रविवार, 8 सितंबर 2013

व्यवहार भानु : - (भाग- 2) ु

व्यवहार भानु : -(भाग -2)
ओ३म्सर्वान्तर्यामिणेऽखिलगुरवे विश्वम्भराय नमः

व्यवहारभानुः

श्रीमत्स्वामिदयानन्दसरस्वतीरचितः

(“लालभुझक्कड़” का दृष्टान्त)

प्रश्न
    क्योंजी ! सर्वथा सत्य से तो कोई व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता । देखो ! व्यापार में सत्य बात कह दें तो किसी पदार्थ का विक्रय न हो, हार जीत के व्यवहार में मिथ्या साक्षी न खड़े करें तो हार हो जाय, इत्यादि हेतुओं से सब ठिकानों में सत्यभाषणादि कैसे कर सकते हैं ?
उत्तर
    यह बात महामूर्खता की है । जैसे किसी ग्राम में एक लालबुझक्कड़ रहता था कि जिसको पांच सौ ग्राम वाले महापण्डित और गुरु मानते थे । एक रात में किसी राजा का हाथी उसी ग्राम के समीप होकर कहीं स्थानान्तर को चला गया था, उसके पग के चिह्‍न जहां तहां मार्ग में बन रहे थे, उसको देख के खेती करनेहारे ग्रामीण लोगों ने परस्पर पूछा कि भाई । यह किसका खोज है ? सबने कहा कि हम नहीं जानते, हम नहीं जानते । फिर सब की सम्मति से लालबुझक्कड़ को बुला के पूछा कि तुम्हारे विना कोई भी दूसरा मनुष्य इसका समाधान नहीं कर सकता । कहो यह किसके पग का चिह्‍न है ? जब वह रोया और रोकर हंसा तब सबने पूछा कि तुम क्यों रोये और हँसे ? तब वह बोला कि जब मैं मर जाऊंगा तब ऐसी ऐसी बातों का उत्तर विना मेरे कौन दे सकेगा और हँसा इसलिए कि इसका उत्तर तो सहज है, सुनो -

लालबुझक्कड़ बूझिया और न बूझा कोई ।

पग में चक्की बांध के हिरणा कूदा होई ॥

जब वह लालबुझक्कड़ ग्राम की ओर आता ही था इतने में एक ग्रामीण की स्त्री ने जंगल से बेर लाके जो अपना लड़का छप्पर के खम्भे को पकड़ के खड़ा था, उसको कहा कि बेटा ! बेर ले । तब उसने हाथों की अंजलि बांध के बेरों को ले लिया परन्तु जब छप्पर की थूनी हाथों के बीच में रहने से उसका मुख बेर तक नहीं पहुंचा, तब लड़का रोने लगा । लड़के को रोते देखकर उसकी मां भी रोने लगी कि हाय रे मेरे लड़के को खम्भे ने पकड़ लिया रे ! तब उसका बाप सुनकर आया, वह भी रोने लगा कि हाय रे ! थूणी ने मेरे लड़के को सचमुच पकड़ लिया । तब उसको सुनके अड़ौसी पड़ौसी भी रोने लगे कि हाय रे दय्या ! इसके लड़के को खम्भे ने कैसा पकड़ लिया है, कि छोड़ता ही नहीं । तक किसी ने कहा कि लालबुझक्कड़ को बुलाओ, उसके विना कोई भी लड़के को नहीं छुड़ा सकेगा । जब एक मनुष्य उसको शीघ्र बुला लाया, फिर उसको पूछा कि यह लड़का कैसे छूट सकता है तब वह वैसे ही हँस और रो के स्वमुख से अपनी बड़ाई करके बोला कि सुनो लोगो ! दो प्रकार से यह लड़का छूट सकता है । एक तो यह है कि कुहाड़ा लाके लड़के का एक हाथ काट डालो अभी छूट जायगा, और दूसरा उपाय यह है कि प्रथम छप्पर को उठा के नीचे धरो फिर लड़के को थूनी के ऊपर से उतार ले आओ । तब लड़के का बाप बोला कि हम दरिद्र मनुष्य हैं, हमारा छप्पर टूट जायेगा तो फिर छावना कठिन है, तब लालबुझक्कड़ बोला कि लाओ कुहाड़ा, फिर क्या देख रहे हो । कुहाड़ा लाके जब हाथ काटने को तैयार हुए तब एक दूसरे ग्राम से एक बुद्धिमती स्त्री भी हल्ला सुनकर वहां पहुंच कर देख कर बोली कि इसका हाथ मत काटो । देखो ! मैं इस लड़के को छुड़ा देती हूँ । तब वह खम्भे के पास जाके लड़के की अञ्जलि के नीचे अपनी अञ्जलि करके बोली कि बेटा मेरे हाथ में बेर छोड़ दे । जब वह बेर छोड़ के अलग हो गया फिर उसको बेर दे दिये, खाने लगा । तब तो बहुत क्रुद्ध होकर लालबुझक्कड़ बोला कि यह लड़का छः महीने के बीच मर जायगा, क्योंकि जैसा मैंने कहा था वैसा करते तो न मरता । तब तो उसके मां बाप घबरा के बोले कि अब क्या करना चाहिये । तब उस स्त्री ने समझाये कि यह बात झूठ है और हाथ के काटने से तो अभी यह मर जाता तो तुम क्या करते ? मरण से बचने का कोई औषध नहीं, तब उनका घबराहट छूट गया ।

