बुधवार, 29 जनवरी 2014

सिद्धा श्रमणी शबरी

सिद्धा श्रमणी शबरी

शबरी भारतवर्ष की इतिहास - चक्र का एक ऐसा महत्वपूर्ण पड़ाव हैं कि उनके बिना रामकथा के पूरी होने की कोई संभावना कदापि नहीं दिख्लाई देती । उस पर तुर्रा यह कि अगर रामकथा का विकास बहुत थोड़ा ही हुआ है तो शबरी के चरित्र में भक्ति का जितना अंश वाल्मीकि रामायण में है, उसका तो भरपूर विकास हुआ है।

शबरी के सन्दर्भ में यह बात प्रसिद्ध है कि उन्होंने राम को बेर खिलाए थे और पक्का करने के लिए कि बेर मीठे हैं, शबरी उन्हें खुद चखकर, पक्का करके कि फलां बेर मीठा है, फिर राम को खाने के लिए दे रही थीं और राम बड़े मजे में उनके जूठे बेर खाते जा रहे थे। फिर यह भी जोड़ दिया गया था कि बेरों को जूठा देखकर लक्ष्मण ने खाने से परहेज किया और आंख बचाकर उन्होंने बेर एक ओर फेंक दिए। फिर यह जुड़ा कि जो बेर लक्ष्मण ने फेंक दिए वे ही बाद में वह जड़ी-बूटी बन गए, जिसे सुंघाकर वैद्यराज सुषेण ने लक्ष्मण को मेघनाद की शक्ति से उत्पन्न मूर्छा से बचाया था। पर यह तमाम बेर प्रसंग वाल्मीकि रामायण में नहीं है और जाहिर है कि शबरी के महत्व को बढ़ाने के लिए ये कथाएं-उपकथाएं जोड़ दी गई हैं।

बाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता अपहरण के बाद जब राम उन्हें ढूंढ़ते हुए भयंकर दण्डकारण्य में मारे-मारे फिर रहे थे, तो पहले उन्हें मरणासन्न जटायु मिले। रावण द्वारा सीता अपहरण की सूचना देकर जटायु ने देह त्याग दी तो राम लक्ष्मण ने उनका दाह-संस्कार किया।

फिर दोनों भाइयों का सामना कबन्ध नामक राक्षस से हुआ, जो सिर्फ धड़ ही था और जिसका मुंह उसके पेट में था। उसे मारा तो मरते ही वह दिव्य पुरुष हो गया और उसने राम लक्ष्मण को बताया कि पश्चिमी कोने (नैट्टत्य) में मतंग मुनि का आश्रम है, जहां लोग तो अब नहीं रहते, पर उनकी परिचारिका श्रमणी शबरी वहां रहती है और आपके दर्शन की उसे लालसा है।

अरण्यकांड के सर्ग 74 में शबरी प्रसंग है। मतंग मुनि का आश्रम दण्डकारण्य में पम्पा सरोवर के किनारे था और हमें मालूम रहना जरूरी है कि संस्कृत साहित्य में पम्पा सरोवर खास आकर्षण का केंद्र रहा है, जिसके आसपास अनेक ऋषि मुनियों ने अपने-अपने तरह-तरह के आश्रम बना रखे थे, जिनका रंग-बिरंगा वर्णन कालिदास के ‘रघुवंश’ महाकाव्य के तेरहवें सर्ग में मिल जाता है। उसी सरोवर के किनारे बने मतंग आश्रम में शबरी रहा करती थीं। वाल्मीकि ने शबरी के लिए दो विशेषणों का खूब प्रयोग किया है-सिद्धा और श्रमणी।

सर्ग 73 के श्लोक 26 में दिव्य शरीरधारी कबन्ध ने शबरी को श्रमणी कहा है- श्रमणी शबरी नाम (अरण्यकांड, 73.26)। वाल्मीकि ने उन्हें 74.7 में एकबार फिर श्रमणी कहा है-तामुवाच ततो राम: श्रमणीं धार्मसंस्थिताम्। उसी अरण्यकांड ने श्लोक 74.6 और 74.10 में कवि ने शबरी को सिद्धा कहा है। अर्थात् आध्यात्मिक उपलब्धियों के क्रम में शबरी ने कुछ मुकाम पार कर लिए थे। पर जिस तल्लीनता से वे पिछले साढ़े तेरह वर्षों से राम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं, यह उनके शक्तिमती, प्रपत्तिमति होने का संकेत है और इस तरह शबरी हमारी भक्ति परम्परा का प्राचीनतम प्रतीक बनकर हमारे सामने उभर आती है।

 सिद्धा श्रमणी शबरी के आश्रम में आते ही राम ने दो श्लोकों में जो उनसे पूछा वह पढ़ने लायक है-कच्चित्तो निर्जिता: विघ्ना: कच्चित्तो वर्धाते तप:। कच्चिते नियत: कोप आहारश्य तपोधने। कच्चित्तो नियमा: प्राप्ता कच्चित्तो मनस: सुखम् कच्चित्तो गुरुशुश्रुषा सफला चारुभाषिणी। (74.8-9) अर्थात् हे तपोधने, तुम्हारे सारे विघ्न खत्म हो गए हैं? तुम्हारा तप ठीक चल रहा है? क्या तुमने क्रोध और आहार पर विजय पा ली है? क्या नियमों का पालन ठीक तरह से हो रहा है? क्या मन को सुख मिला हुआ है? क्या गुरु की सेवा सफलतापूर्वक हो रही है?

जवाब में शबरी ने कहा है ‘हे राम, जब आप (साढे तेरह वर्ष पूर्व) चित्रकूट आए थे, तभी मुझे गुरुओं ने कहा था कि आप इस आश्रम में पधारेंगे। मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही हूं और मैंने आपके लिए फल-मूल इकट्ठे कर रखे हैं।’ शायद बेरों वाला प्रसंग इसी आधार पर बाद में विकसित हुआ। इसके बाद उन सिद्धा शबरी ने राम लक्ष्मण को वह सुन्दर मतंग आश्रम दिखाया और फिर प्रसन्नचित्त वे राम के सामने ही अग्नि प्रज्वलित कर उसमें प्रवेश कर गईं।

अब बताइए इस पूरी कहानी में क्या खास बात है? रामायण, महाभारत और पुराणों में ऐसे सैकड़ों प्रसंग मिल जाएंगे, जहां भक्तजन अपने प्रभु के किसी रूप के आगे लोटपोट होते और प्राणत्याग करते रहे हों। पर ऊपर से सामान्य नजर आने वाले इस प्रसंग का भारत की सभ्यता के विकास में एक खास महत्व है और इसे हम कवष ऐलूष और शम्बूक ऋषि के चरित्र के साथ जोड़कर देखना चाहते हैं।

