बुधवार, 31 जुलाई 2013

भारतीय धर्म*संस्कृति को नष्ट करने का अंग्रेजी सरकार का घिनौना प्रयत्न -अशोक "प्रवृद्ध"

भारतीय धर्म-संस्कृति को नष्ट करने का अंग्रेजी सरकार
का घिनौना प्रयत्न.......
  अशोक "प्रवृद्ध"
सर ए ओ ह्युम का कुत्सित प्रयास.......
ए. ओ. ह्यूम सन् 1882 में जब सरकारी सेवा से मुक्त हुए तो अपने सेवा-
काल में प्राप्त अनुभवों पर विचार करने लगे। उनका जीवन चरित्र लिखने
वाले सर विलियम वडरबर्न उनके अनुभवों के विषयमें इस प्रकार लिखते हैं
—‘सेवा-मुक्त होने से कुछ पहले ह्यूम के पास ऐसे प्रमाण एकत्रित हो गये
थे कि जिनसे उसे विश्वास हो गया कि हिन्दुस्तानी में एक गम्भीर,
स्थिति उत्पन्न हो चुकी है, जिसका अति भयंकर परिणाम निकल सकता है।
'"The evidence that convinced him of the immence of the
danger was contained in seven large………..volumes
containing a vast number of enteries…………from over thirty
thousand different reporters…………
(महान् भय के प्रमाण जो उसे मिले, वह सात वृहत्.....खण्डों में रखे गये थे।
उन प्रमाणों में लगभगतीस सहस्र सूचनाएँ सम्मिलित हैं।)इन सात खण्डों में
साधु-सन्त, महात्माओं और उनके चेलों के लिखे पत्र हैं, जो देश के
धार्मिक नेताथे। उनका अविश्वास नहीं किया जा सकता था। इन
प्रमाणों की उपस्थिति में सर वडरबर्न लिखते हैं—
Hume felt that a safety valve must be provided for the
suppressed discontentment of the masses and something
must be done to relive their despair, if a disaster was to
be averted………
(ह्यूम यह अनुभव करता था कि जनता में दबे हुए असन्तोष को निकलने
का स्थान होना चाहिए। उनकी निराशा को दूर करने का कुछ यत्न
करना चाहिए, जिससे भयंकर दुर्घटना होने से रोकी जा सके।)सर ह्यूम
सरकारी नौकरी में सन् 1849 में आये थे और सन् 1882 में सेवा-मुक्त हुए
थे। वेहिन्दुस्तान के उस ऐतिहासिक काल में भारत सरकार में रहे थे, जिसमें
सन् 1857 का अंग्रेज़ी राज्य के विरुद्ध भयंकर विद्रोह हुआ था और उस
विद्रोह के उपरान्त अंग्रेज़ सेनाशाही ने जनता से भीषण प्रतिशोध
लिया था। उस काल के अनुभव ही ह्यूम के मस्तिष्क पर बोझा बने हुए
प्रतीत होते हैं।परन्तु जो कुछ ह्यूम को अपने सेवा-काल में विदित हुआ था,
वही कुछ मैकॉले और उसके समान विचार वाले अंग्रेज़ विद्वानों को पहले
ही अनुभव हो चुका था। उन्होंने भी भारत के प्रशान्त सागर की तह के नीचे
गहराई में एक प्रबल धारा बहती देखी थी और उन्होंने इस धारा को दबा देने
का प्रयत्न अपने ढंग से किया था।
इस प्रतिशोध का स्वरूप दो प्रकार से दृष्टिगोचर हुआ था। एक ओर
राजा राममोहन राय की ब्रह्म-समाज के रूप में, तथा दूसरी ओर मैकॉले
साहब की सरकारी शिक्षा के रूप में। इसी विरोध का एक अन्य रूप हुआ, सर
ह्यूम द्वारा स्थापित इण्डियन नैशनल कांग्रेस।हिन्दू-समाज के प्रशान्त
सागर की गहराई में चल रही धारा को अंग्रेज़ विद्वानों ने देखा था और
समझा था। वह धारा थी भारतीय संस्कृति और धर्म की, जिसे
लम्बा मुसलमानी राज्य भी मिटा नहीं सका था।अंग्रेज़ी शासन के बंगाल में
स्थापित होते ही, अंग्रेज़ विद्वान अधिकारियों को यह जानने की चिन्ता लग
गयी थी कि जो कुछ इस्लामी राज्य मोराकों से अफ़गानिस्तान तक कुछ
ही वर्षों में सम्पन्नकर सका था, वह हिन्दुस्तान में अपने सात सौ वर्ष के
राज्य-काल में क्यों नहीं कर सका ? उनकी खोजका यह परिणाम
निकला कि यह भारत की प्राचीन संस्कृति और धर्म की धारा थी,
जो इस्लाम के यहाँ असफल होने में कारण बनी। इसको विनष्ट करने में
ही अंग्रेज़ सरकार को अपनी भलाई दिखाई देने लगी थी।यह ठीक है
कि राजा राममोहन राय के विचार पूर्वोक्त अंग्रेज़ों के कहने से नहीं बने थे।
वे उनके अपने बाल्यकाल में मुसलमानों से सम्पर्क के कारण बने थे। साथ
ही ये विचार बने थे ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के सेवा-काल में उनके एक
योग्य अंग्रेज़ अधिकारी की संगत से। राजा साहब ने
उपनिषदादि ग्रंथों का अपने विशेष दृष्टिकोण से अध्ययन भी किया था,
परन्तु जब उनके विचार ब्रह्म-समाज में मूर्त होने लगे तो अंग्रेज़ी सरकार
को राजा राममोहन राय अपनी योजना के अनुकूल प्रतीत हुए। उन्हेंवे उस
तरंग की सहायता करते प्रतीत हुए, जिससे सरकार भारतीय सांस्कृतिक
धारा का विरोध करना चाहती थी। अतः सरकार इसमें सहायक होने लगी।
ब्रह्म-समाज की स्थापना सन् 1828 में हुई थी।
इस आन्दोलन के विषय में और राजा साहब के विषयमें
महात्मा गांधी की जीवनी लिखने वाले श्री प्यारेलाल लिखते हैं—
But with all his love of liberty he did not raise the
standard of revolt against the british rule.
(उनका स्वतंत्रता के लिए अत्यन्त प्रेम होने पर भी उन्होंने ब्रिटिश राज्य
के विरुद्ध विद्रोह काझण्डा ऊँचा नहीं किया।)ब्रह्म-समाज के विषय में
श्री प्यारेलाल लिखते हैं—
The church (Brahma Samaj) was to be closed to none and
was to serve as a universal house of prayer open to all
men without distinction of colour, cast, nation
orreligion…………In the gift deed the founder laid down that
no religion shall be reviled or slighted or contemptuously
spokenof or alluded to.
.(ब्रह्म-समाज का मन्दिर किसी के लिए भी बन्द नहीं था। यह सार्वजनिक
प्रार्थना का स्थान था, जो सब मानवों के लिए था और जहाँ बिना जाति,
रंग, समुदाय तथा मज़हब के भेद-भाव के सब आ सकते थे।)किसी मज़हब
की निन्दा नहीं की जायेगी तथा बुरा-भला नहीं कहा जायेगा। किसी के
प्रति घृणा नहीं कीजायेगी और न ही संकेत में कहीं जायेगी।)अंग्रेज़
नीतिज्ञों को कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि यह ब्रह्म-समाज भी उस गहराई में
चलने वाली धारा काएक प्रकार से विरोध ही कर रही है। अतः ब्रह्म-समाज
को उनका समर्थन और सहायता प्रस्तुत हो गई और सन् 1828 से लेकर,
हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज्य के अन्त काल तक, यह उनको प्राप्त रही।
इसी अर्थ मैकॉले की सरकारी शिक्षा की योजना थी। मैकॉले ने एक समय
अपने पिता को एक पत्र में लिखा था—
The effect of this education on the Hindoos is prodigious.
No Hindoo, who has received our English education, ever
remains sincerely attached to his religion.
(इस शिक्षा का हिन्दुओं पर प्रभाव आश्चर्यजनक होगा। कोई भी हिन्दू,
जिसने यह अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त कर ली है, कभी भी निष्ठापूर्वक अपने
धर्म से सम्बद्ध नहीं रह सकता।)ब्रह्म-समाज 1828 में स्थापित हुई।
अंग्रेज़ी सरकारी शिक्षा 1835 में चालू की गई और ह्यूम साहब
की इण्डियन नैशनल कांग्रेस सन् 1885 में स्थापित की गई। तीनों तरंगे
जान-बूझ करअथवा अनजाने में हिन्दू-समाज की आभ्यान्तरिक सांस्कृतिक
धारा को नाश करने में संलग्न रहीं। जितना-जितना इनका बल बढ़ता गया,
सांस्कृतिक धारा का विरोध, ये उतने ही बल से करती रहीं।परन्तु इस तरंग
का विरोध भी हुआ। सन् 1857 में इस तरंग के विरोध-स्वरूप
महर्षि स्वामी दयानन्द ने बम्बई में आर्य-समाज की स्थापना की। वैसे
स्वामी दयानन्द ने इसका आरम्भ पाखण्ड-खण्डिनी ध्वजा के नीचे सन्
1867 में हरिद्वार में कुम्भ के अवसर पर किया था। परन्तु इसका मूर्त रूप
सन् 1871-72 में कलकत्ता में विचार किया गया और सन् 1875 में बम्बई में
इसकी स्थापना की गई।श्री प्यारेलाल (महात्मा गांधी के जीवन-चरित्र में)
आर्य-समाज के विषय में लिखते हैं—
Swami Dayanand with his generation had noted with deep
inner anguish the onslaught on the one hand of superficial
European rationalism and, on the other hand, of
Christianity which coming as a hand-maid of western
imperialism, had disrupted their national solidarity, bred
asepticism and schism when it entered a family and
undermined their own religion without providing an
adequate substitute for it.
(उस समय की पीढ़ी के साथ स्वामी दयानन्द ने यह अति दुःख के साथ
अनुभव किया था कि एक ओर बाहरी यूरोपीय बुद्धिवाद ने, और दूसरी ओर
ईसाईयत ने, जो देश में विदेशीय साम्राज्यवाद के साथ
आया था औरयहाँ की समाज में फूट डलवा रहा था, भारतीय परिवार पर
आक्रमण कर, यहाँ के मज़हब को विनष्ट कर दियाथा और
उसका स्थानापन्न प्रस्तुत नहीं किया गया था।)स्वामी दयानन्द
द्वारा स्थापित आर्य-समाज के विषय में यही महाशय लिखते हैं—
In marked contrast with the reformist Brahma Samaj was
the Arya Samaj—the church militant within the Hindoo
fold-bearing to Hinduism what Protestanism is to the
Roman Catholic church……..it was revivalist movement with
return to the pure ancient Vedic faith, culture and
institution as its goals.(सुधार करने वाली ब्रह्म-समाज से
सर्वथा विपरीत आर्य-समाज थी। यह संघर्षमयी संस्था थी। हिन्दुओं के
भीतर इसका स्थान वही था, जो प्रोटैस्टैण्ट समुदाय को रोमन कैथॉलिक के
प्रति था....यहपुनरुद्धार करने वाला आन्दोलन था। यह पुनः प्राचीन वैदिक
मत को, इसकी सभ्यता और रीति-रिवाज को चाहता था।)यही अंग्रेज़
नीतिज्ञ नहीं चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि विचारों के वे तत्त्व जीवित
और जाग्रत रहें, जिन्होंने इस्लाम जैसे बलशाली समुदाय का मुख मोड़
दिया था। अतः पूर्ण अंग्रेज़ी सरकार, इसका विरोध करने पर उद्यत हो गई।
भारतवर्ष में विशाल हिन्दू-समाज, जिसके पाँव दृढ़ता से अपनी प्राचीन
संस्कृति और धर्म में जमे हैं, काल की विपरीत गतियों का सफलतापूर्वक
सामना करती चली आती थी। भारतवर्ष पर गिद्ध-सी दृष्टि रखने वाले
विदेशीय, हिन्दू समाज के पाँव उखाड़ने में यत्नशील हो गये। एक दूषित
संयोग, इस्लाम, ईसाईयत और अंग्रेज़ी शिक्षा-प्राप्त आस्था-विहीन
हिन्दुस्तानी घटकों का बन गया और इस संयोग का विरोध करने के लिए
आर्य-समाज हिन्दू-समाज की कायाकल्प करने की चेष्टा करने लगी।

