला आदि के लोग
उसको पैगम्बर रूप में स्वीकार नहीं करते; वे उन पर आक्रमण कर दें।
उनको यह अधिकार दिया गया कि वे उस स्थान से धन सम्पत्ति, मकान
खेमे, आभूषण अथवा औरतें, जो कुछ भी देखें अपने अधिकार में कर लें, उन्हें
लूट लें, जिस प्रकार चाहें और जो चाहें वे सब अपने अधिकार में कर लें। उस
लूट और अधिकार का पाँचवाँ भाग वे हजरत मोहम्मद को नजर कर शेष सब
कुछ को परमात्मा की ओर से दिया गया समझकर उस पर अपना पूर्ण
अधिकार समझें।
इस घोषणा से मोहम्मद साहब के सैनिकों के मन उछल पड़े। उनके लिए यह
बहुत बड़ा आकर्षण था और मोहम्मद साहब के लिए यह बहुत
बड़ी सफलता का कारण सिद्ध हुआ। मोहम्मद साहब की ओर से
उनको किसी प्रकार का वेतन नहीं मिलता था। जो भी मोहम्मद
को परमात्मा का पैगम्बर स्वीकार कर लेता उसको ही सेना में भरती होने
का अवसर प्राप्त हो जाता था। अतः मदीना में बेकार घूमनेवाले
सभी मोहम्मद के सेवक बन गए और फिर झुण्ड-के-झुण्ड बनाकर आसपास
के नगरों, कबीलों, गाँवों और घरों पर आक्रमण करने लगे। धन सम्पत्ति और
महिलाओं को लूटने का ऐसा आकर्षण था कि वे बेकार लोग प्राण प्रण से
आक्रमण करते और जितना अधिक से-अधिक लूट मचा सकते थे, अत्याचार
कर सकते थे, वह सब करते।
इस आक्रमण और लूट में उनको जो कुछ भी प्राप्त
होता था उसका पाँचवाँ भाग वे मोहम्मद को नजर कर देते और शेष भाग के
स्वयं स्वामी बनकर उसका उपभोग करते।
इस प्रकार मोहम्मद साहब का राज्य-वृद्धि करने लगा। जो भी क्षेत्र
मोहम्मद के अधीन हो जाता उसके निवासियों को न केवल मोहम्मद
को अपना शासक स्वीकार करना पड़ता था, अपितु उनको मोहम्मद के
मजहबी विचारों को भी मानना पड़ता था। उन विचारों में जो मुख्य बात
थी वह यह कि ‘मोहम्मद रसूले इलाही है’ अर्थात् मोहम्मद इस संसार में
परमात्मा के पैगम्बर के रूप में प्रकट हुआ है।
मोहम्मद के ऐसे कृत्यों के आधार पर ही प्रसिद्ध अंग्रेज लेखक ‘गिब्बन’ ने
लिखा है-इस्लाम एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कुरान लेकर विस्तार
पा रहा है।’
इस आक्रमण और विचार-प्रसार का यह परिणाम हुआ कि मोहम्मद साहब
का राज्य ही स्थापित हो गया था। मोहम्मद की दृष्टि में अपना राज्य और
अपना दीन मजहब दोनों एक ही बात थे।
मिस्र देश में एक लेखक हुए हैं-प्रो. इनान। उन्होंने अपनी पुस्तक
‘दि डिसाइसिव मोमेंट्स इन दि हिस्ट्री ऑफ इस्लाम’1 में लिखा है कि जब
मोहम्मद साहब का राज्य स्थापित हो गया तो उन्होंने अपने आसपास के
राज्यों को लिखा कि वे उसके राज्य से सम्बन्ध स्थापित कर लें। किन्तु
उसमें उन्होंने यह शर्त भी रख दी थी कि वे ‘दीने-इस्लाम’ को भी स्वीकार
करें। यदि वे मोहम्मद को परमात्मा का दूत स्वीकार करें तो यह मान
लिया जाएगा कि उस राज्य की मोहम्मद के राज्य से मित्रता है।
अन्यथा उस राज्य को शत्रु राज्य माना जाएगा।
इससे स्पष्ट लक्षित होता है कि मोहम्मद अपने जीवनकाल में स्वयं
ही राज्य और मजहब को एक ही बात मानता था।
प्रो. इनान ने यह तो नहीं लिखा कि मोहम्मद साहब की मित्रता के इस
निमन्त्रण को उसके समीपवर्ती किस-किस राज्य ने स्वीकार कर
लिया और किस-किस ने इसको अस्वीकार किया। किन्तु उसने यह अवश्य
लिखा है कि अपने किस-किस पड़ोसी देश को हजरत मोहम्मद ने इस प्रकार
का मैत्री सन्देश अथवा निमन्त्रण भेजा था।
मोहम्मद के देहान्त के उपरान्त उसके राज्य के प्रबन्धकर्ता को ‘खलीफा’
की उपाधि दी गई और उसका यह कर्त्तव्य माना गया कि वह मोहम्मद
साहब के पद चिन्हों पर चलकर उनके राज्य पर शासन करे और
उसकी वृद्धि भी करे।
इस प्रकार खलीफाओं का शासन चलने लगा। कुछ कालोपरान्त, जब तीसरे
खलीफा के शासनकाल में इराक में इस्लामी राज्य स्थापित हुआ
तो खलीफा ने अरब के रेतीले प्रदेश को छोड़ दिया और इराक
की राजधानी बगदाद को ही अपनी राजधानी घोषित कर दिया।
खलीफा हारूँ रशीद के शासनकाल में उसके राज्य सिपहसालार मोहम्मद-
बिन-कासिम ने भारत के सिन्ध प्रदेश पर आक्रमण किया। भारत पर यह
उसका प्रथम सफल आक्रमण सिद्ध हुआ। यद्यपि इससे पूर्व भी भारत
को धन-धान्य से सम्पन्न देश मानकर इस्लामी आक्रमण का असफल
प्रयास हुआ था।