ऐसा लगता है कि भारत की सभ्यता के विकास के क्रम में राम के आसपास का समय काफी महत्वपूर्ण है। अब तक देश में मुख्यधारा सिर्फ एक ही बह रही थी, यज्ञ की धारा। वही विद्वान ऋषिपद को पा सकता था जो मंत्र रचना करे और उसके मंत्रों का यज्ञों में बकायदा प्रयोग, जिसे यज्ञ की तकनीकी भाषा में विनियोग कहते हैं, हो सके। बेशक एक धारा दूसरी भी चल रही थी, आध्यात्म धारा जिसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रवर्तित किया, उनके पुत्र जड़ भरत ने आगे बढ़ाया।

दीर्घतमा मामतेय जैसे कुछ महाकवियों के ‘अस्य वामीय’ सरीखे कुछ सूक्तों में उसका विकास भी हो रहा था, पर जिसका वास्तविक विकास, वेदों के सन्दर्भ में, पांच हजार साल पहले हुए कृष्ण के समय के आसपास हुआ, जब पुरुषसूक्त, कालसूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त, सृष्टिसूक्त जैसे विशिष्ट दार्शनिक सूक्तों की रचना हुई। पर छह हजार साल पहले हुए राम के समय तक भारत में यज्ञ की मुख्यधारा और आध्यात्म की उपधारा के साथ-साथ तप और भक्ति की एक नई धारा का प्रवर्तन भी हो चुका था। सरस्वती नदी के किनारे कवष ऐलूष ने जिस हठयोग से ब्राह्मणों को विवश किया, वह हम देख चुके। दण्डकारण्य में शम्बूक ऋषि ने शरीर को कठोर तप का माध्यम बनाकर पूरी व्यवस्था की नींद हराम कर दी, यह भी हम देख चुके।

इधर, वाल्मीकि शबरी को सिद्धा, श्रमणी कह रहे हैं और राम उनसे पूछ रहे हैं कि उनके नियम कैसे चल रहे हैं, तप कैसा चल रहा है। दण्डकारण्य में राम ऐसे अनेक मुनियों से मिले जो तपस्या करने की कई तरह की नई विधियों को ईजाद कर अपने हिसाब से कई तरह से तपश्चर्या में लीन थे। यह सब देखकर लगता है कि यज्ञ के साथ, और मन्द स्वर में सुनाई दे रही आध्यात्म वाणी के साथ, तपस्या और भक्ति को अलग-अलग धाराएं मान सकते हैं, पर दोनों को एक हो जाने में कोई लम्बा रास्ता नहीं तय करना पड़ता। फिर भी अगर दोनों को अलग मानना हो तो आप शम्बूक को तपस्या का और शबरी को भक्ति का मूर्तिमान रूप मानकर नए प्रर्वतकों में शामिल कर सकते हैं।

शबरी ने जिस भक्ति का प्रदर्शन किया है, उसका एक रूप किष्किन्धा काण्ड में हनुमान विकसित कर रहे थे, जिसमें दास्य और ज्ञान का अद्भुत समावेश था तो दूसरी ओर लंका में विभीषण उसे नामजप द्वारा एक आयाम दे रहे थे। शबरी की भक्तिधारा में प्रपत्ति यानी शरणागति शिखर पर है, जो इस महानारी द्वारा राम की इतनी लम्बी प्रतीक्षा में व्यक्त होती है। मतंगमुनि अपना आश्रम छोड़कर चले गए, शेष सारे मुनि भी आश्रम छोड़ गए, पर चूंकि कह गए कि राम एक दिन इधर आएंगे। सो श्रमणी शबरी ने राम की प्रतीक्षा करनी शुरू कर दी। प्रतीक्षा में वे तंग आकर कभी भी वैसे ही अग्नि में प्रवेश कर सकती थीं जैसा उन्होंने राम के सामने किया। पर शबरी ने उस प्रतीक्षा को अपना लिया जिसके आखिरी छोर का उन्हें स्वयं भी पता नहीं था। मतंग आश्रम अपने सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध था और राम भी उस आश्रम का सौन्दर्य देखने उधर आए थे।

राम आएं तो वे आश्रम देखकर निराश न हों, इसलिए सिद्धा श्रमणी शबरी ने आश्रम का सौन्दर्य पूरे परिश्रम से बरकरार रखा और जैसे ही राम वहां आए, उनकी सेवा शुश्रुषा कर उन्हें तुरन्त सारा आश्रम दिखाया, यह बताते हुए कि कौन ऋषि कहां क्या-क्या करते थे। हमारे इतिहास में भक्ति के इस रूप का पहला उदाहरण है श्रमणी शबरी और इसलिए आश्चर्य नहीं कि वे इस देश की सबसे लोकप्रिय प्रेरक कथा रामकथा का अभिन्न अंग हमेशा के लिए बन चुकी हैं।

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

उपनिषद्

उपनिषद्

रामायण यानी राम का अयन यानी घर अर्थात् रामायण में है राम की कथा। महाभारत उस युद्ध का विराट महाकाव्य है जिससे भारत के सभी राजा महाराजा शामिल हुए तो भारत के एक महायुद्ध के अर्थ में उसका नाम पड़ा महाभारत। ब्राह्मण ग्रन्थ इसलिए वैसे कहलाए क्योंकि उनमें ब्रह्म अर्थात वेद के मंत्रों की व्याख्या यज्ञों के सन्दर्भ में की गई। अरण्य में लिखे जाने के कारण एक खास साहित्य का नाम पड़ गया आरण्यक साहित्य। इसी कड़ी में एक अन्य प्रसिद्ध साहित्य का नाम है उपनिषद । उपनिषद् में तीन शब्द हैं उप, नि और षद। ‘उप’ का अर्थ है नजदीक, आसपास। जैसे राष्ट्रपति उसके एकदम नजदीक उपराष्ट्रपति। ‘नि’ का अर्थ संस्कृत में होता है अच्छी तरह से। ‘षद’ का वास्तविक शब्द है सद जो सन्धि के नियमों के कारण षद हो गया है। अर्थ है बैठना। तो उपनिषद का अर्थ है अच्छी तरह से आसपास बैठना। तो क्या किसी साहित्य का ऐसा नाम भी हो सकता है? हां क्यों नहीं हो सकता? और चूंकि ऐसा है तो इसलिए उसमें भारत की एक खास विचार परम्परा की शक्ल छिपी पड़ी है। कल्पना करिए कि एक आश्रम है। वहां एक पेड़ के नीचे या खुले में एक आचार्य बैठे हैं और उनके आसपास उनके चार-पांच या दस बारह या बीस-पच्चीस शिष्य बैठे हैं। इस आसपास बैठेने का कोई मकसद तो होगा। मकसद था सृष्टि के बारे में सोचना, जीवन के बारे में सोचना, आत्मा और परमात्मा पर विचार विमर्श करना। बन्धन और मोक्ष के बारे में एक-दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करना।