विष्णु के दशावतारों में बुद्ध नहीं -अशोक "प्रवृद्ध"

विष्णु के दशावतारों में बुद्ध नहीं
   अशोक "प्रवृद्ध"ं
विष्णु का अर्थ है-विश्व एक संरक्षक. अवतार के दसवें सिंद्धांत के
आधार पर भूत काल में नौ (9) अवतार हो चुके हैं.
मत्स्य, कुर्म (कच्छप), वाराह, नरसिम्हा, वामन, परशुराम, राम,
कृष्ण, बुद्ध, कल्कि (भविष्य में) अवतार.
विष्णु के पाँच प्रारूप-परमात्मा, सर्वोच्च आत्मा, परमेश्वर=सर्वोच्च
शक्ति, ब्रम्हाण के संरक्षक, विश्व रूप ( गीता के अनुसार)
10वें अवतार कल्कि युग के अंत में होगा. जिस तरह सभी अवतारों में
पापों और पापियों का सफाया किया गया है उसी तरह कलियुग में
पापियों के संहारक के रूप में अवतरित होंगे. वृतासुर और शंबरासुर के
संहारक के वेद में जो इन्द्र क़ि स्तुति क़ि गई है. वह विष्णु हैं. वेद में इन्द्र
को ही विष्णु के रूप उधृत किया गया है.
"विभूम्या इन्द्र सानू" (इन्द्र धरा से लेकर ऊँचे-ऊँचे पर्वतों तक
फैला हुआ है) विश-स्थापित करना. (लैटिन -विकूस, इंग्लिश-विच-
विलेज). वेद-अंतरांचल तक प्रवेश करना अर्थात्- कोई ऐसा स्थान
नहीं है जहाँ विष्णु नहीं हैं. "यद् विशिटो भवति तद विष्णुर्भवति"
सर्वोच्च सत्ता के रूप में विष्णु में अनंत गुण. उनमे से छ: गुण इस प्रकार
है- 1-सर्व ज्ञाता, 2.संप्रभूता, 3. शक्ति, 4.बल, 5.वीर्य, 6. वैभवता.
ऋग्वेद में विष्णु को 93 बार उच्चारित किया गया है. इसके बाद दूसरे
देवता के साथ में स्वतंत्र रूप से याद किये गये है.
ऋग्वेद के दो स्तोत्र में मंडल -
7 विष्णु के लिए है. 7 .99 - ---विष्णु को ईश्वर के रूप में संबोधित
किया गया है. जो पृथ्वी और स्वर्ग को पृथक करते हैं. यह चरित्र इन्द्र
के रूप द्रष्टव्य है.
स्तोत्र 7.100 - तीन कदमों का वर्णन है. जो ब्रह्माण्ड तक फैले हुए
हैं और तीन जगह उनके कदम है.
विष्णु सुक्त - प्रथम और द्वितीय फैलाव पृथ्वी और आकाश है. जिसे
मनुष्य देखते है. तीसरी जगह स्वर्ग (आकाश) है. यही अंतिम जगह
विष्णु से सम्बन्धित है.
ऋग्वेद के आठवे मंडल-विष्णु इन्द्र से शक्ति प्राप्त करते हैं.
गीता-कृष्ण विष्णु एक अवतार हैं. कृष्ण अर्जुन को प्रकृति के सर्वोच्च
शक्ति तथा योग के विभिन्न प्रक्रिया के बारे में उपदेशित करते हैं.
भागवत पुराण- मैं ही लक्ष्य हूँ. बाधक हूँ. जगत गुरु हूँ. सबसे
प्यारा दोस्त हूँ. मैं ही रचनाकर और उन्मूलनाकार हूँ.
मत्स्य अवतार-सतयुग के अंत में मत्स्य अवतार रूप में अवतरित हुए हैं.
जब पृथ्वी जल मग्न हो चुकी थी. इस रूप में बाढ़ से वेद और
मानवता की रक्षा किये हैं.
कूर्म अवतार - इस अवतार में असुरों से अमृत का कलश और देवताओं
क़ि रक्षा की है. इसमें पीछे से सृष्टि की रचना में मदद की है.
वराह अवतार (सुअर) - सतयुग के अंत में बाढ़ में
भूमि देवी (पृथ्वी माता) समुद्र के नीचे जाने लगी तो समुद्र में
गोता लगा कर इस देवी को अपने दो दांतों से जल से ऊपर उठा कर
बचाएँ.
वामन अवतार - (त्रेता युग) राजा बलि के पतन के लिए अवतरित
होना पड़ा.
नरसिंह अवतार (आधे आदमी और आधे शेर) - इस अवतार में
हिरण्याकश्यप जैसे आतातायी राक्षसों का नाश किया.
परशुराम अवतार-(त्रेता युग) - जब हैह्यवंशी दुष्ट क्षत्रिय
राजा संतो और मनुष्यों को कष्ट पहुँचाने लगे तब यह योद्धा उन दुष्ट
क्षत्रियों के नाश के लिए अवतरित हुये.
राम अवतार (त्रेता युग में) - राक्षस राज रावण का वध के लिये यह
अवतार लिया.
कृष्ण अवतार- कंस का नाश के लिए बलराम के साथ अवतरित हुये.
कल्कि अवतार (सफ़ेद घोड़े पर सवार और हाथ में तलवार लिए विष्णु
का अंतिम अवतार)- यह अंतिम अवतार होंगे. यह भगवान विष्णु
का महावतार होगा. कलयुग जैसे अन्धकार और नाशवान युग
का अवसान होगा. कल्कि का संस्कृत कालका है. इसका अर्थ -
अन्धकार को समाप्त करना है. संस्कृत के दूसरे अर्थो में -
कालकी का अर्थ है - सफ़ेद घोडा.
कलयुग क़ि शुरुआत भगवान कृष्ण के गायब होने के बाद हुई. लगभग
3012 बी०सी०/ प्रभु चैतन्य 500 वर्ष पहले आये. जब यह युग समीप
आया तो संत ने धरा को छोड़ दिया. अंत में 432000 के बाद यह युग
शुरू होगा.
विवरण :
कल्कि- 7वीं सदी, गुप्त साम्राज्य के आस पास विष्णु पुराण में उधृत
है. (त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु, और महेश). विष्णु पुराण तो यहाँ तक
दावा कर रही है क़ि सम्भल गांव में विष्णुयश, में ब्राह्मण परिवार
इसका जन्म होगा. पद्मा पुराण - स्वयंभुव मनु को गोमती नदी के
किनारे भगवान् विष्णु ने वर दिया था - राम, कृष्ण और कल्कि नाम से
तीन पुत्र होगा. भगवान् कल्कि कलयुग के अंत में पैदा होंगे और
पापों से इस पृथ्वी को मुक्त करेंगे.
अग्नि पुराण में भी कल्कि, हरी (विष्णु के पुत्र) का विवरण है.
संरचना और विनाश के संतुलन के लिए अवतार होता आ रहा है.
श्री मद्भागवत गीता-कलयुग के अंत में जब भगवान के नाम से कोई
विषय नहीं रह जायगा. सता की बागडोर शुद्रों के हाथो में आ
जायेगी, जहाँ त्याग और दया नाम क़ि कोई वस्तु नहीं रह
पायेगी ----------------------श्री मदभगवद गीता 12 .2 39 ).
इस आधार पर महात्मा बुद्ध और महावीर को विष्णु
का दसवां अवतार नहीं माना जा सकता हैं. 10वें अवतार बुद्ध नहीं है.
बुद्ध ----!!! अगर बुद्ध को भगवान श्रीविष्णु का आठवां अवतार
माना जाये तो फिर हिन्दू धर्म से हट कर अलग धर्म क़ि स्थापना करने
क़ि क्या जरुरत थी? जिस तरह उक्त अवतार के अवतारी हिन्दू धर्मो में
सुधार की. उसी तरह बुद्ध को भी करना चाहिए था. इसलिए हिन्दू धर्म
से सम्बंधित किसी भी पुस्तक में बुद्ध अवतार के रूप में उधृत नहीं हैं.
उपदेश : दुखो का कारण इच्छा और सम्बन्ध है.
