गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

लौह पुरूष सरदार वल्लभभाई पटेल के अनमोल विचार

आज लौह पुरूष सरदार बल्लभ भाई पटेल की जयंती पर उनको शतशः हार्दिक नमन। उनकी जयंती के अवसर पर उनके विचारों का स्मरण और उनको अपने जीवन में आत्मसात कर उनसे प्रेरणा लेने की संकल्प सिद्धि ही लौह पुरूष को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

लौह पुरूष सरदार वल्लभभाई पटेल के अनमोल विचार
1. इस मिट्टी में कुछ अनूठा है, जो कई बाधाओं के बावजूद हमेशा महान आत्माओं का निवास रहा है
2. यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे
की उसका देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है. हर एक भारतीय को अब यह भूल जाना चाहिए कि वह एक राजपूत है, एक सिख या जाट है.
उसे यह याद होना चाहिए कि वह एक भारतीय है और उसे इस देश में हर अधिकार है पर कुछ जिम्मेदारियां भी हैं
3. मेरी एक ही इच्छा है कि भारत एक अच्छा उत्पादक हो और इस देश में कोई भूखा ना हो ,अन्न के लिए आंसू बहाता हुआ
4. स्वतंत्र भारत में कोई भी भूख से नहीं मरेगा. इसके अनाज निर्यात
नहीं किये जायेंगे. कपड़ों का आयात नहीं किया जाएगा. इसके
नेता ना विदेशी भाषा का प्रयोग करेंगे ना किसी दूरस्थ स्थान, समुद्र स्तर
से 7000 फुट ऊपर से शाषण करेंगे. इसके सैन्य खर्च
भारी नहीं होंगे .इसकी सेना अपने ही लोगों या किसी और की भूमी को अधीन
नहीं करेगी. इसके सबसे अच्छे वेतन पाने वाले अधिकारी इसके सबसे कम
वेतन पाने वाले सेवकों से बहुत ज्यादा नहीं कमाएंगे. और यहाँ न्याय
पाना ना खर्चीला होगा ना कठिन होगा
5. आपकी अच्छाई आपके मार्ग में बाधक है, इसलिए अपनी आँखों को क्रोध
से लाल होने दीजिये, और अन्याय का मजबूत हाथों से सामना कीजिये
6. चर्चिल से कहो कि भारत को बचाने से पहले इंग्लैंड को बचाए
7. एकता के बिना जनशक्ति शक्ति नहीं है जबतक उसे ठीक तरह से
सामंजस्य में ना लाया जाए और एकजुट ना किया जाए, और तब यह
आध्यात्मिक शक्ति बन जाती है
8. शक्ति के अभाव में विश्वास किसी काम का नहीं है. विश्वास और
शक्ति , दोनों किसी महान काम को करने के लिए अनिवार्य हैं
9. यहाँ तक कि यदि हम हज़ारों की दौलत भी गवां दें,और हमारा जीवन
बलिदान हो जाए, हमें मुस्कुराते रहना चाहिए और ईश्वर एवं सत्य में
विश्वास रखकर प्रसन्न रहना चाहिए
10. बेशक कर्म पूजा है किन्तु हास्य जीवन है.जो कोई भी अपना जीवन
बहुत गंभीरता से लेता है उसे एक तुच्छ जीवन के लिए तैयार रहना चाहिए.
जो कोई भी सुख और दुःख का समान रूप से स्वागत करता है वास्तव में
वही सबसे अच्छी तरह से जीता है
11. अक्सर मैं ऐसे बच्चे जो मुझे अपना साथ दे सकते हैं, के साथ हंसी-
मजाक करता हूँ. जब तक एक इंसान अपने अन्दर के बच्चे को बचाए रख
सकता है तभी तक जीवन उस अंधकारमयी छाया से दूर रह सकता है
जो इंसान के माथे पर चिंता की रेखाएं छोड़ जाती हैं।

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

सुदर्शन चक्र

सुदर्शन चक्र

हिन्दुओं के पूजनीय भगवान विष्ण एवं श्री कृष्ण के हर चित्र व मूर्ति में उन्हें सुदर्शन चक्र धारण किए दिखाया जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसारयह सुदर्शन चक्र भगवान शंकर ने ही जगत कल्याण के लिए भगवान विष्णु को दिया था। इस संबंध में शिवमहापुराण के कोटिरुद्रसंहिता में एक कथा अंकित मिलती है।