वैसे जो मनुष्य महामूर्ख हैं वे ऐसा समझते हैं कि सत्य से व्यवहार का नाश और झूठ से व्यवहार की सिद्धि होती है परन्तु जब किसी को कोई एक व्यवहार में झूठा समझ ले तो उसकी प्रतिष्ठा प्रतीति और विश्वास सब नष्ट होकर उसके सब व्यवहार नष्ट होते जाते और जो सब व्यवहारों में झूठ को छोड़कर सत्य ही करते हैं उनको लाभ ही लाभ होते हैं हानि कभी नहीं । क्योंकि सत्य व्यवहार करने का नाम ‘धर्म’ और विपरीत का ‘अधर्म’ है । क्या धर्म का सुख के लाभरूपी और अधर्म का दुःखरूपी फल नहीं होता ? प्रमाण –

इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि ॥१॥ यजु. अ. १, मं. ५॥

सत्यमेव जयति नाऽनृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ।

येनाक्रमन्त्यऋषयो ह्याप्‍तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम् ॥२॥

मुण्ड. ३ । खं. १ मंत्र ६ ॥

न सत्यात्परो धर्म्मो नानृतात्पातकं परम् ॥३॥ इत्यादि

अर्थ – मनुष्य में मनुष्यपन यही है कि सर्वथा झूठ व्यवहारों को छोड़कर सत्य व्यवहारों का ग्रहण सदा करे ॥१॥ क्योंकि सर्वदा सत्य ही का विजय और झूठ का पराजय होता है, इसलिये जिस सत्य से चल के धार्मिक ऋषि लोग जहां सत्य की निधि परमात्मा है उसको प्राप्‍त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होते हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें ॥२॥ यह निश्चित है कि न सत्य से परे कोई धर्म और न असत्य से परे कोई अधर्म है ॥३॥ इससे धन्य मनुष्य वे हैं जो सब व्यवहारों को सत्य ही करते और झूठ से युक्त कर्म किञ्चित्मात्र भी नहीं करते ।
(अधर्मी बजाज और ग्राहक का) दृष्टान्त

एक किसी अधर्मी मनुष्य ने किसी अधर्मी बजाज की दुकान पर जाकर कहा कि यह वस्त्र कै आने गज देगा ? वह बोला कि सोलह आने, तुम भी कुछ कहो ।

बजाज और ग्राहक दोनों जानते ही थे कि यह दश आने गज का कपड़ा है परन्तु अधर्मी झूठ बोलने में कभी नहीं डरते ।

ग्राहक – छः आने गज दो और सच सच लेने देने की बात करो ।

बजाज – अच्छा तो तुमको दो आने छोड़ देते हैं, चौदह आने दो ।

ग्राहक – है तो टोटा परन्तु सात आने ले लो ।

बजाज – अच्छा तो सच सच कहूं ?