एक बात सामने आ रही है, अगर बुद्ध, हिन्दू धर्म (वैदिक धर्म) के
अंतर्गत ही काम करते तो वैदिक धर्म में क्लिष्टता विद्यमान ही रहती.
सभी अवतारियों ने मानवीय कल्याण के लिए सराहनीय पहल की.
लेकिन बुद्ध (छठी सदी) समय में धार्मिक क्लिष्टता जड्बद्ध था. जिसे
सुधार लाने में बुध ने कड़ी मेहनत की. सुधार के आधार पर और हिन्दू
कुल में जन्म लेने के आधार पर इन्हें विष्णु के दसवे अवतार
माना जा सकता है. चूंकि हिन्दू यानी मानव मात्र उन्ही के संतान है
और उन्होंने विष्णु तक पहुँचने के लिए सुगम मार्ग दिखलाये इस आधार
पर विष्णु का अवतार माना जा सकता है. इस आधार पर वर्धमान
महावीर (चौथी सदी) को भी अवतार के रूप में माना जा सकता है.
वर्धमान महावीर नौवें और बुद्ध दसवें अवतार हैं.
अगर हम इन दोनों धर्मो के प्रणेता को लेते है तब विष्णु के 8 और 2
(महावीर और बुद्ध) के अवतार. इस तरह विष्णु के 10 अवतार हो चुके
है.

रविवार, 28 जुलाई 2013

पुरातन ग्रंथों में सापेक्षता का सिद्धांत -अशोक "प्रवृद्ध"

पुरातन ग्रंथों में सापेक्षता के सिद्धांत
  अशोक "प्रवृद्ध"
आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता के सिद्धांत में दिक् व काल
की सापेक्षता प्रतिपादित की। उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय
की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से
रहता है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रहों पर समय का माप भिन्न रहता है।
समय छोटा-बड़ा रहता है।
उदाहरण के लिए यदि दो जुडुवां भाइयों मे से एक को पृथ्वी पर ही रखा जाये
तथा दुसरे को किसी अन्य गृह पर भेज दिया जाये और कुछ वर्षों पश्चात
लाया जाये तो दोनों भाइयों की आयु में अंतर होगा।
आयु का अंतर इस बात पर निर्भर करेगा कि बालक को जिस गृह पर
भेजा गया उस गृह की सूर्य से दुरी तथा गति , पृथ्वी की सूर्य से
दुरी तथा गति से कितनी अधिक अथवा कम है ।
एक और उदाहरण के अनुसार चलती रेलगाड़ी में रखी घडी उसी रेल में बैठे
व्यक्ति के लिए सामान रूप से चलती है क्योकि दोनों रेल के साथ एक
ही गति से गतिमान है परन्तु वही घडी रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए धीमे
चल रही होगी । कुछ सेकंडों को अंतर होगा । यदि रेल की गति और बढाई
जाये तो समय का अंतर बढेगा और यदि रेल को प्रकाश
की गति (299792.458 किमी प्रति सेकंड) से दोड़ाया जाये (जोकि संभव
नही) तो रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए घडी पूर्णतया रुक जाएगी ।
सापेक्षता का सिद्धांत पुरातन ग्रंथों के पोराणिक कथाओं में
इसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं। श्रीमद भागवत पुराण में
कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके
अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से
अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान
चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके। जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने
राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए
किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं? ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा,
जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी {1
चर्तुयुगी = 4 युग (सत्य,द्वापर,त्रेता,कलि ) = 1 महायुग } बीत चुकी हैं
और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई
बलराम से इसका विवाह कर देना।
अब पृथ्वी लोक पर तुम्हे तुम्हारे सगे सम्बन्धी, तुम्हारा राजपाट
तथा वैसी भोगोलिक स्थतियां भी नही मिलेंगी जो तुम छोड़ कर आये हो |
साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर
आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। अन्यथा लौटने के पश्चात तुम इसे
भी जीवित नही पाते |
अब यदि एक घड़ी भी देर कि तो सीधे कलयुग (द्वापर के पश्चात कलयुग )
में जा गिरोगे |
इससे यह भी स्पष्ट है की निश्चय ही ब्रह्मलोक कदाचित
हमारी आकाशगंगा से भी कहीं अधिक दूर है । मेरे मतानुसार यह स्थान
ब्रह्माण्ड का केंद्र होना चाहिए ।
इसी कारण वहां का एक मिनट भी पृथ्वी लोक के खरबों वर्षों के समान है |
यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर
को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश
की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर
के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी। यदि एक दस वर्ष
का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida
Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे
किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।
काल के मापन की सूक्ष्मतम और महत्तम इकाई के वर्णन को पढ़कर
दुनिया का प्रसिद्ध ब्राह्माण्ड विज्ञानी कार्ल सगन (Carl Sagan)
अपनी पुस्तक कॉसमॉस (Cosmos )में लिखता है, "विश्व में एक मात्र
हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्राह्माण्ड
सृजन और विनाश का चक्र सतत चल रहा है। तथा यही एक धर्म है जिसमें
काल के सूक्ष्मतम नाप परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्राह्म दिन और रात
की गणना की गई, जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है
तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"
योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में योग साधना से समय में पीछे जाना और
पूर्वजन्मों का अनुभव तथा भविष्य में जाने के अनेक वर्णन मिलते हैं।