पुरातन काल में 'वीतमन्यु' नामक एक ब्राह्मण थे। वह वेदों के ज्ञाता थे। उनकी 'आत्रेयी' नाम की पत्नी थी, जो सदाचार युक्त थीं। उन्हें लोग 'धर्मशीला' के नाम से भी बुलाते थे। इस ब्राह्मण दंपति का एक पुत्र था, जिसका नाम 'उपमन्यु' था। परिवार बेहद निर्धनता में पल रहा था। धर्मशीला अपने पुत्र को दूध भी नहीं दे सकती थी। वह बालक दूध के स्वाद से अनभिज्ञ था। धर्मशीला उसे चावल का धोवन ही दूध कहकर पिलाया करती थी।

एक दिन ऋषि वीतमन्यु अपने पुत्र के साथ कहीं प्रीतिभोज में गये। वहाँ उपमन्यु ने दूध से बनी हुई खीर का भोजन किया, तब उसे दूध के वास्तविक स्वाद का पता लग गया। घर आकर उसने चावल के धोवन को पीने से इंकार कर दिया।

दूध पाने के लिए हठ पर अड़े बालक से उसकी माँ धर्मशीला ने कहा- "पुत्र, यदि तुम दूध को क्या, उससे भी अधिक पुष्टिकारक तथा स्वादयुक्त पेय पीना चाहते हो तो विरूपाक्ष महादेव की सेवा करो। उनकी कृपा से अमृत भी प्राप्त हो सकता है।"

उपमन्यु ने अपनी माँ से पूछा- "माता, आप जिन विरूपाक्ष भगवान की सेवा-पूजा करने को कह रही हैं, वे कौन हैं?"

धर्मशीला ने अपने पुत्र को बताया कि

- प्राचीन काल में श्रीदामा नाम से विख्यात एक महान असुर राज था। उसने सारे संसार को अपने अधीन करके लक्ष्मी को भी अपने वश में कर लिया। उसके यश और प्रताप से तीनों लोक श्रीहीन हो गये। उसका मान इतना बढ़ गया था कि वह भगवान विष्णु के श्रीवत्स को ही छीन लेने की योजना बनाने लगा। उस महाबलशाली असुर की इस दूषित मनोभावना को जानकर उसे मारने की इच्छा से भगवान विष्णु महेश्वर शिव के पास गये। उस समय महेश्वर हिमालय की ऊंची चोटी पर योगमग्न थे। तब भगवान विष्णु जगन्नाथ के पास जाकर एक हजार वर्ष तक पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर परब्रह्म की उपासना करते रहे। भगवान विष्णु की इस प्रकार कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें 'सुदर्शन चक्र' प्रदान किया।

उन्होंने सुदर्शन चक्र को देते हुए भगवान विष्णु से कहा- "देवेश! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह अरों, छह नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश करने वाला है। सज्जनों की रक्षा करने के लिए इसके अरों में देवता, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, हनुमान, धन्वन्तरि, तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के बारह महीने प्रतिष्ठित हैं।

आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें। तब भगवान विष्णु ने उस सुदर्शन चक्र से असुर श्रीदामा को युद्ध में परास्त करके मार डाला।

भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति से सम्बन्धित एक अन्य प्रसंग निम्नलिखित है-

एक बार जब दैत्यों के अत्याचार बहुत बढ़ गए तब सभी देवता श्रीहरि विष्णु के पास आए। तब भगवान विष्णु ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की विधिपूर्वक आराधना की। वे हजार नामों से शिव की स्तुति करने लगे। वे प्रत्येक नाम पर एक कमल पुष्प भगवान शिव को चढ़ाते। तब भगवान शंकर ने विष्णु की परीक्षा लेने के लिए उनके द्वारा लाए एक हजार कमल में से एक कमल का फूल छिपा दिया। शिव की माया के कारण विष्णु को यह पता न चला। एक फूल कम पाकर भगवान विष्णु उसे ढूंढने लगे। परंतु फूल नहीं मिला। तब विष्णु ने एक फूल की पूर्ति के लिए अपना एक नेत्र निकालकर शिव को अर्पित कर दिया। विष्णु की भक्ति देखकर भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए और श्रीहरि के समक्ष प्रकट होकर वरदान मांगने के लिए कहा।

तब विष्णु ने दैत्यों को समाप्त करने के लिए अजेय शस्त्र का वरदान मांगा। तब भगवान शंकर ने विष्णु को सुदर्शन चक्र प्रदान किया। विष्णु ने उस चक्र से दैत्यों का संहार कर दिया। इस प्रकार देवताओं को दैत्यों से मुक्ति मिली तथा सुदर्शन चक्र उनके स्वरूप के साथ सदैव के लिए जुड़ गया।

यह चक्र भगवान विष्णु को 'हरिश्वरलिंग' (शंकर) से प्राप्त हुआ था। सुदर्शन चक्र को विष्णु ने उनके कृष्ण के अवतार में धारण किया था। श्रीकृष्ण ने इस चक्र से अनेक राक्षसों का वध किया था। सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अमोघ अस्त्र है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इस चक्र ने देवताओं की रक्षा तथा राक्षसों के संहार में अतुलनीय भूमिका का निर्वाह किया था.