आसपास बैठकर विचारों के इस अच्छी तरह के मन्थन का नाम पड़ गया उपनिषद। और उस उपनिषद में से जो साहित्य निकला उसका नाम पड़ गया उपनिषद साहित्य। एक शब्द आजकल चलता है- सेमिनार। जिसका हिन्दी रूपान्तरण हमने कर दिया हैं संगोष्ठी। जो अर्थ सेमिनार या संगोष्ठी का है ठीक वही अर्थ उपनिषद का है। आप चाहें तो सेमिनार का रूपान्तरण उपनिषद भी कर सकते हैं। यह बात अलग है कि पिछले जमाने में एक सी उपनिषदों यानी एक सी सेमिनारों में दर्शन का ही विवेचन होता रहा इसलिए उपनिषद साहित्य में बस दर्शन ही दर्शन मिलता है। तो पिछले जमाने में यानी कब? हमारा मतलब है कि कब लिखी गई थीं उपनिषदें? दो तरह से जांच करके इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए।

कुल 108 मानी जाने वाली उपनिषदों में से एक उपनिषद का नाम है मैत्रायणी उपनिषद। उसमें एक जगह अपने वक्त की एक खास ज्योतिष संबंधी स्थिति की तस्वीर खींची गई है। ज्योतिष के विद्वान कहते हैं कि यह स्थिति 2000 ईसा पूर्व के आसपास की है।  मैत्रायणी उपनिषद पुरानी उपनिषदों में नहीं मानी जाती। अगर उसका समय 2000 ईसा पूर्व माना जा रहा है यानी आज से चार हजार साल पहले का माना जा रहा है तो जाहिर है कि प्राचीनतम उपनिषद का समय उससे चार-पांच सौ साल पहले का माना जा सकता है। संयोगवश यह वही समय है यानी 2500 ईसा पूर्व यानी आज से करीब साढ़े चार हजार साल पूर्व जब सिन्धु घाटी के किनारे (और देश में बाकी जगहों पर भी) हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे अति समृद्ध और सुविधा सम्पन्न शहर बसे हुए थे, जब ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हो रही थी और जब महाभारत का युद्ध हुए करीब पांच सौ साल बीत चुके थे।

दूसरी तरह से जांच करने पर भी हम इसी समय के करीब पहुंच जाते हैं। कैसे? ऐसे कि महाभारत के महाविनाश के बाद देश में विचारों का जो नया उन्मेष पैदा हुआ संसार और शरीर के प्रति विरक्ति का जो भाव बना और आत्मा की अमरता पर जैसी उत्कट भावाभिव्यक्ति होने लगी उसे देखते हुए उपनिषदों की ऊपरी समय सीमा वही जाकर बनती है जो ब्राह्मण ग्रन्थों के रचनाकाल की है। यानी 2500 ई.पू.। हां, उसमें एक अनुमान सहज ही हो सकता है कि चूंकि देश में यज्ञों के प्रति उत्साह लगातार क्षीण हो रहा था और अध्यात्मविद्या का प्रभाव लगातर फैल रहा था इसलिए जहां ब्राह्मणों और आरण्यकों की रचना पांच-सात सौ सालों में हो चुकी होगी वहां उपनिषदों की रचना लगातार करीब एक हजार साल तक चलती रही होगी। जैसे हर कोई चाहता है कि उसके वंश का, कुनबे का या कौम का कोई पुराना संदर्भ निकल आए ताकि वह अपने को खूब प्रामाणिक साबित कर सके वैसी ही इच्छा संसार को असार मानने के बावजूद उपनिषदकारों को भी हो गई हो तो क्या हैरानी? आखिर थे तो वे भी आपके और हमारे जैसे मनुष्य।

तो जो 108 उपनिषदें मानी जाती हैं उनमें से दो सबसे पुरानी और सबसे ज्यादा मशहूर उपनिषदें कभी उपनिषद के रूप में लिखी ही नहीं गई और उन्हें उपनिषद का दर्जा दे दिया गया। वे हैं ईशोपनिषद और बृहदारण्यकोपनिषद। ये दोनों लिखी नहीं गईं, इसका अर्थ यह है कि ये दोनों किसी दूसरी किताबों का हिस्सा हैं और चूंकि उनमें उसी दर्शन का मन्थन किया गया है जो उपनिषदों का प्रिय विषय है इसलिए उन्हें उनकी मूल किताबों में से निकाल कर स्वतंत्र उपनिषद का दर्जा दे दिया गया। जिसे हम ईशोपनिषद कहते हैं वह वास्तव में यजुर्वेद का चालीसवां यानी आखिरी अध्याय है और जिसे हम बृहदारण्यकोपनिषद कहते हैं वह असलियत में शतपथ ब्राह्मण का आखिरी अध्याय है। जैसे गीता महाभारत के भीष्मपर्व में होने के बावजूद एक स्वतंत्र पुस्तक का रूतबा हासिल कर चुकी है वैसी ही स्थिति ईशोपनिषद और बृहदारण्यकोपनिषद की भी बन गई है।

बृहदारण्यकोपनिषद का तो कुछ ऐसा आकर्षण बना कि पहले आरण्यककारों ने इसे आरण्यक कहना चाहा तो फिर अन्तत: उपनिषदकार इसे अपने कैम्प में खींच ले गए। इन दोनों अतिमहत्वपूर्ण उपनिषदों के अलावा ग्यारह और उपनिषदों को खूब महत्वपूर्ण जगह उपनिषद साहित्य में मिली। उनके नाम जान लेने में कोई हर्ज नहीं। ये हैं केन, कठ, प्रश्न, मण्डूक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, कौषीतकी, श्वेताश्वतर और मैत्रायणी। सवाल है कि 108 उपनिषदों में से इन तेरह उपनिषदों को ही क्यों इतना महत्वपूर्ण मान लिया गया? जवाब में कई कारण गिनाए जा सकते हैं। पहला और सबसे बड़ा कारण तो यही है कि अपने जिस अध्यात्म संबंधी विषयवस्तु के कारण उपनिषदों के हमारे देश में खास इज्जत मिली इन तेरह उपनिषदों में इस अध्यात्म का बहुत ही शानदार विवेचन मिलता है। एक बार जब उपनिषदों का स्थान देश में ऊंचा हो गया तो फिर कई तरह के सम्प्रदायों ने अपने-अपने सम्प्रदाय और उसके इष्टदेव की प्रमुखता स्थापित करने के लिए उपनिषदों की अध्यात्म शैली का सहारा लिया।