पुरातन ग्रंथों में सोना बनाने की विधि - अशोक "प्रवृद्ध"

पुरातन ग्रंथों में सोना बनाने की विधि
   अशोक "प्रवृद्ध"
प्राचीनकाल में रसायनज्ञ पारद या पारे से सोना बनाने की विधि जानते
थे.यह बात आज कपोल कल्प्ना या मिथ सरीखी लगती है जबकी इसके कई
प्रमाण मौज़ूद हैं.सच्चाई यह है कि य प्रकिया बेहद कठिन और अनुभव
सिद्ध है.तमाम कीमियाग़र सोना बनाने में नाकामयाब रहे, कुछ थोडे से
जो सफल रहे उन्होने इस विद्या को गलत हाथों में पडने के डर से इसे बेहद
गोपनीय रखा.
राक्षस दैत्य दानवों के गुरू भृगु ऋषि जिन्हें शुक्राचार्य के नाम से
भी संबोधित किया जाता है, उन्होंने ऋग्वेदीय उपनिषद श्रीसूक्त के माध्यम
से सोना बनाने का तरीका बताया है. श्रीसूक्त के मंत्र व प्रयोग बहुत गुप्त
व सांकेतिक भाषा में बताया गया है. संपूर्ण श्रीसूक्त में 16 मंत्र हैं.
भारत के नागार्जुन, गोरक्षनाथ आदि ने इन मत्रों की रसायनिक दृष्टि से
सोना बनाने की कई विचित्र विधियाँ, कई स्थानों और कई ग्रंथों में बताई
गयी हैं. अर्थात, श्रीसूक्त के पहले तीन मंत्रों में सोना बनाने की विधि,
रसायनिक व्याख्या और उनका गुप्त भावार्थ, आपके समक्ष प्रस्तुत
किया जा रहा है.
श्रीसूक्त का पहला मंत्र
ॐ हिरण्य्वर्णां हरिणीं सुवर्णस्त्र्जां।
चंद्रां हिरण्यमणीं लक्ष्मीं जातवेदो मआव॥
शब्दार्थ – हिरण्य्वर्णां- कूटज, हरिणीं- मजीठ, स्त्रजाम- सत्यानाशी के
बीज, चंद्रा- नीला थोथा, हिरण्यमणीं- गंधक, जातवेदो- पाराम, आवह-
ताम्रपात्र.
विधि – सोना बनाने के लिए एक बड़ा ताम्रपात्र लें, जिसमें लगभग 30
किलो पानी आ सके. सर्वप्रथम, उस पात्र में पारा रखें. तदुपरांत, पारे के
ऊपर बारीक पिसा हुआ गंधक इतना डालें कि वह पारा पूर्ण रूप से ढँक जाए.
उसके बाद, बारीक पिसा हुआ नीला थोथा, पारे और गंधक के ऊपर धीरे धीरे
डाल दें. उसके ऊपर कूटज और मजीठ बराबर मात्रा में बारीक करके पारे,
गंधक और नीले थोथे के ऊपर धीरे धीरे डाल दें और इन सब वस्तुओं के
ऊपर 200 ग्राम सत्यानाशी के बीज डाल दें. यह सोना बनाने
का पहला चरण है
श्रीसूक्त का दूसरा मंत्र
तां मआवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीं।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहं॥
शब्दार्थ – तां- उसमें, पगामिनीं- अग्नि, गामश्वं- जल, पुरुषानहं- बीस.
विधि – ऊपर बताए गए ताँबे के पात्र में पारा, गंधक, सत्यानाशी के बीज
आदि एकत्र करने के उपरांत, उस ताम्रपात्र में अत्यंत सावधानीपूर्वक जल
इस तरह भरें कि जिन वस्तुओं की ढेरी पहले बनी हुई है, वह तनिक भी न
हिले. तदनंतर, उस पात्र के नीचे आग जला दें. उस पात्र के पानी में, हर
एक घंटे के बाद, 100 ग्राम के लगभग, पिसा हुआ कूटज, पानी के ऊपर
डालते रहना चाहिए. यह विधि 3 घंटे तक लगातार चलती रहनी चाहिए.
श्रीसूक्त का तीसरा मंत्र
अश्व पूर्णां रथ मध्यां हस्तिनाद प्रमोदिनीं।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीजुषातम॥
शब्दार्थ – अश्वपूर्णां- सुनहरी परत, रथमध्यां- पानी के ऊपर,
हस्तिनाद- हाथी के गर्दन से निकलने वाली गंध, प्रमोदिनीं- नीबू का रस,
श्रियं- सोना, देवी- लक्ष्मी, पह्वये- समृद्धि, जुषातम- प्रसन्नता.
विधि – उपरोक्त विधि के अनुसार, तीन घंटे तक इन वस्तुओं
को ताम्रपात्र के पानी के ऊपर एक सुनहरी सी परत स्पष्ट दिखाई दे
तो अग्नि जलाने के साथ ही उस पात्र से हाथी के चिंघाड़ने
जैसी ध्वनि सुनाई देने लगेगी. साथ ही हाथी के गर्दन से निकलने
वाली विशेष गंध, उस पात्र से आने लगे तो समझना चाहिए कि पारा सिद्ध
हो चुका है, अर्थात सोना बन चुका है. सावधानी से उस पात्र को अग्नि से
उतारकर स्वभाविक रूप से ठंडा होने के लिए कुछ् समय छोड़ दें.
पानी ठंडा होने के पश्चात, उस पानी को धीरे धीरे निकाल दें. तत्पश्चात्,
उस पारे को निकालकर खरल में सावधानी से डालकर, ऊपर से नींबू का रस
डालकर खरल करना चाहिए. बार बार नींबू का रस डालिए और खरल में उस
पारे को रगड़ते जाइए, जब तक वह पारा सोने के रंग का न हो जाए.
विशेष सावधानी
· इस विधि को करने से पहले, इसे पूरी तरह समझ लेना आवश्यक है.
· इसे किसी योग्य वैद्याचार्य की देख रेख में ही करना चाहिए.
· इसके धुएँ में मौजूद गौस हानिकारक हैं, जिससे कई असाध्य रोग उत्पन्न
हो सकते हैं अतः, कर्ता को अत्यंत सावधान रहते हुए, उस जगह खड़े
या बैठे रहना चाहिए, जहाँ इससे निकलने वाला धुआँ, न आए.
ये एक उदाहरण हैं भारत के प्राचीन रसायन शाष्त्र का
भु गर्भ् मॆ पायॆ जानॆ वालॆ पॆट्रॊल् डिजल , सॊना , चान्दी , अल्युमिनियम यॆ
सब हजारॊ सालॊ भु गर्भ् मॆ दबॆ हॊनॆ का परिणाम्
है.जॊ प्रक्रिया हजारॊ हजारॊ सालॊ सॆ घटित हॊकर यॆ सब बनता है उस्
कॊ क्रत्रिम रुप सॆ भी बनाया जा सकता है. अगर आप संस्कृत कॆ जानकार
ह।

परमाणुशास्त्र के जनक आचार्य कणाद - अशोक "प्रवृद्ध"