ग्राहक – हां हां ।

बजाज – चलो एक आना टोटा ही सही । तेरह आने दो, तुमको लेना हो तो लो

ग्राहक – मैं सत्य सत्य कहता हूं कि इसका आठ आने से अधिक कोई भी तुमको न देगा ।

बजाज – तुमको लेना हो तो लो, न लेना हो मत लो, परमेश्वर की सौगन्द बारह आने गज तो मुझको पड़ा है, तुमको भला मनुष्य जानकर मैं दे देता हूँ ।

ग्राहक – धर्म की सौगन्द मैं सच कहता हूँ तुमको देना हो तो दे पीछे पछतावेगा, मैं तो दूसरे की दुकान से ले लूंगा, क्या तुम्हारी ही एक दुकान है ? नव आने गज दे दो, नहीं तो मैं जाता हूँ ।

बजाज – तुमने ऐसा कभी खरीदा भी है ? नव आने गज लाओ मैं सौ रुपये का लेता हूँ ।

ग्राहक धीरे-धीरे चला कि मुझको यह बुलाता है वा नहीं । बजाज तिरछी नजर से देखता रहा कि देखें वह लौटता है वा नहीं । जब न लौटा तब बोला सुनो ! सुनो !! इधर आओ ।

ग्राहक – क्या कहते हो ? नव आने पर दोगे ?

बजाज – ए लो धर्म से कहता हूं कि ग्यारह आने दे दो ।

ग्राहक – साढ़े नव आने लो, कहकर कुछ आगे चला ।

बजाज ने समझा कि गया हाथ से । अजी इधर आओ आओ ।

ग्राहक – क्यों तुम व्यर्थ देर लगाते हो, व्यर्थ काल जाता है ।

बजाज – मेरे बेटे की सौगन्द तुम इसको न लोगे तो पछताओगे । अब मैं सत्य ही कहता हूँ साढ़े दश आने दे दो नहीं तो तुम्हारी राजी ।

ग्राहक – मेरी सौगन्द तुमने दो आने अधिक लिये हैं, अच्छा दश आने देते हैं, इतने का है तो नहीं ।

बजाज – अच्छा सवा दश आने भी दोगे ?

ग्राहक – नहीं नहीं ।

बजाज – अच्छा आओ बैठो, कै गज लोगे ?

ग्राहक – सवा गज ।

बजाज – कुछ अधिक लो ।

ग्राहक – अच्छा ! नमूना ले जाते हैं, अब तो तुम्हारी दुकान देख ली, फिर कभी आवेंगे तो बहुत लेंगे ।

बजाज ने नापने में कुछ सरकाया ।

ग्राहक – अजी देखें तो तुमने कैसा नापा ?

बजाज – क्या विश्वास नहीं करते हो, हम साहूकार हैं वा ठट्ठा हैं, हम कभी झूठ कहते और करते हैं ?

ग्राहक – हां जी, तुम बड़े सच्चे हो । एक रुपया कहकर दश आने तक आये, छः आना घट गये, अनेक सौगन्दें खाईं ।

बजाज – वाह जी वाह ! तुम भी बड़े सच्चे हो, छः आने कहकर दश आने तक लेने को तैयार हो, अनेक सौगन्दें खा खा कर आये । सौदा झूठ के विना कभी नहीं हो सकता ।

ग्राहक – अजी, तू तो बड़ा झूठा है ।

बजाज – क्या तू नहीं है ? क्योंकि एक गज कपड़े के लिए कोई भी भला मनुष्य इतना झगड़ा करता है ?

ग्राहक – तू झूठा तेरा बाप, हमारी सात पीढ़ी में कोई झूठा भी हुआ है ?

बजाज – तू झूठा, तेरी सात पीढ़ी भी झूठी ।

ग्राहक ने ले जूता एक मार दिया, बजाज ने गज चट मारा, अड़ौसी पड़ौसी दुकानदारों ने जैसे तैसे छुड़ाया ।

बजाज – चल चल जा, तेरे जैसे लाखों देखे हैं ।

ग्राहक – चल बे, तेरे जैसे जुबांजोर, टटपूंजिये दुकानदार मैंने करोड़ों देखे हैं ।

अड़ौसी-पड़ौसी – अजी झूठ के विना कभी सौदा भी होता है ? जाओ जी तुम अपनी दुकान पर बैठो और जाओ तुम अपने घर को ।

बजाज – यह बड़ा दुष्ट मनुष्य है ।

ग्राहक – अबे मुख सम्भाल के बोल ।

बजाज – तू क्या कर लेगा ?