पर इन तेरह उपनिषदों में ऐसा कुछ नहीं है और ब्रह्म, आत्मा, जगत बन्धन और मोक्ष पर ही बहस इनमें है। कुछ लोग श्वेताश्वतर को इस सन्दर्भ में इतना महत्व नहीं देते और उसे शैव सम्प्रदाय का उपनिषद मानना चाहते हैं जो एक हद तक ही ठीक है। पर फिर भी उसमें प्राय करके वैसा ही अध्यात्म चिंतन है जैसा शेष बारह उपनिषदों में है। इन तेरह उपनिषदों के अतिमहत्वपूर्ण  होने का एक कारण यह भी माना जाता है कि ये शायद सर्वाधिक प्राचीन उपनिषदें हैं। जाहिर है कि जिस दार्शनिकता के लिए उपनिषदें विख्यात है वह विषय उनमें सर्वश्रेष्ठ तरीके से मिल जाता है और उन्हें की देखा देखी सम्प्रदाय संबंधी उपनिषदों की रचना उनसे बाद में ही की गई होगी। शायद इन तेरह उपनिषदों के इसी महत्व को देखते हुए आदि शंकराचार्य ने इन्हीं में से दस उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा और जिन शेष तीन यानी कौषीतकी, श्वेताश्वतर और मैत्रायणी पर वे भाष्य नहीं लिख सके, उन्हें  उन्होंने अपने शेष भाष्यों में उद्धृत किया है। श्वेताश्वतर पर वैसे तो एक शंकर व्याख्या मिलती है पर वह आदि शंकराचार्य की न होकर उनके किसी उत्तराधिकारी की मानी जाती है। शंकर जैसे मौलिक और प्रामाणिक दार्शनिक द्वारा इस तरह महत्व मिल जाने पर इन तेरह उपनिषदों का महत्व मानो और भी पुख्ता हो गया।

देश का विराट दार्शनिक चिंतन इन उपनिषदों में हमारे यहां पनपे नौ दार्शनिक स्कूलों में सुरक्षित है। इन नौ सम्प्रदायों में वेदों को महत्व न देने के कारण तीन अतिप्राचीन सम्प्रदायों चार्वाक, जैन, बौद्ध को नास्तिक सम्प्रदाय माना जाता है। नास्तिको वेदानिन्दक यानी नास्तिक वह है जो वेद की निन्दा करता है। तो वेदों में श्रद्धा रखने के कारण बाकी छह अपेक्षाकृत कम प्राचीन सम्प्रदायों न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त को आस्तिक सम्प्रदाय माना जाता है। दो खास हिस्सों में बंटे होने के बावजूद सभी नौ दार्शनिक स्कूलों या सम्प्रदायों का बराबर का महत्व इस देश में रहा है। इन सभी नौ के नौ सम्प्रदायों के बीज वेदों और उपनिषदों में हैं और वहीं से इनका विकास हुआ।

पर इन सभी में उपनिषदों का महत्व सर्वाधिक माना गया और उनका दार्शनिक चिंतन सर्वश्रेष्ठ माना गया तो वह अकारण नहीं। कारण यह है कि जहां दार्शनिक स्कूलों की पुस्तकों में दर्शन का विवेचन सिद्धांतों, तर्कवितर्को और खण्डन-मण्डनों में बंधा है वहीं उपनिषदों में वह वैसा ही सहज प्रवाहपूर्ण और स्वत: स्फूर्त है जैसा गीता में है।

आर्य सनातन वैदिक हिन्दू धर्म और दूसरे धर्मों मे आधारभूत अंतर क्या है ?

आर्य सनातन वैदिक हिन्दू धर्म और दूसरे धर्मों मे आधारभूत अंतर क्या है ?

आर्य सनातन वैदिक हिन्दू धर्म एवं अन्य मजहब में कोई समानता नहीं हो सकती । कारण यह है कि आर्य सनातन वैदिक धर्म की स्थापना स्वयं परमात्मा ने की है , तथा अन्यावधर्मों यथा इस्लाम , इसाई आदि मजहबों की स्थापना मनुष्यों ने की है । अतः हिन्दू धर्म व अन्य मजहबों में अंतर स्वाभाविक है । हिन्दू सनातन धर्म और अन्य मजहबो में मुख्य-मुख्य आधारभूत अंतर क्या है ?

(१). सत्य निरपेक्ष है या सापेक्ष -
हिन्दू सनातन धर्म में सत्य को निरपेक्ष माना गया है अर्थात सत्य इसलिए सत्य नहीं कि वह किसी पैगंबर या किसी मजहबी किताब द्वारा कथित है ,अपितु वह अपने आप में सत्य है !
यदि कोई पैगंबर सत्य को असत्य करार दे दे तो भी सत्य, सत्य ही रहेगा न कि वह असत्य हो जाएगा ।

इस्लाम, ईसाई या अन्य गैर हिन्दू सनातन धर्म में सत्य को सापेक्ष माना गया है ।
इन धर्मावलंबियों के अनुसार सत्य इसलिए सत्य है क्योकि उक्त कथन उनके पैगंबर और उनकी मजहबी किताब द्वारा कथित है ,न कि सत्य अपने आप में सत्य है !

(२). जीव दया और करूणा -

करूणा और दया हिन्दू सनातन धर्म का मूल है,तभी तो कहा गया है- जहाँ जीव दया तहां धर्म है.
जब बाइबल पढते हुए कोई हिन्दू जब यह लिखा हुआ पाता है कि ईसा मसीह ने एक रोटी और एक सूखी मछली से सभी अनुयाइयों का पेट भर दिया तो वो समझ नहीं पाता कि यह कैसा ईश्वर है
या ईश्वर का पुत्र है जिसे पेट भरने के लिए मछली को मारना या खाना पडा ?
इससे अच्छा तो वो भूखा रह लेता ।
एक हिन्दू कुछ इसी प्रकार की धारणा इसलाम या अन्य उन सभी धर्मों के प्रति रखता है जो अहिंसा का समर्थन निरपेक्ष रूप से नहीं करते ।
सनातन और अन्य धर्मों में यह दूसरा मुख्य अंतर है ।
हिन्दू जीव मात्र के लिए भी दया और कल्याण की भावना रखता है जबकि अन्य धर्म ऐसा नहीं सोचते ।

(३).आत्मा की एकता और अमरता -

हिन्दू न केवल आत्मा को अजर अमर मानता है अपितु सभी आत्माओं की एकता में भी विश्वास करता है अर्थात वो मानता है कि सभी जीवों में एक जैसी आत्मा निवास
करती है ,
इसके विपरीत अन्य धर्म यह मानते है कि ईश्वर ही आत्माओं को पैदा करता है और वही नष्ट भी करता है ।
ईसाई धर्म तो पशुओं में आत्मा के अस्तित्व को नकारते हुए केवल मनुष्यों में ही इसके अस्तित्व को स्वीकारता है ।
यही कारण है कि वो इसे उपभोग की वस्तु मानता है जिसे मनुष्यों के उपभोग के लिए ईश्वर ने सृजित किया है ।
इसके विपरीत एक हिन्दू को भोजन या अन्न को जूठा छोडने में भी हिंसा नजर आती है कि इस व्यर्थ किए गए अन्न से किसी अन्य की भूख मिटाई जा सकती थी !