परमाणुशास्त्र के जनक आचार्य कणाद
   अशोक "प्रवृद्ध"
 परमाणु शास्त्र के जनक आचार्य कणाद हैं।परमाणुशास्त्री आचार्य कणाद 6 सदी ईसापूर्व  गुजरात के प्रभास क्षेत्र (द्वारका के निकट) में जन्मे थे।
इन्होने वैशेषिक दर्शनशास्त्र की रचना की |  दर्शनशास्त्र (Philosophy) वह ज्ञान है जो परम सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है|
माना जाता है कि परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार सर्वप्रथम इन्होंने किया था  इसलिए इन्ही के नाम पर परमाणु का एक नाम कण पड़ा |
It was Sage Kanada who originated the idea that anu (atom) was an indestructible particle of matter

महर्षि कणाद ने सर्वांगीण उन्नति की व्याख्या करते हुए कहा था ‘यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:‘ जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात्‌ भौतिक दृष्टि से तथा नि:श्रेयस याने आध्यात्मिक दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे धर्म कहते हैं।

परमाणु विज्ञानी महर्षि कणाद अपने वैशेषिक दर्शन के १०वें अध्याय में कहते हैं
 ‘दृष्टानां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय‘
अर्थात्‌ प्रत्यक्ष देखे हुए और अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से अथवा स्वयं और अधिक गहराई से ज्ञान प्राप्त करने हेतु रखकर किए गए प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है।
 इसी प्रकार महर्षि कणाद कहते हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्‌, काल, मन और आत्मा इन्हें जानना चाहिए। इस परिधि में जड़-चेतन सारी प्रकृति व जीव आ जाते हैं।

ईसा से ६०० वर्ष पूर्व ही कणाद मुनि ने परमाणुओं के संबंध में जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया, उनसे आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन (6 सितम्बर 1766 – 27 जुलाई 1844)  की संकल्पना मेल खाती है। इस प्रकार कणाद ने जॉन डाल्टन से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन कर दिया था |
कणाद ने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं बल्कि ऐसी इकाई को ‘परमाणु‘ नाम भी उन्होंने ही दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते।
 कणाद आगे यह भी कहते हैं कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक‘ का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘वायनरी मालिक्यूल‘ लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। यहां निश्चित रूप से कणाद रासायनिक बंधता की ओर इंगित कर रहे हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन आफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी आधुनिक मान्यताओं के संगत हैं।
ब्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने आज से हजारों वर्ष पूर्व अपने वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित किया था।
 कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के विज्ञान से भी आगे जाता है। महर्षि कणाद कहते हैं, द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा। दूसरी बात वे कहते हैं कि द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत्‌। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत्‌ यानी विशाल व्रह्माण्ड। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है।
अत: कणाद कहते हैं-
 ‘धर्म विशेष प्रसुदात द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवायनां पदार्थानां साधर्य वैधर्यभ्यां तत्वज्ञाना नि:श्रेयसम"  :- वैशेषिकo दo-४
अर्थात्‌ धर्म विशेष में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय के साधर्य और वैधर्म्य के ज्ञान द्वारा उत्पन्न ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।

रविवार, 21 जुलाई 2013

श्रद्धा,भक्ति आस्था और असीम अनुकम्पा का प्रतीक है नागफेनी के कोयल नदी तट पर अवस्थित जगनाथ महाप्रभु का मंदिर अशोक "प्रवृद्ध"

श्रद्धा,भक्ति आस्था और असीम अनुकम्पा का प्रतीक है नागफेनी के
कोयल नदी तट पर अवस्थित जगनाथ महाप्रभु का मंदिर
अशोक "प्रवृद्ध"
झारखण्ड के राष्ट्रीय उच्च मार्ग संख्या 23 अब 134 पर गुमला और
सिसई प्रखंड की सीमा पर बह रही दक्षिण कोयल नदी के तट पर मुर्गु
ग्राम पंचायत के नागफेनी में अवस्थित श्रद्धा,भक्ति ,आस्था और असीम
अनुकम्पा के प्रतीक श्री जग्गंनाथ महाप्रभु के पुरातन मन्दिर से प्रतिवर्ष
आषाढ़ माह में जगन्नाथ महाप्रभु की रथयात्रा तथा प्रत्येक 14
जनवरी को मकर संक्रांति के अवसर पर मकरध्वज भगवान की रथयात्रा के
साथ विशाल मेला का आयोजन किया जाता है। इन पावन अवसरों पर
हजारों श्रद्धालु दक्षिणी कोयल नदी की धारा मेंस्नान कर पौराणिक
जगन्नाथ मंदिर में भगवान की पूजा -अर्चना करते है और अपनी सुख,
शांति व समृद्धि की कामना करते हैं।
दक्षिणी कोयल नदी के तट पर बांस-झुण्ड ऎव्म आम्र बगीचा के मध्य
अवस्थित नागफेनी के श्रीजगन्नाथ मंदिर का इतिहास काफी पुराना है।
बताया जाता है कि यह क्षेत्र जब नागवंशी राजाओं की कर्मभूमि थी तब
उड़ीसा के जग्गंनाथपुरी से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को लाकर
नागफेनी में स्थापित कराया गया था। मंदि र में लगे एक शिल्ला पट के
अनुसार श्री जग्गंनाथ मंदिर का निर्माण रातू गढ़ के महाराजा रघुनाथ शाह
ने विक्रम सम्बत 1761 में कराया था और मंदिर में विधिवत पूजा -
अर्चना हेतु जग्गंनाथपुरी से ही पंडा लाए थे और मंदिर एवं पुजारियों के