विष्णु - चक्र से सम्बंधित कुछ अन्य कथाएं -

(1) कौरवों-पांडवों का महाभारत युद्धं समाप्त हो चुका था। विजयी पांडवों में अब यह बात घर कर गई कि वे सबसे अधिक बलवान हैं। उन्होंने ना जाने कितने ही रथी,महारथी,वीर,महावीर,बड़े बड़े लड़ाकों को मृत्यु की शैया पर सुला दिया। मगर फैसला कौन करे कि जो हैं उनमे से श्रेष्ठ कौन है। सब लोग श्रीकृष्ण के पास गए। उन्होंने कहा, मैं भी मैदान में था, इसलिए किसी और से पूछना पड़ेगा। वे बर्बरीक के पास गए। जिन्होंने पेड़ से समस्त महाभारत देखा था। श्रीकृष्ण बोले, बर्बरीक बताओ क्या हुआ, किसने किस को मारा। बर्बरीक कहने लगा,मैंने तो पूरे महाभारत में केवल श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र ही देखा जो सब को मार रहा था। मुझे तो श्रीकृष्ण के अलावा किसी की माया, शक्ति,वीरता नजर नही आई।

(2) मगध का राजा जरासंध बहुत शक्तिशाली और क्रूर था। उसके पास अनगिनत सैनिक और दिव्य अस्त्र-शस्त्र थे। यही कारण था कि आस-पास के सभी राजा उसके प्रति मित्रता का भाव रखते थे। जरासंध की अस्ति और प्रस्ति नामक दो पुत्रियाँ थीं। उनका विवाह मथुरा के राजा कंस के साथ हुआ था। कंस अत्यंत पापी और दुष्ट राजा था। प्रजा को उसके अत्याचारों से बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। दामाद की मृत्यु की खबर सुनकर जरासंध क्रोधित हो उठा। प्रतिशोध की ज्वाला में जलते जरासंध ने कई बार मथुरा पर आक्रमण किया। किंतु हर बार श्रीकृष्ण उसे पराजित कर जीवित छोड़ देते थे। एक बार उसने कलिंगराज पौंड्रक और काशीराज के साथ मिलकर मथुरा पर आक्रमण किया। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भी पराजित कर दिया। जरासंध तो भाग निकला किंतु पौंड्रक और काशीराज भगवान के हाथों मारे गए। काशीराज के बाद उसका पुत्र काशीराज बना और श्रीकृष्ण से बदला लेने का निश्चय किया। वह श्रीकृष्ण की शक्ति जानता था। इसलिए उसने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और उन्हें समाप्त करने का वर माँगा। भगवान शिव ने उसे कोई अन्य वर माँगने को कहा। किंतु वह अपनी माँग पर अड़ा रहा। तब शिव ने मंत्रों से एक भयंकर कृत्या बनाई और उसे देते हुए बोले-“वत्स! तुम इसे जिस दिशा में जाने का आदेश दोगे यह उसी दिशा में स्थित राज्य को जलाकर राख कर देगी। लेकिन ध्यान रखना, इसका प्रयोग किसी ब्राह्मण भक्त पर मत करना। वरना इसका प्रभाव निष्फल हो जाएगा।” यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए। इधर, दुष्ट कालयवन का वध करने के बाद श्रीकृष्ण सभी मथुरावासियों को लेकर द्वारिका आ गए थे। काशीराज ने श्रीकृष्ण का वध करने के लिए कृत्या को द्वारिका की ओर भेजा। काशीराज को यह ज्ञान नहीं था कि भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण भक्त हैं। इसलिए द्वारिका पहुँचकर भी कृत्या उनका कुछ अहित न कर पाई। उल्टे श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र उसकी ओर चला दिया। सुदर्शन भयंकर अग्नि उगलते हुए कृत्या की ओर झपटा। प्राण संकट में देख कृत्या भयभीत होकर काशी की ओर भागी। सुदर्शन चक्र भी उसका पीछा करने लगा। काशी पहुँचकर सुदर्शन ने कृत्या को भस्म कर दिया। किंतु फिर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ और उसने काशी को भस्म कर दिया।