ग्राहक – जो मैंने किया सो तैने देख लिया और कुछ देखना हो तो दिखला दूं ?

बजाज – क्या तू गज से न पीटा जायेगा ?

फिर दोनों लड़ने को दौड़े, जैसे-तैसे लोगों ने अलग अलग कर दिये । ऐसे ही सर्वत्र झूठे लोगों की दुर्दशा होती है ।
धार्मिकों का दृष्टान्त

ग्राहक – इस दुशाले का क्या मूल्य है ?

बजाज – पांच सौ रुपये ।

ग्राहक – अच्छा लीजिये ।

बजाज – लो दुशाला ।

सच्चे दुकान वाले के पास कोई झूठा ग्राहक गया । इस दुशाले का क्या लोगे ?

बजाज – अढाई सौ रुपये ।

ग्राहक – दो सौ लो ।

सेठ – जाओ, यहां तुम्हारे लिए सौदा नहीं है ।

ग्राहक – अजी, कुछ तो कम लो ।

साहूकार – यहां झूठ का व्यवहार नहीं है, बहुत मत बोल, लेना हो तो लो, नहीं तो चले जाओ ।

ग्राहक दूसरी बहुत दुकानों से माल देख मूल्य करके, फिर वहीं आ के अढ़ाई सौ रुपये देकर दुशाला ले गया ।

सच्चा ग्राहक झूठे दुकानदार के पास जाकर बोला कि इस पीताम्बर के क्या लोगे ?

बजाज – पच्चीस रुपये ।

ग्राहक – बारह रुपये का है, देना हो तो दो, कहकर चलने लगा ।

बजाज – अच्छा, तो साढ़े बारह ही दो ।

ग्राहक – नहीं ।

बजाज – अच्छा बारह का ही ले जाओ ।

ग्राहक – लाओ, लो रुपये ।

ऐसे धार्मिकों को सदा लाभ ही लाभ होता है और झूठों की दुर्दशा होकर दिवाले ही निकल जाते हैं । इसलिये सब मनुष्यों को अत्यन्त उचित है कि सर्वथा झूठ को छोड़कर सत्य ही से सब व्यवहार करें जिससे धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्‍त होकर सदा आनन्द में रहें ।

प्रश्न
    मनुष्य का आत्मा सदा धर्म्म और अधर्म्मयुक्त किस किस कर्म से होता है ?

उत्तर
    सर्वान्तर्य्यामी, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापक, सर्वकर्मों के साक्षी परमात्मा से डरने से अर्थात् कोई कर्म्म ऐसा नहीं है कि जिसको वह न जानता हो । सत्यविद्या, सुक्षिक्षा, सत्पुरुषों का संग, उद्योग, जितेन्द्रियता, ब्रह्मचर्य आदि शुभ गुणों के होने और लाभ के अनुसार व्यय करने से मनुष्य धर्मात्मा होता है और जो इससे विपरीत है वह धर्मात्मा कभी नहीं हो सकता क्योंकि जो राजा आदि अलपज्ञ मनुष्यों से भय करता और परमेश्वर से भय नहीं करता वह क्यों कर धर्म्मात्मा हो सकता है ? क्योंकि राजा आदि के सामने बाहर की अधर्म्मयुक्त चेष्टा करने में तो भय होता है परन्तु आत्मा और मन में बुरी चेष्टा करने में कुछ भी भय नहीं होता, क्योंकि ये भीतर का कर्म नहीं जान सकते । इससे आत्मा और मन का नियम करनेहारा राजा एक आत्मा और दूसरा परमेश्वर ही है मनुष्य नहीं । और वे जहां एकान्त में राजादि मनुष्यों को नहीं देखते वहां तो बाहर से भी चोरी आदि दुष्ट कर्म करने में कुछ भी शंका नहीं करते ।

दृष्टान्त -

जैसे एक धार्मिक विद्वान् के पास पढ़ने के लिए दो नवीन विद्यार्थियों ने आके कहा कि आप हमको पढ़ाइये ।