निर्वाह के लिए धन-दौलत,जमीन-जायदाद आदि प्रदान किये थे। आज
भी यहाँ के पुजारी और कई अन्य जातियों के लोग आपसी वार्त्तालाप में
ओडिया भाषा का प्रयोग करते हैं।अपने सथापना काल से ही निरंतर
यहाँ आषाढ़ माह में भगवान जग्गंनाथ स्वामी की रथयात्रा बड़े ही धूम-धाम
व समरोह पूर्वक निकाली जाती है।्
श्री जग्गंनाथ महाप्रभु मंदिर नागफेनी में भगवान् जग्गंनाथ अर्थात
श्रीकृष्ण ,उनके अगरज बलराम (बलभद्र) एवं बहन
सुभद्रा की जग्गान्नाथ्पुरी से लाइ गई काष्ट निर्मित विशालकाय प्रतिमाएं
प्रतिष्ठापित हैं। बताया जाता है कि इन प्रतिमाओं को महाराजा रघुनाथ
शाह ने ओड़िसा के जग्गंनाथपूरी से हाथियों की सवारी क्राकर लाया था।
जग्गंनाथ ,बलभद्र एवं सुभद्रा की इन काष्ट-निर्मित मुख्य प्रतिमाओं के
अतिरिक्त मंदिर में अनेक बहुमूल्य धातुओं से निर्मित विभिन्न देवी -
देवताओं की दर्जनों अन्य मूर्तियाँ भी है। मुख्य मनदिर परिसर में
ही भगवान शिव का एक मंदिर है। जग्गंनाथ सवामी के दर्शन, पूजन हेतु आने
वाले श्रद्धालु भक्त शिव मन्दिर में भी पूजा करते हैं ।मंदिर परिसर के बाहर
किसी जमाने में शायद मुग़ल काल में अपने सतीत्व की रकषा हेतु सती हुई
सात बहनों की समाधि सथल हैं। मंदिर से कुछ दुरी पर कोयल नदी के तट
पर खुले आसमान के नीचे बाबा अष्ट कमलनाथ सती महादेव विराजमान हैं।
सदियों से खुले आसमान के नीचे नदी किनारे अवस्थित बाबा अष्टक्म्लनाथ
सती महादेव की यह विशेषता है कि अष्ट कमल दल के ऊपर शिवलिंग
अधिष्ठापित हैं।मान्यता अनुसार अष्टकमल दल के ऊपर शिवलिंग
की प्रतिस्थापित शिव सथल बिरले ही प्राप्य हैं ।अष्ट कमल दल पर
अधिष्ठापित शिवलिंग की आराधना,उपासना,दर्शन -पूजन से
शिवभक्तों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इसी मान्यता के कारण
यहाँ श्रावण मास एवं शिव्रात्री के पावन अवस्रों पर शिवभक्तों की अपार
भीड़ उमड़ पडती है। बगल में ही पहाड़ी है जो कई कहानियों व
किम्बदंतियों को समेटे है ।समीप ही मंदिर के नागफेनी का श्मशान घाट
भी है। सावन महिने में यहाँ पर बहने वाली कोयल नदी की धारा में सनान
कर कांवर में जल लेकर मुर्गु के बाबा च्रैयानाथ (चरण नाथ) शिव मन्दिर में
जलार्पण किये जाने की परि पाटी है। जिसकी एक अलग कहानी है।
दक्षिणी कोयल नदी के तट पर जग्गंनाथ महाप्रभु मंदिर नागफेनी से आषाढ़
माह में भगवान जग्गंनाथ की रथयात्रा बड़े ही धूम-धाम के साथ
समारोहपूर्वक निकाली जाती है।दो चरणों में निकलने वाली जग्गंनाथ
महाप्रभु की इस रथयात्रा के क्रम में आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को भगवान्
जग्गंनाथ अपने अग्रज बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार
होकर मुख्य मन्दिर से करीब एक किलोमीटर दूर अवस्थित
मौसी बारी (गुंडीचा गढ़ी) तक जाते हैं। आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को मुख्य
मन्दिर से मौसी बारी तक निकाली बजाने वाली इस
रथयात्रा को चलती रथयात्रा कहते हैं। मौसी बारी अर्थात अपने मौसी के
यहाँ भगवान जग्गंनाथ आषाढ़ शुक्ल द्वितीय से नौ दिनों तक विश्राम करते
हैं और आषाढ़ शुक्ल एकादशी को मौसी बारी से अपने भाई- बहन के साथ
वापस अपने मुख्य मन्दिर वापस लौट आते हैं। इस यात्रा को घूरती -
रथयात्रा कहा जाता है।जग्गंनाथ सवामी के इस चलती और
घूरती रथयात्रा का अत्यंत पुण्यमयी महत्व होने के कारण
हजारों की सन्ख्या में श्रद्धालु गण भगवान् जग्गंनाथ की दर्शन-पूजन और
रथ सन्चालन हेतु शामिल होते हैं।ू
इस्केअतिरिक्त नागफेनी में प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन चौदह
जनवरी को भी रथयात्रा का आयोजन पिछली शताब्दी केे प्रारंभिक
वर्षों से किया जा रहा है। मकर संक्रांति के पावन अवसर पर लगने वाले इस
मेले का भी अपना एक विशेष महत्व है। नागफेनी के ऐतिहासिक जगन्नाथ
मंदिर में भगवान जगन्नाथ भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा सहित भगवान
मकर ध्वज की मूर्ति है। मकर संक्रांति के दिन भगवान मकरध्वज के विशेष
पूजा होती है और रथ यात्रा निकाली जाती है।ु
जग्गंनाथ महाप्रभु मन्दिर के व्र्तामान सेवक और पुजारी मनोहर
पंडा बताते है कि मकर संक्रान्ति के दिन भगवान मकरध्वज की विशेष
पूजा होती है। यह बलराम का ही एक रूप है। मकर संक्रान्ति के दिन
इनकी रथ यात्रा निकाली जाती है। बताया जाता है कि विगत सदी के
प्रारम्भिक व्र्षों में एक रात्रि मंदिर के पुजारी कृपा सिंधु पंडा को एक
सपना आया, जिसमें कोयल नदी की धारा में बहकर आ रहे मूर्ति को मंदिर
में स्थापित करने और विधि विधान से पूजा करने का निर्देश मिला।
पुजारी ने सुबह होते ही मूर्ति की खोज की और इसकी जानकारी रातुगढ़ के
छोटानागपुर के महाराजा को दी और मेला लगाने का निर्देश प्राप्त किया।
तब से नागफेनी में मकर संक्रान्ति के दिन मेला का आयोजन होता है।
भगवान भास्कर के मकर राशि में प्रवेश करने की तिथि का एक ज्योतिषीय
व अध्यात्मिक महत्व है। इस तिथि से सूर्य धीरे-धीरे उतरायण की ओर
बढ़ने लगते हैं। दिन बड़ी और रातें छोटीहोने लगती हैं।अतः इस
तिथि का अपना एक अलग महत्व सनातान्धार्मियों में है।
मकर संक्रांति के दिन सरोवरों में स्नान करना, भगवान की पूजा एवं
गरीबों के बीच दान करने और दही चूड़ा व तिल से बनी मिठाई खाने
का अध्यात्मिक महत्व होता है। यही कारण है कि मकर संक्रान्ति के दिन
नागफेनी में होने वाले मेला में काफी संख्या में श्रद्धालु भाग लेते है और
कोयल नदी में स्नान कर मंगल कामना करते हैं। इस दिन श्रद्धालु गरीबों के
बीच दान करते हैं। इसके बाद दही चूड़ा, गुड़, तिलकुट आदि का सेवन करते
हैं।