कालान्तर में व्ररुणा और असी नामक दो नदियों के मध्य यह नगर पुनः बसा। व्ररुणा और असी नदियों के मध्य बसे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ गया। इस प्रकार काशी का वाराणसी के रूप में पुनर्जन्म हुआ।

चक्र पूजन - जीवन में भूलना, गुमना, चले जाना, बलात ले लेना अथवा लेने के बाद कोई भी वस्तु वापस नहीं मिलना ऐसी घटनाएं स्वाभाविक रूप से घटित होती रहती है।

ऐसी स्थिति में कार्तविर्यार्जुन राजा जो हैहय वंश के थे तथा भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं, इनकी साधना करने से इस प्रकार की समस्या से तुरंत मुक्ति मिल जाती है।

सुदर्शन चक्र के बारे में शास्त्रों में वर्णित है कि वह किसी भी दिशा अथवा किसी भी लोक में जाकर वांछित सामग्री खोज लाने में सक्षम है।

उनकी साधना के लिए दीपक लगाकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठें। अपनी गुम वस्तु की कामना को उच्चारण कर भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्रधारी रूप का ध्यान करें।

चक्र को रक्त वर्ण में ध्याएं एवं इस मंत्र का विश्वासपूर्वक जप करें।

मंत्र :- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान।
यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्टं च लभ्यते।।

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

ब्रह्मज्ञान (पौराणिक कथा)

ब्रह्मज्ञान

चारों तरफ ऋषियों के आश्रम थे। हर एक ऋषि की कुटिया फूल के पेड़ों और बेलों से घिरी थी। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी सहधर्मिणी अरुंधती से कह रहे थे, देवी! ऋषि विश्वामित्र के यहाँ जाकर जरा-सा नमक माँग लाओ।

विस्मित होकर अरुंधती ने कहा- यह कैसी आज्ञा दी आपने? मैं तो कुछ समझ भी नहीं पाई। जिसने मुझे सौ पुत्रों से वंचित किया। कहते-कहते उनका गला भर आया। पुरानी स्मृतियाँ जाग उठीं।

उन्होंने आगे कहा- मेरे बेटे ऐसी ही ज्योत्स्ना- शोभित रात्रि में वेद पाठ करते-फिरते थे। मेरे उन सौ पुत्रों को नष्ट कर दिया, आप उसी के आश्रम में लवण-भिक्षा करने के लिए कह रहे हैं? धीरे-धीरे ऋषि के चेहरे पर एक प्रकाश आता गया।

अरुंधती और भी चकरा गई। उन्होंने कहा- आपको उनसे प्रेम है तो एक बार 'ब्रह्मर्षि' कह दिया होता। इससे सारा जंजाल मिट जाता और मुझे अपने सौ पुत्रों से हाथ न धोने पड़ते।

ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने कहा- आज भी विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। उन्होंने निश्चय किया है कि आज भी वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि न कहे तो उनके प्राण ले लेंगे। उधर अपना संकल्प पूरा करने के लिए विश्वामित्र हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले। उन्होंने वशिष्ठ की सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मूँठ पर से हाथ की पकड़ ढीली हो गई।

सोचा, आह! क्या कर डाला मैंने! पश्चाताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौंडे गए और वशिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े। इधर वशिष्ठ उनके हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले - उठो ब्रह्मर्षि, उठो। आज तुमने ब्रह्मर्षि-पद पाया हैं।

विश्वामित्र ने कहा - आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिए। वशिष्ठ बोले अनंत देव (शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे।

विश्वामित्र वहाँ जा पहुँचे, जहाँ अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे हुए थे। अनंत देव ने कहा, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूँ जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किए हुए हूँ। तपोबल के गर्व से विश्वमित्र ने कहा, आप पृथ्वी को छोड़ दीजिए, मैं उसे धारण कर लूँगा।

अनंत देव ने कहा, अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूँ। और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी। विश्वामित्र ने कहा, मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूँ। पृथ्वी! रुक जाओ। फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई। अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो।

विश्वामित्र बोले, क्षण भर के लिए वशिष्ठ के साथ रहा हूँ। अनंत देव ने कहा, तो उसी का फल दे दो।