(४). निरंतर चलने वाली समावेशी प्रकिया -

सनातन धर्म व अन्य धर्मों में यह अंतर सबसे महत्वपूर्ण है । जब कोई भी नया विचार (या धर्म) पनपता है तो उस वक्त वह सर्वथा उपयुक्त और सत्य प्रतीत होता है लेकिन आगे कालांतरमें उसमें कमियां दृष्टिगोचर होने लगती है ।

ऐसे में इस पूर्ववर्ती विचारधारा के विपरीत दूसरी विचारधारा पनपती है । आगे चलकर इन दोनों विचारधाराओं को समन्वित करने वाली तीसरी विचारधारा का विकास होता है ।
इस प्रकार से यह किसी विचार या धर्म के विकास के लिए
निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है ।

हिन्दू सनातन धर्म कि विशेषता यही है कि यह धर्म किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त मात्र न होकर अनेकानेक व्यक्तियों के विचारों और हजारो किताबो का सामुहिक प्रतिफल है जो हजारों सालों में परिमार्जित हुआ है ।

इस प्रकार से हिन्दू सनातन धर्म एक खुला धर्म है,जो विचार से नहीं अपितु विवेक से विकसित हुआ है ।

ईश्वर को साकार रूप मे मानने वाला हिंदू है और निराकार रूप मे मानने वाला भी हिंदू है !

आप राम को मान कर भी हिंदू हो सकते है व श्रीकृष्ण को मानकर भी और गुरू नानक ,गौतमबुद्ध और महावीर को मानकर भी हिंदू हो सकते है।
"लेकिन यहा सिर्फ 'श्रीराम' मे मानने वाले को हिंदू नही कहा
सकता ।"....

इसलिए सनातन धर्म किसी खास धर्म संस्थापक, पैगंबर या किसी खास पद्धति के एकाधिकार से परे है !

पर इसलाम मे मौहमम्द को मानना हर हाल मे जरूरी है साथ
ही अल्लाह के अलावा मोहम्मद,फरिश्तो ,आदम और अरबी इबादत के तरीको को हर हाल मे मानना जरूरी है।
इस प्रकार अरबी अल्लाह ,अरबी मोहम्मद ,अरबी फरिश्ते कुरान अरबी मे ,हज अरब मे और अरबी इबादती तरीको से अरबी सभ्यता को मजहबी चोला पहनाया गया है और इन सभी को मानकर और फोलो करके ही मुस्लिम बना जा सकता है।

इसके विपरीत सनातन धर्म मे दिन मे एक बार सिर्फ मन मे ईश्वर का नाम लेने वाला भी हिंदू कहा जा सकता है ।

इस्लाम के सकारात्मक पक्ष जकात देना ..बुजुर्गो की इज्जत देना ..हज करना आदि बहुत ही सामान्य और साधारण मानवीय मूल्य है ,जिनको अरबी कल्चर का चोला पहनाया गया है ।
कोई सामान्य बुद्धि का व्यक्ति यह समझता है कि बुजुर्गो से कैसे पेश आना है कैसे नियमो ,कर्तव्यो का पालन करना है वगैरह वगैरह
जबकि इस्लाम से पहले भी दुनिया कही ज्यादा समृद्ध,सभ्य , संस्कारी और विकसित थी !

खुद इस्लाम मानने वाले देशो मे कितनी भुखमरी,अराजकता और बदहाली है और वहा के ईमान वाले मुस्लिमो ने कितने नौबेल पुरस्कार जीते है ??
बस जहा इनका तेल खत्म वहा खेल खत्म ...

काफिरो की शिक्षा और अविष्कारो का इस्तेमाल किये बिना सिर्फ अपनी कुरान के सहारे रिसर्च मे,विज्ञान मे ,टैक्नोलोजी मे ,मेडिकल मे ,अंतरिक्ष अभियान मे और सैन्य क्षमता मे क्या करके दिखाया है ??
जब जमीन ही ऐसी है तो फसल भी ऐसी ही होगी ...

बरहाल धर्म चाहे वह इस्लाम हो चाहे इसाई या कोई अन्य, सभी बंद धर्म है जो एक व्यक्ति मात्र के विचारों पर आधारित है और
"जो यह मानकर चलते है कि समय अपरिवर्तित रहता है और व्यक्ति का विवेक भी ।"

इसलिए इन धर्मों में "विचारों के विकास" का कोई महत्व नहीं है ।
यही कारण है कि इन धर्मों में विशेष आग्रह अथवा वैचारिक कट्टरता पाई जाती है ।
ईसाई धर्म में जो थोडी बहुत उदारता पाई जाती है उसका हेतु प्रोटेस्टेंट विचारधारा का विकास है अन्यथा इसाई धर्म भी उतना ही अनुदार और कट्टर होता जितना इस्लाम है ।

बेशक हिन्दू सनातन धर्म भी उतना ही कट्टर होता जितना ईसाई या इस्लाम धर्म है ,यदि इसमें विभिन्न विचारधाराओं का समावेश न हुआ होता !
हिन्दू (सनातन) धर्म में ईश्वर तक पहुंचने का अनेक मार्ग बताया गया है, जैसे ज्ञानयोग, भक्तियोग, नादयोग,लययोग, प्रेमयोग, कर्मयोग, राजयोग वगैरह-और कोई मार्ग किसी से श्रेष्ठ नहीं है.

हिन्दू को यह मानने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती कि उस तत्व तक पहुंचने का और भी मार्ग हो सकता है क्योकि धर्म एक निंरतर चलने वाली प्रकिया है !

सनातन हिंदू धर्म किसी खास संस्थापक , पैगंबर या किसी खास पद्धति के एकाधिकार से परे है !

"असल मे धर्म तो सिर्फ सनातन है ,बाकि सब तो संप्रदाय है"..!
इसलिए हजारो वर्षो मे न जाने कितने ही दूसरे मजहब और पंथ आये ,फिर कही विलुप्त हो गये ...
और न जाने कितने ही और पंथ मजहब आयेंगे और बाद मे कालचक्र मे कही खो जायेंगे ...
लेकिन ये सनातन धर्म तब भी था..आज है..और सदैव रहेगा !

इसलिए हिन्दू सनातन धर्म की अन्य धर्मों से कोई तुलना नहीं की जा सकती ....
क्या सागर की तुलना किसी तालाब से की जा सकती है
या बरगद की तुलना कैकटस से की जा सकती है ?

"वैसे भी हिन्दू कोई धर्म नहीं अपितु हिन्दू एक स्थानवाची संज्ञा है ,धर्म तो सनातन है"..
जिसकी सत्या, अपरिग्रह, करुणा, दया, ममता, क्षमा, नमस्कार, वंदन, अरिहंत, पूजा, अर्चना, आराधना,तीर्थ, उत्सव, पर्व, जैसे कई बातें किसी धर्म मे नही है..