बुधवार, 17 जुलाई 2013

ईश्वर प्रदत धर्म और मानव विशेष द्वारा निर्मित मजहब -अशोक "प्रवृद्ध"

 ईश्वर प्रदत धर्म और मानव विशेष द्वारा निर्मित मजहब
          अशोक "प्रवृद्ध"
धर्म का स्पष्ट शब्दों में अर्थ है :
धारण करने योग्य आचरण ।
अर्थात सही और गलत की पहचान ।
इसी कारण जब से धरती पर मनुष्य है तभी से धरती पर धर्म / ज्ञान
होना आवश्यक है । अन्यथा धर्म विहीन मनुष्य पशुतुल्य है ।
ज्ञात हो लगभग १००० ईसापूर्व तक धरती पर ये सभी दुकाने इस्लाम,इसाई, बौद्ध,जैन,सिक्ख आदि नही थी केवल एक सनातन धर्म ही था इसका पुख्ता प्रमाण । देखिये :
१. महावीर (लगभग 600 ई० पू०) के जन्म से पूर्व जैनी नामक इस
धरती पर कोई नही था ।
उन्होंने दुनिया वालों को जैनी बनाया और अगर आज तक उनका आगमन
नहीं होता तो फिर जैनी कहलाने वाला कौन होता भला? जैन धर्मधर्म
कहाँ होता?
इससे ये प्रश्न उठता है की आज जो लोग जैनी है उनके पूर्वज महावीर के
जन्म से पूर्व किस धर्म में थे ? या धर्म विहीन थे ? और फिर स्वयं
महावीर किस धर्म में पैदा हुए?
२. राजा शुद्धोधन के पुत्र जब तक सिद्धार्थ (लगभग 600 ई० पू०) थे
अर्थात युवक थे तब तक धरती पर बोध/ बौधिस्ट नामक कोई भी नही था ।
उन्होंने दुनिया वालों को बौध्गामी बनाया और अगर आज तक उनका आगमन
नहीं होता तो फिर बौधिस्ट कहलाने वाला कौन होता भला? बोध धर्म
कहाँ होता?
इससे ये प्रश्न उठता है की आज जो लोग बोध है उनके पूर्वज बुध के जन्म
से पूर्व किस धर्म में थे ? या धर्म विहीन थे ? और फिर गौतम बुद्ध किस
धर्म में पैदा हुए?
३. जीसस लगभग 5 ई० पू० हुए ।
उन्होंने दुनिया वालों को ईसाई बनाया और अगर आज तक उनका आगमन
नहीं होता तो फिर ईसाई कहलाने वाला कौन होता भला? ईसाई धर्म
कहाँ होता?
इससे ये प्रश्न उठता है की आज जो लोग ईसाई है उनके पूर्वज जीसस के
जन्म से पूर्व किस धर्म में थे ? या धर्म विहीन थे ?
और फिर स्वयं जीसस किस धर्म में पैदा हुए?
४. मुहम्मद लगभग 570 ई० में जन्मे ।
उन्होंने दुनिया वालों को मुसलमान बनाया और अगर आज तक
उनका आगमन नहीं होता तो फिर मुसलमान कहलाने वाला कौन होता भला?
इस्लाम धर्म कहाँ होता?
इससे ये प्रश्न उठता है की आज जो लोग मुसलमान है उनके पूर्वज मुहम्मद
के जन्म से पूर्व किस धर्म में थे ? या धर्म विहीन थे ? और फिर स्वयं
मुहम्मद किस धर्म में पैदा हुए?
इसी प्रकार अनेको उदाहरन मिल जायेंगे । ये सभी 'मजहब' कहलाते है ।
इन्ही का नाम मत है, मतान्तर है, पंथ है , रिलिजन है । ये धर्म
नही हो सकते ।
अंग्रेजी के शब्द Religion का अर्थ भी मजहब है धर्म नही । किन्तु
डिक्शनरी में आपको धर्म और मजहब दोनों मिलेंगे , डिक्शनरी बनाई
तो इंसानों ने ही है ना !!
वास्तव में धर्म शब्द अंग्रेजी में है ही नही इसलिए उन्हें Dharma
लिखना पड़ता है । ठीक उसी प्रकार जैसे योग को Yoga.
धर्म केवल ईश्वर प्रदत होता है व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ नही ।
क्योकि व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ 'मत' (विचार) होता है अर्थात
उस व्यक्ति को जो सही लगा वो उसने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया और
श्रधापूर्वक अथवा बलपूर्वक अपना विचार (मत) स्वीकार करवाया।
अब यदि एक व्यक्ति निर्णय करने लग जाये क्या सही है और क्या गलत
तो दुनिया में जितने व्यक्ति , उतने धर्म नही हो जायेगे ?
कल को कोई चोर कहेगा मेरा विचार तो केवल चोरी करके अपनी इच्छाएं
पूरी करना है तो क्या ये मत धर्म हो गया ?
ईश्वरीय धर्म में ये खूबी है की ये समग्र मानव जाती के लिए है और सामान
है जैसे सूर्य का प्रकाश , जल , प्रकृति प्रदत खाद्य पदार्थ आदि ईश्वर
कृत है और सभी के लिए है । उसी प्रकार धर्म (धारण करने योग्य)
भी सभी मानव के लिए सामान है । यही कारण है की वेदों में वसुधेव
कुटुम्बकम (सारी धरती को अपना घर समझो), सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे
सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें,
और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े ।)
आदि आया है । और न ही किसी व्यक्ति विशेष/समुदाय को टारगेट
किया गया है बल्कि वेद का उपदेश सभी के लिए है।
उपरोक्त मजहबो में यदि उस मजहब के जन्मदाता को हटा दिया जाये
तो उस मजहब का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा । इस कारण ये अनित्य
है । और जो अनित्य है वो धर्म कदापि नही हो सकता । किन्तु सनातन
वैदिक (हिन्दू) धर्म में से आप कृष्ण जी को हटायें, राम जी को हटायें
तो भी सनातन धर्म पर कोई असर नही पड़ेगा क्यू की वैदिक धर्म इनके
जन्म से पूर्व भी था, इनके समय भी था और आज इनके पश्चात भी है
अर्थात वैदिक धर्म का करता कोई भी देहधारी नही। यही नित्य है।
अब यदि कोई कहे की उपरोक्त जन्मदाता ईश्वर के ही बन्दे थे
आदि आदि तो ईश्वर आदि-स्रष्टि में समग्र ज्ञान वेदों के माध्यम से दे
चुके थे तो कोनसी बात की कमी रह गई थी जो बाद में अपने बन्दे भेजकर
पूरी करनी पड़ी ?
जिस प्रकार हम पूर्ण ज्ञानी न होने के कारण ही पुस्तक के प्रथम
संस्करण (first edition) में त्रुटियाँ छोड़ देते है तो उसे द्वितीय संस्करण
(second edition) में सुधारते है क्या इसी प्रकार ईश्वर का भी ज्ञान
अपूर्ण है ?
और दूसरा ये की स्रष्टि आरंभ में वसुधेव कुटुम्बकम आदि कहने वाला ईश्वर
अलग अलग स्थानों पर अलग अलग समय में अपने बन्दे भेज भेज कर
लोगो को समुदायों में क्यू बाँटने लग गया ? और उसके सभी बन्दे अलग
अलग बाते क्यू कर रहे थे ? यदि एक ही बात की होती तो आज अलग अलग
मजहब क्यू बनते ?
और तीसरा ये की यदि बन्दे भेजने ही थे तो इतनी लेट क्यू भेजे ?
धरती की आयु अरबो वर्ष की हो चुके है और उपरोक्त सभी पिछले ३ ० ०
० वर्षों में ही अस्तित्व में आये है ।
इत्यादि कारणों से स्पष्ट है की धर्म सभी के लिए एक ही है जो आदि काल
से है । बाकि सभी मत है लोगो के चलाये हुए ।

रविवार, 7 जुलाई 2013

स्वराज्य हमारा परम धर्म, परम कर्तव्य और परम पवित्र अधिकार है और हम भारतियों को उसे प्राप्त कर रहना है -अशोक "प्रवृद्ध"

स्वराज्य हमारा परम धर्म , परम कर्तव्य, और
परम पवित्र अधिकार है और हम भारतीयों को उसे प्राप्त कर रहना है
             अशोक "प्रवृद्ध"

भारतीय मित्रगण!
भारतीय स्वाधीनता- संग्राम के महायज्ञ में अपने
आपको स्वाहा करने वालों के प्रति नित्य-प्रति का हार्दिक
क्रांतिकारी अभिनन्दन अर्पित करते हुए हमें अपने मन में संकल्प
करना और अधिकाधिक संख्या में अपने संपर्क वालों को संकल्प
कराना हैं। हमारा यह दृढ़ संकल्प होना चाहिए कि जिस प्रयास
अर्थात स्वराज्य आर्य राष्ट्र संस्थापन कार्य में उस समय अर्थात
स्वाधीनता प्राप्ति काल में सफलता प्राप्त नहीं हो सकी थी,
उसको प्राप्त करने के लिए हम निरन्तर प्रयत्न करते रहेंगे।
परम्प्तिय मित्रवरों !
बड़ी कठिन घडी आन पड़ी है। इन विधर्मियों ,राष्ट्र्नाशकों के राज्य
में भारत,भारतीय और भारतीयता अर्थात हिन्दू (हिंदुत्व),हिंदी और
हिंदुस्तान पर निरंतर हमले बढ़ते ही जा रहे हैं । स्वराज्य परम-पवित्र
अधिकार है, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रत्येक जाति को कटिबद्ध
रहना चाहिए। आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं
को भी स्वराज्य स्थापना हेतु सदैव कमर कस तैयार रहना ही चाहिए।
साथ ही हमको अपना प्रयत्न ऐसे ढंग से चलाना चाहिए कि हम उन
भूलों की पुनरावृत्ति न कर सकें, जिनके कारण वह प्रयास असफल हुआ
था।अर्थात राष्ट्रविरोधी, धर्मघातकों, धर्मभ्रष्ट कुल्नाशकों को दूर
ही रख अपने लक्ष्य पर निरंतर आगे बढ़ना है ।

शनिवार, 6 जुलाई 2013

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में हमने अंग्रेजों को तो देश से भगा दिया परन्तु इस भगाने के प्रयास में हमने राष्ट्र की आत्मा की हनन कर दी - अशोक "प्रवृद्ध"