विश्वामित्र बोले, अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूँ। और धरती स्थिर हो गई। तब विश्वामित्र ने कहा, देव! अब मुझे आज्ञा दें।

अनंत देव ने कहा, जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान माँग रहे हो?
विश्वामित्र क्रुद्ध हो गए। उन्होंने सोचा, इसका मतलब यह है कि वशिष्ठ मुझे ठग रहे थे।

वे वशिष्ठ के पास जा पहुँचे और बोले, आपने मुझे इस तरह क्यों ठगा? वशिष्ठ बोले, अगर मैं उसी समय तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे देता तो तुम्हें विश्वास न होता।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

वंदेमातरम गान- नथूराम गोड़से


वंदेमातरम गान- नथूराम गोड़से

प्रस्तुत लेख महात्मा गांधी हत्या केस के आरोपी नथूराम गोड़से द्वारा अपने बचाव में जो बयान जस्टिस आत्मचरण की विशेष अदालत में 8 नवम्बर 1948 को दिया उसी का अंश है। . . . . . .
वंदे मातरम्‌ न गाया जाय।
 गांधी जी का सबसे बड़ा गुण यही था कि समस्त हिन्दु राष्ट्र‌ के सम्मान और भावनाओं को ठेस पहुंचाकर भी न्याय और अन्याय का विचार न करते हुए मुसलमान के लिए सब कुछ कर देना चाहते थे। क्योंकि उनकी एक ही इच्छा थी कि वे मुसलमान के लीडर माने जाये जिसे मुसलमानों ने कभी स्वीकार नही किया। यह कितनी धूर्तता की बात है कि मुसलमान यह पसंद नही करते थे कि वन्दे मातरम्‌‌ का मशहूर गान गाया जाए इसलिए गांधी ने इसको जहां भी वे करा सकते थे गाना बन्द करा दिया जबकि यह गीत पिछले सौ वर्षो से अपने आप मेंबहुत ही महत्व रखता है क्योकि यह गीत लोगो को देशके के लिए संगठित होने का प्रोत्साहन देता है। सन 1905 ई. में जब बंगाल के विभाजन का विरोध हुआ तबसे यह गीत बहुत ही सर्वप्रिय हो गया था बंगाली इसी गीत से मातृभूमि की सेवा के लिए सौगन्ध खाते थे और जहां यह गीत गाया जाता था वहां बंगालियों ने अपनी जानों तक का बलिदान दिया। अंग्रेज अधिकारी इस गीत के वास्तविक अर्थ को नही समझतें थे। इसका अर्थ केवल मातृभूमि को नमस्कार करना है। इसलिए 40 वर्ष बीतेसरकार ने कुछ समय तक इस पर प्रतिबंध लगा दिया था परन्तु इस प्रतिबन्ध से यह गीत समस्त भारतवर्ष में और भी अधिक सर्वप्रिय हो गया। उस दिन से यह गीत कांग्रेस और अन्य राष्ट्र्‌रीय अधिवेशनों में गाया जाने लगा। यहां तक कि जब एक कौमवादी मुसलमान ने आक्षेप किया तब गांधी ने सारे राष्ट्र्‌ की भावना को ठुकराकर कांग्रेस पर जोर दिया कि इस गीत के गाये बिना ही काम चला लिया जाए। उसकी जगह पर आजकल हम रविन्द्रनाथ टैगोर कागीत जन गण मन गाते है और हमने वन्दे मातरम गीत को गाना बन्द कर किया है। क्या इससे भी अधिक पतित और कोई काम कोहो सकता है कि ऐसे वि्श्व प्रसिद्ध कोरस ( सामूहिक गान) को इस प्रकार बन्द कर दिया जाए और वह भी केवल इसलिएकि एक अज्ञानी हठधर्मी सम्प्रदाय की धार्मिक जिद को पूरा करने के लिए। यदि इस विषय को उचित ढंग से लिया जातातो अज्ञानियों का अज्ञान मिट जाता उनको प्रकाश मिलता परन्तु अपने 30 वर्षो के नेतृत्व में इस महात्मा को ऐसा साहस कभी नही हुआ। उनकी हिन्दू मुस्लिम एकता की नीति का एक ही अर्थ था कि मुसलमानों के आगे मस्तक झुकायें और वे जो मांगे उन्हे सब कुछ वेझिझक दे दिया जावे। परन्तु इसके बावजूद भी यह हिन्दू मुस्लिम एकता समाज में न तो आइ और न ही इस तरह आ सकतीहै।