वासुदेव कुटुम्बकम, मिच्छामि दुक्कडाम, सर्वत्रा सुखी भवतु एसी बाते कही सुन ने को नही मिलेगी...

मीरा, नरसिंह, प्रह्लाद, ध्रुव, चंदंबाला, जैसी प्रभु भक्ति,पंचतंत्र ,चाणक्यनीति आदि कहा देखने को मिलेगी..

वास्तुशास्त्र ,पतंजलि-चरक चिकित्सा पद्धति , खगोल विज्ञान ,नक्षत्र विज्ञान ,आर्युवेद ,योगशास्त्र जैसी सैकड़ो अमूल्य वैज्ञानिक पद्धतियाँ भला कहा देखने को मिलेगी ..

होली, धुलेटी, दिवाली, उत्तरायण, शिवरात्रि, नवरात्रि रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी ,तीज जैसे उत्सव और कहाँ ??
पर्यूषण, श्रावण माज़ जैसे पर्व सिर्फ प्रभु भक्ति के लिये, ऐसा कही कहाँ ??

सुबह की रोटी गाय की और रात की एक रोटी कुत्ते के लिये -ऐसा कही कहाँ ??

अपनी वैभवशाली संस्कृति का कोई मोल नही है..किस्मत वालो को ही सनातनी संस्कृति मिलती है..!

रविवार, 26 जनवरी 2014

अहिंसा की गलत परिभाषा गढ़ने के कारण ही आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि

अहिंसा की गलत परिभाषा गढ़ने के कारण ही आतंकवादी  घटनाओं में वृद्धि

अहिंसावादी समाज की स्थापना के लिए तथा समाज के शांतिप्रिय लोगों के अधिकारों की सुरक्षार्थ भारतवर्ष सदा से ही शास्त्र के साथ शस्त्र का समन्वय स्थापित करके चलने वाला राष्ट्र रहा है। यह दुर्भाग्य रहा इस देश का कि इसे कायरों की सी अहिंसा वाला देश बना दिया गया। जिससे हम यह भूल गये कि अहिंसा की रक्षार्थ भी हिंसा की आवश्यकता होती है। अहिंसा की वर्तमान प्रचलित परिभाषा ने हमें आलसी और प्रमादी बनाया है। फलस्वरूप आजादी के पिछले 67 वर्षों में हमने अहिंसा की अखण्ड ज्योति पर लाखों निरोह लोगों के नरमुण्ड कट कटकर धड़ाधड़ गिरते देखे हैं। कश्मीर, पंजाब का आतंक पूर्वोत्तर भारत के अशांत राज्यों में जारी हिंसा का तांडव, माओवादी व नक्सली हिंसा, आतंकवादी घटनाएं आदि इतने व्यापक स्तर पर होती रही हैं कि भारत को अहिंसावादी राष्ट्र कहने में भी शर्म आने लगी। ये आतंकवादी घटनाएं इसलिए बढ़ी हैं कि हमने अहिंसा की गलत परिभाषा गढ़ी कि कोई तुम्हारे एक गाल पर यदि चांटा मारे तो आप दूसरा गाल उसके सामने कर दो। हम चांटे खाते रहे और दुश्मन हमारे जनाजे गिनते रहे। इस अहिंसा ने हमें राष्ट्र धर्म से विमुख किया। हम रास्ता भूल गये। फलस्वरूप सारी व्यवस्था अस्त व्यस्त हो गयी।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

गण संस्कृति यज्ञ संस्कृति

गण संस्कृति यज्ञ संस्कृति

परिवार, वर्ण, ग्राम, नगर, जनपद तथा राष्ट्र इन सभी स्तरों पर गणों के गठन की विधि को हम भारतियों ने सहस्त्राब्दियों से विकसित किया है। धार्मिक, औपासनिक परम्पराओं के साथ ही सामाजिक, आर्थिक व राजनयिक व्यवस्थाओं में गणों का विकास हिन्दूओं ने प्राचीनतम काल से किया है।

यह हमारे देश का दुभाग्य ही है कि स्वाधीनता के बाद हमारे इन प्रचण्ड ऐतिहासिक अनुभूतियों को पूर्णतः दुर्लक्षित कर हमने विदेशी विचारों पर आधरित व्यवस्था को अपनाया। इतना ही नहीं सेक्यूलर के नाम पर अपनी सभी प्राचीन परम्पराओं को प्रभावी रुप से नकारने का काम किया। परिणामतः परिभाषा में गणराज्य होते हुए भी सामूहिक चेतना के विकास के स्थान पर हमने विखण्डित गुटों की राजनैतिक चेतना का विकास किया। पंथ, प्रांत, भाषा तथा जाति जैसी सामूहिक चेतना व्यक्ति के विस्तार का माध्यम बनने के स्थान पर हमारी प्रचलित राजनैतिक व्यवस्था में यह सभी परिचय विघटन का कारण बनते जा रहे है। समाज में धार्मिक स्तर पर आज भी जीवित ‘गण’ संकल्पना को ठीक से समझकर उसे व्यवस्थागत रुप प्रदान करना वर्तमान भारत की सबसे बड़ी चुनोति है।

गण के गठन के शास्त्र को हम समझने का प्रयत्न करते है तो हम पाते है कि इसका भावात्मक आधार ‘त्याग’ में है। त्याग से ही व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज व समाज से राष्ट्र के स्तर पर स्वत्वबोध का विस्तार सम्भव है। त्याग का संस्थागत स्वरुप हे यज्ञ। यज्ञ के द्वारा हम सहजता से त्याग को परम्परा के रुप में ढ़ाल पाये है। आज भी हमारे घरों में गाय के लिये गोग्रास, तुलसी को पानी देने जैसी परम्पराओं का प्रयत्नपूर्वक पालन किया जाता है। अतिथि भोजन जैसे भूतयज्ञ द्वारा समाज को आपस में बांध रखा था। अतः यज्ञ को समझने से ही गण के गठन का कार्य किया जा सकता है।

गीता में भगवान कृष्ण कहते है कि यज्ञ के द्वारा ही प्रजा का सृजन कर प्रजापति ने लोगों को कहा कि यह यज्ञ ही आपकी कामधेनु है जिसके द्वारा आप अपनी सभी ईच्छाओं की पूर्ति कर सकते हो।
सहयज्ञाः प्रजा सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वम् एष्वोSस्विष्टकामधुक्।।गी 3.10।।

अगले दो श्लोंकों में यज्ञ के द्वारा त्याग से कैसे परस्पर सामंजस्य बनाकर समुत्कर्ष की प्राप्ति हो सकती है इसका वर्णन है।
देवान्भवयतानेन ते देवा भवयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्सथ।। गी 3.11।।

यह भी कहा है कि बिना यज्ञ में हवि दिये अर्थात समाज, सृष्टि में अपने योगदान की श्रद्धापूर्वक आहुति दिये बिना जो भोग करता है वह तो चोर है।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभावितः।
तैर्दत्तान प्रदायेभ्यो यो भुन्क्ते स्तेन एव सः।। गी 3.12।।