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में हमने अंग्रेजों को तो देश से भगा दिया परन्तु
इस भगाने के प्रयास में हमने राष्ट्र की आत्मा की हनन कर दी
            अशोक "प्रवृद्ध"
द्वितीय विश्व-व्यापी युद्ध का इतिहास लिखने वाले एक विज्ञ लेखक ने
लिखा है कि वह युद्घ तो जीत लिया गया था, परन्तु शान्ति के मूल्य पर
उसके शब्द हैं-‘We won war but lost peace’। उस लेखक ने
इसका कारण भी बताया है। उसके कथन का अभिप्राय यह है कि मित्र-
राष्ट्रों की सेनाओं ने और जनता ने तो अतुल साहस और शौर्य का प्रमाण
दिया था, परन्तु युद्ध-संचालन करने वाले राजनीतिज्ञ भूल-पर-भूल करते
रहे। उनकी भूलों ने हिटलर को हटाकर, उसके स्थान पर स्टालिन
को स्थापित कर दिया।
भारत के विषय में भी हमारा कहना यही है। सन् 1857 से लेकर 1947 तक के
सतत संघर्ष से हमने भारत से अंग्रेजो को निकाल दिया, परन्तु इसे
निकालने के प्रयास में हमने भारत की आत्मा की हत्या कर दी है। हमने
अंग्रेजों को निकाल कर अपनी गर्दन नास्तिक अभारतीयों और मूर्खों के
हाथ में दे दी है। जहाँ देश के दोनों द्वार भारत विरोधियों (पाकिस्तानियों) के
हाथ में दे दिये हैं, वहाँ भारत का राज्य ऐसे नेताओं के हाथ में सौंप दिया है,
जो धर्म-कर्म विहीन हैं और कम्यूनिस्टों के पद-चिह्नों पर चलने लगे हैं।
1857 से पूर्व तो देश के लोग मुसलमानों से देश को मुक्त करने में लगे थे।
उस समय से पूर्व, देश को पुनः अपने वैभव और गौरव के स्थान पर ले जाने
के लिए यह आवश्यक समझा जा रहा था कि यहाँ मुसलमानों को निःशेष
किया जाये। कारण यह कि इस्लाम की शिक्षा, गै़र-मुसलमानों के साथ
अन्याय, अत्याचार और बलात्कार करने की ही होती थी। इसका स्वाभाविक
परिणाम यह हुआ था कि देश के गैर-मुसलमान
मुसलमानों को सदा अपना शत्रु मानते रहे।
परन्तु इस समय देश में एक तीसरी शक्ति अर्थात् अंग्रेज़ आ पहुँचे और
उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमान के इस वैमनस्य से लाभ उठा अपना राज्य
स्थापित करना आरम्भ कर दिया।
अतः देश के नेताओं ने अंग्रेज़ को साँझा शत्रु मान, परस्पर मैत्री कर
ली और 1857 का युद्ध लड़ा। वह मैत्री अस्वाभाविक थी। उद्देश्य एक
नहीं था। जीवन-मीमांसा भिन्न-भिन्न थी। कुछ अन्य भी कारण थे जिनसे
युद्ध अपने अन्तिम ध्येय को प्राप्त नहीं कर सका। इस पर भी कुछ
तो सफलता मिली। एक व्यावसायिक कम्पनी के अधिकार से निकलकर देश
अंग्रेज़ी पार्लियामैन्ट के अधीन चला गया।
इस युद्ध के पश्चात् अंग्रेज एक ओर मुसलमानों को हिन्दुओं के विरूद्ध
करने में लग गये और दूसरी ओर हिन्दुओं को समझाने-बुझाने लगे
कि देशवासी मिलकर रहेंगे तो लाभ होगा। इसके साथ-साथ वे हिन्दुओं में
फूट के बीज भी बोने लगे।
हिन्दू इस कूटनीति के शिकार हो गये और स्वभाव से अथवा अंग्रेज़ के
भड़काने से रूठे हुए मुसलमानों को मनाने के लिए उनको अधिक और अधिक
राजनीतिक सुविधाएँ तथा अधिकार देना स्वीकार करने लगे। मुसलमान इस
त्रिपक्षीय झमेले में लाभ की स्थिति में पहुँच गये।
हिन्दुओं को इस झमेले में से निकालने का मार्ग नहीं सूझा। यदि किसी ने
मार्ग सुझाया भी तो तत्कालीन नेताओं को समझ नहीं आया और
मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को उनके पास
गिरौ रखने का प्रयत्न 1885 से आरम्भ हो गया। कुछ अंग्रेज़ीपढ़े-लिखे
लोग एकत्रित होकर हिन्दुओं को समझाने लगे कि देश में मुख्य समुदाय होने
से उनको इन रूठे हुए मुसलमानों को समझा-बुझाकर अपने साथ
मिला लेना चाहिए। मुसलमान किसी भी गैर-मुसलमान का मित्र नहीं। हिन्दू
भारत-द्रोही का मित्र नहीं हो सकता। इस पर
भी मुसलमानों की मैत्री प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को अपने देश प्रेम
का बलिदान करना पड़ा। एक-एक विशेष अधिकार, जो मुसलमान
को दिया जाता था, वह देश के नागरिकों के अधिकारों में से छीन कर
ही दिया जाता था।
यह 1885 से लेकर 1916 तक चलता रहा। इसके पश्चात तो मुसलमान बंदर
बाँट की भाँति अंग्रेजों और हिन्दुओं में तराजू पकड़ कर बैठ गये। अंग्रेज़
भी घाटे में रहे और हिन्दू भी। अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा और सख्त
बदनाम होकर। हिन्दुओं को पाकिस्तान देना पड़ा लाखों की हत्या कराकर।
मजे में रहे मुसलमान। यह ठीक है कि मुसलमान उतना लाभ नहीं उठा सके,
जितना बन्दर बाँट की कहानी में बन्दर को प्राप्त हुआ था। इसमें कारण
था उनकी अपनी दुर्बलता।
1919 के पश्चात् हिन्दुओं में एक और देवता अवतीर्ण हुए। यह थे
महात्मा गाँधी। इन्होंने मुसलमानों के लिए बहुमत और उचित हिन्दू-पक्ष के
धर्म और संस्कृति का बलिदान तो किया ही, साथ ही इन्होंने
ईमानदारी की भी बलि देने की शिक्षा देनी आरम्भ कर दी। मुसलमान
को प्रत्येक मूल्य पर प्रसन्न करना धर्म बन गया। अहिंसा के पर्दे के पीछे
ईमानदार और सरल चित्त देश-प्रेमियों का इस कारण विरोध आरम्भ
हो गया कि मुसलमानों को प्रसन्न करना है।
अतः We won freedom but lost our soul’-अर्थात् हमने राजनीतिक
स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली, परन्तु देश की आत्मा की हत्या कर बैठे हैं।
भारतीय समाज, जो धर्म-ईमान के लिए जान हथेली पर रखकर धर्म-क्षेत्र
में अवतीर्ण थी, कैसे स्वराज्य मिलने पर भीरू, देशद्रोही, धर्म-कर्म विहीन
और सब प्रकार के दुर्गणों से युक्त हो गई है ?
आज से नौ सौ पूर्व मुसलमानों से पराजित होने का कारण, जीवन
सम्बन्धी मिथ्या-मीमांसा का व्यापक प्रचार था। उस जीवन-
मीमांसा का आधार था, जैन तथा बौद्ध मत की अहिंसा की नीति, वैष्णव
मत का
भगवान् पर अन्ध-विश्वास कर स्वयं अकर्मण्य बने रहने की प्रवृत्ति और
नवीन वेदान्तियों का संसार को मिथ्या मानना। ये मिथ्या मीमांसाएँ न
तो प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति की देन थीं, न ही इनका स्रोत
धर्म में था। इस पर भी ये थीं और इनके व्यापक प्रचार के कारण ही, कुछ
सहस्र मुसलमान, विदेश से आकर इस विशाल देश में राज्य जमा बैठे और
फिर यहाँ कि कोटि-कोटि जनता पर अत्याचार करते रहे।
इन जीवन मीमांसाओं का भारत के समाज पर इतना गहरा प्रभाव था कि जब
देश ने करवट ली तो महात्मा गाँधी-जैसे सहज में ही यहाँ के नेता बन गये।
यही कारण है कि स्वतन्त्रता मिल जाने पर जाति घोर पतन की ओर
अग्रसर हो रही है।
कितने दुःख की बात है कि भारतीय स्वधीनता संग्राम थीै स्वतन्त्रा प्राप्त
करने की और उसके लिए आत्मा की हत्या कर दी। इसमें कारण वे शूरवीर
नवयुवक नहीं हैं, जो देश के लिए सब प्रकार का त्याग और तपस्या करते
रहते हैं। कारण है, उन नेताओं की अशुद्ध नीति, जो 1885 से 1947 तक के
आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे हैं। ये
नेता अपनी नीति की असफलता का दोष जनता पर देते रहते हैं। और
जनता के त्याग तथा तपस्या का श्रेय स्वयं लेते रहे हैं।
स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् भारत समाज का नैतिक पतन तथा देश
की राजनीतिक दुर्बलता इस दूषित नेतृत्व का ही परिणाम है। यह
सर्वथा वैसा ही है, जैसा द्वितीय विश्व-व्यापी युद्ध में और उससे पूर्व,
मित्र राष्ट्रों के नेताओं की अशुद्ध नीति के कारण योरूप को कम्यूनिस्टों के
पाँवों में डाला जाना था।