आजके समस्त भ्रष्टाचारी इसी श्रेणी में आते है। यह श्लोक तो इन पापियों के लिये और भी कठोर शब्दावली का प्रयोग करता है। यज्ञ के प्रसाद के रुप में भोग करनेवाले लोग सर्व पापों से मुक्त हो जाते है वहीँ जो केवल अपने स्वार्थ के लिये ही भोग करते है वे तो पाप को ही खा रहे होते है।

यज्ञ अपने निर्माण में सबके योगदान को अधोरेखित कर अपने कर्म में उसके प्रति कृतज्ञता का व्यवहार लाने का संस्कार देता है। अतः यज्ञ के द्वारा ही गण का गठन सम्भव है। आज हमें पुनः यज्ञ संस्कारों के जागरण के द्वारा गण संस्कृति की पुनस्थार्पना करने की आवश्यकता है। इसीसे वास्तव में हमारे संविधान का ध्येय गणतन्त्र साकार हो सकेगा। संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ मौलिक कर्तव्यों की भी बात की है| भारतीय संस्कृति में सदा कर्त्तव्य को ही महत्त्व दिया गया है| अधिकार को उसके अप्रिनाम के रूप में ही देखा गया| यज्ञ का व्यवहारिक रूप कर्त्तव्य में ही प्रगट होता है| स्वाहः का मंत्र अपने कर्तव्यों की आहुति का परिचायक है| किन्तु भारतीय संस्कृति के स्थान पर विदेशी राज के प्रभाव में बने होने के कारण हमारे संविधान में मौलिक अधिकार तो न्यायलय में कार्यान्वित किये गए है किन्तु मौलिक कर्तव्यों का स्वरुप मात्र सुझावात्मक रखा गया है| इनकी अवहेलना को किसी न्यायलय में चुनौती नहीं दी जा सकती| यह हमारी विडम्बना है|

गण संकल्पना पर आधारित व्यवस्थाओ के निर्माण के लिये यज्ञ को और अधिक विस्तार से समझने की आवश्यकता है। इस गणतन्त्र दिवस के अवसर पर हम गणत्व को जीवन में उतारने के लिये यज्ञ को समझाने व जीवन में उतारने का संकल्प ग्रहण करें।

1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम के तथ्यों को छुपाने की साजिश

1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम के तथ्यों को छुपाने की साजिश

10 मई 1857 को शुभारम्भ हुए 1857 के स्वाधीनता संग्राम को याद करके आज भी यूरोपियनों की नीद हराम हो जाती है । इस संग्राम की यादों को दफन करने, इससे बदनाम करने, तथ्यों को छुपाने व तोड़ने-मरोड़ने के अनगिनत प्रयास तब भी हुए और आज भी चल रहे हैं ।  अंग्रेजों ने इसे एक छोटा सा सैनिक विद्रोह बतलाया ।

जबकि सच्चाई यह है कि यह संग्राम देश के हर कोने में लड़ा गया. एक ही दिन में १०,१५,२० जगह पर युद्ध चलता था ।  छोटे बड़े नगरों से लेकर वनवासियों तक ने इस युद्ध में भाग लिया ।  इस युद्ध के संचालकों की अद्भुत कुशलता और योग्यता का पता इस बात से चलता है कि जिस युद्ध की योजना में करोड़ों लोग भाग ले रहे थे उसका पता अंग्रजों के गुप्तचर विभाग को अंतिम दिन तक तक न चल सका । ऐसा एक भी कोई दूसरा उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं मिलता ।

आज भी हमारे उपलब्ध साहित्य में तथा अंतरजाल अर्थात इंटरनेट पर विश्व के इस सबसे बड़े स्वतंत्रता संग्राम को एक छोटा सैनिक विद्रोह बतलाने का झूठ चल रहा है । उस संग्राम में में 300000 ( तीन लाख ) वनवासियों, नागरिकों व सैनिकों की हत्या हुई थी । फ्रांस, जापान, अफ्रीका अदि संसार का एक भी देश ऐसा नहीं जिसके वीरों ने अपने देश की आजादी के लिए इतना लंबा संघर्ष किया हो या इतने लोगों के जीवन बलिदान हुए हों । ऐसा देश भी केवल भारत ही है जहां स्वतन्त्रता के बाद भी अपने देश के इतिहास को अपनी दृष्टी से न लिख कर देश के दुश्मनों द्वारा लिखे इतिहास को पढ़ा-पढ़ाया जा रहा हो । इससे लगता है कि अभी तक यह देश आज़ाद नहीं हुआ है । केवल एक भ्रम है कि हम आज़ाद है । वरना कोई कारण नहीं कि हम अपने देश के सही, सच्चे इतिहास को फिर से न लिखते । क्या इसका यह अर्थ नहीं कि अँगरेज़ जाते हुए भारत की सत्ता उन लोगों के हाथ में सौंप गए जो उनके ख़ास अपने थे, जो भारत में रह कर उनके हितों के रक्षा करते ? कथित आज़ादी के बाद के 67 वर्ष के इतिहास पर एक नज़र डालें तो इस बात के अनगिनत प्रमाण मिलते हैं कि देश का शासन भारत के शासकों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के हित में, अनके अनुसार चलाया । स्वतंत्र इतिहासकरों के अनुसार देश आज़ाद तो हुआ ही नहीं, सत्ता का हस्तांतरण हुआ. कई गुप्त देश विरोधी समझौते भी हुए जिन पर अभीतक पर्दा पड़ा हुआ है । जैसे कि एडविना बैटन के सम्मोहन में नेहरू जी ने बिना किसी को भी विश्वास में लिए देश के विभाजन का पत्र माउंट बैटन को सौंप दिया था । महान क्रांतिकारी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को अंग्रेजों की कैद में भेजने का गुप्त समझौता आदी । क्या इन सब तथ्यों और आजकल घट रही अनगिनत देश विरोधी घटनाओं व कार्यों के बाद भी कोई संदेह रह जता है कि यह सताधारी भारत में, भारत के लोगों द्वारा चुने जाकर विदेशी आकाओं के हित में, विदेशी आकाओं के इशारों पर काम कर रहे हैं ? अंतर है तो बस केवल इतना कि पर्दे के पीछे भारत के सत्ता के सूत्र संचालित करने वाला, इन विदेशी ताकतों का मुखिया पहले ब्रिटेन होता था जबकि अब इनका मुखिया अमेरिका है ।

पहले हमारी पाठ्य पुस्तकों में 1857 के वीरों की कथाएं होती थीं. ” खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी” हम बच्चे पढ़ते थे । रानी झांसी पर नाटक होते थे ।धीरे, धीरे वह सब हमारे स्कूली पाट्यक्रम में से कब गायब होता गया, पता भी न चला । इससे भी लगता है कि देश के शासक काले अँगरेज़ आज भी विदेशी आकाओं के इशारों पर देश का अराष्ट्रीयकरण करने के काम में लगे हुए है और देश की जड़ें चुपके, चुपके काट रहे है ।

संसार के देश कभी न कभी गुलाम रहे पर आज़ादी के बाद उन सब ने अपना इतिहास अपनी दृष्टी से लिखा । इसका एक मात्र अपवाद भारत है जहाँ आज भी देश के दुश्मनों द्वारा लिखा, देश के दुश्मनों का इतिहास यह कह कर हमें पढ़ाया जाता है कि यह हमारा इतिहास है । जर्मन के एक विद्वान ‘ पॉक हैमर’ ने भारत के प्रचलित इतिहास को पढ़ कर भारत पर लिखी एक पुस्तक ”इंडिया-रोड टू नेशनहुड” की भूमिका में लिखा कि जब मैं भारत का इतिहास पढता हूँ तो मुझे नहीं लगता कि यह भारत का इतिहास है । यह तो भारत को लूटने वाले, हत्याकांड करने वाले आक्रमणकारियों का इतिहास है । जिस दिन ये लोग अपने सही इतिहास को जान जायेंगे, उसदिन ये दुनिया को बतला देंगे कि ये कौन हैं । बस इसी बात से तो डरते हैं भारत के विदेशी आका । वे नहीं चाहते कि हम अपने सही और सच्चे इतिहास को जानें । हम समझें या न समझें पर वे अच्छी तरह जानते है कि हमारे अतीत में, हमारे वास्तविक इतिहास में इतनी ताकत है कि जिसे जानने के बाद हमें संसार का सिरमौर बनने से कोई भी ताकत रोक नहीं पाएगी. इसी लिए उन लोगों ने अनेक दशकों की मेहनत से भारत का झूठा इतिहास लिखा और मैकाले के मानस पुत्रों की सहायता से आज भी उसे भारत में पढवा रहे हैं ।

भारत का इतिहास विकृत करने वालों में एक अंग्रेज जेम्स मिल का नाम प्रसिद्ध है । उसके लिखे को प्रमाणिक माना जाता है । ज़रा देखे कि वह स्वयं अपने लिखे इतिहास की भूमिका में अपनी नीयत को स्पष्ट करते हुए क्या कहता है । वह कम से कम एक बात तो सच लिख रहा है कि ये लोग ( भारतीय ) संसार में सभ्य समझे जाते हैं, ये हम लोगों को असभ्य समझते है । हमें इन लोगों का इतिहास इस प्रकार से लिखना है कि हम इन पर शासन कर सकें । इस कथन से तीन बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि (१) सन 1800 तक संसार में भारतीयों की पहचान सभ्य समाज के रूप में थी. इस तथ्य को तो हम नहीं जानते न ? (२) तब तक भारत के लोग इन अंग्रेजों को असभ्य समझते थे जो कि वे थे भी । गो मांस खाना, कई- कई दिन न नहाना, स्त्री- पुरुष संबंधों में कोई पवित्रता नहीं, झूठ, ठगी, रिश्वत आदि ये सब अंग्रेजों में सामान्य बात थी जबकि आम भारतीय तब बड़ा चरित्रवान होता था । अधिकाँश लोग शायद मेरे बात पर विश्वास नहीं करेंगे, अतः इस बात के प्रमाण के लिए 2 फवरी, 1835 का टी. बी. मैकाले का ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिया वक्तव्य देख लें । उसे कभी बाद में उधृत करूंगा ।(३) तीसरा महत्वपूर्ण निष्कर्स मिल के कथन से यह निकालता है कि उसने भारतीयों को गुलाम बनाए रखने की दृष्टी से जो भी लिखना पड़े वह लिखा. यानी सच नहीं लिखा । भारतीयों में हीनता जगाने, गौरव मिटाने की दृष्टे से लिखा ।

इसी प्रकार उन्होंने भारत के सभी महल, किले, नगर, भवन भारतीयों की निर्मिती न बतला कर अरबी अक्रमंकारियों की कृती लिखा और हम भोले भारतीयों ने उसी को सच मान लिया । इतना तो सोच लेते कि जो हज़ारों साल से इस भारत भूमि में रह रहे हैं, उनके कोई भवन, महल, किला हैं कि नहीं ? जिन विदेशी आक्रमक अरब वासियों को भारत के सारे वास्तु का निर्माता बतला रहे हैं उन्हों ने अपने देश में ऐसे कितने, कौनसे भवन बनाए ? वहाँ क्यूँ नहीं बनाए ? इसी प्रकार हमारा इतिहास झूठ, विकृतीकरण व विदेशी षड्यंत्रों का शिकार है. कथित भारतीय इतिहासकार भी यूरोपीय झूठे लेखकों के लिखे पर संदेह योग्य स्वाभिमानी व दूरद्रष्टा नहीं थे । ऐसे ही लोगों द्वारा 1857 के महान स्वतन्त्रता संग्राम के सत्य को दबाया, छुपाया गया है ।

अतः यदि सदीप्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के सच्चे इतिहास को जानना है तो वीर सावरकर के लिखे 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ना होगा ।

इतना तो हम सब को समझने का प्रयास करना ही चाहिए कि हमारे सही, सच्चे इतिहास में कुछ ऐसी ताकत है कि जिस से हम संसार का सिरमौर बन सकते हैं, अपनी ही नहीं तो दुनिया की समस्याओं को हल कर सकते हैं ।तभी तो अंग्रजों ने १०० साल से अधिक समय तक अथक प्रयास करके हमारे अतीत को विकृत किया । किसी अज्ञात विद्वान ने कहा है कि यदि किसी देश को तुम नष्ट करना चाहते हो तो उसके अतीत को नष्ट करदो, वह देश स्वयं नष्ट हो जाएगा । क्या हमरे साथ यही नहीं हुआ और आज भी हो रहा है ?

तो आईये हम अपने अतीत को सुधारने के क्रम में अपने उन शहीदों को याद करें जो इस लिए बलिदान हो गये कि हम सुखी, स्वतंत्र रह सकें ।10 मई के दिन 1857 की अविस्मर्णीय क्रान्ति और उसके क्रांतिकारियों की याद में अपनी आँखों को नम हो जाने दें और सकल्प लें कि उनके बलिदानों से प्ररेणा लेकर हम आज के इन विदेशी आकाओं के पिट्ठुओं से देश को स्वतंत्र करवाने के लिए संघर्ष करेंगे, भारत को भिखारी बना रहे बेईमानों के चुंगल से स्वतंत्र होने के लिए एक जुट होकर कार्य करेंगे । विश्वास रखें कि हमारे सामूहिक संकल्प से सबकुछ सही होने लगेगा. ध्यान रहे कि हमें टुकड़ों में बांटने के षड्यंत्र अब सफल न होने पाए।