विद्वान् – अच्छा, हम तुमको पढ़ावेंगे परन्तु हम कहें सो एक काम तुम दोनों जने कर लाओ । इस एक एक लड़के को एकान्त में ले जा के जहाँ कोई भी न देखता हो, वहां इसका कान पकड़ कर दो चार वार शीघ्र शीघ्र उठा बैठा के धीरे से एक चपेटिका मार देना ।

दोनों दोनों को ले के चले । एक ने तो चारों ओर देखा कि यहां कोई नहीं देखता, उक्त काम करके झट चला आया । दूसरा पण्डित के वचन के अभिप्राय को विचारने लगा कि मुझ को लड़का और और मैं लड़के को देखता ही हूँ फिर वह काम कैसे कर सकता हूँ ? पण्डित के पास आया । तब जो आया था उससे पण्डित ने पूछा कि जो हमने कहा था सो तू कर आया ? उसने कहा – हां । दूसरे को पूछा कि तू भी कर आया वा नहीं ? उसने कहा – नहीं, क्योंकि आपने मुझको ऐसा कहा था कि जहां कोई न देखता हो वहां यह काम करना, सो ऐसा स्थान मुझको कहीं भी नहीं मिल सकता । प्रथम तो मैं इस लड़के को और लड़का मुझको देखता ही था । पण्डित ने कहा कि तू बुद्धिमान और धार्मिक है, मुझसे पढ़ । दूसरे से कहा कि तू पढ़ने के योग्य नहीं है, यहां से चला जा ।

वैसे ही क्या कोई भी स्थान वा कर्म है कि जिसको आत्मा और परमात्मा न देखता हो, जो मनुष्य इस प्रकार आत्मा और परमात्मा की साक्षी से अनुकूल कर्म करते हैं वे ही धर्मात्मा कहाते हैं ।

प्रश्न – सब मनुष्यों को विद्वान् वा धर्मात्मा होने का संभव है या नहीं ?

उत्तर – विद्वान् होने का तो सम्भव नहीं परन्तु जो धर्मात्मा हुआ चाहें तो सभी हो सकते हैं । अविद्वान् लोग दूसरों को धर्म में निश्चय नहीं करा सकते और विद्वान् लोग धार्मिक होकर अनेक मनुष्यों को भी धार्मिक कर सकते हैं और कोई धूर्त मनुष्य अविद्वान् को बहका के अधर्म में प्रवृत्त कर सकता है परन्तु विद्वान् को अधर्म में कभी नहीं चला सकता । क्योंकि जैसे देखता हुआ मनुष्य कूएं में कभी नहीं गिरता, परन्तु अन्धे के गिरने का सम्भव है । वैसे विद्वान् सत्यासत्य को जान के उसमें निश्चित रह सकते और अविद्वान् ठीक ठीक स्थिर नहीं रह सकते ।
(अविद्वान और मूर्ख का) दृष्टान्त

एक कोई अविद्वान् राजा था । उसके राज्य में किसी ग्राम में कोई मूर्ख भिक्षुक ब्राह्मण था । उसकी स्त्री ने कहा कि आजकल भोजन भी नहीं मिलता, बहुत कष्ट है, तुम पहले दानाध्यक्ष के पास जाना । वह राजा के पास लेजा के कुछ जप अनुष्ठान लगवा देवा । उसने वैसा ही किया । जब उसने दानाध्यक्ष के पास जाके अपना हाल कहा कि आप मेरी कुछ जीविका करा दीजिए ।

दानाभक्ष – मुझको क्या देगा ?

अर्थी – जो तुम कहो ।

दानाभक्ष – अर्द्धमर्द्ध स्वाहा ।

महाराज, मैं नहीं समझा, तुमने क्या कहा ?

दानाभक्ष – जो तू आधा हमको दे और आधा तू ले तो तेरी जीविका लगा दें ।

स्वार्थी – जैसे तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो ।

दानाभक्ष – अच्छा तो चल राजा के पास ।

स्वार्थी – चलो ।

खुशामदियों से सभा भरी थी वहां दोनों पहुंचे । दानाभक्ष ने कहा कि यह गोब्राह्मण है इसकी कुछ जीविका कर दीजिये । यह आपका जप अनुष्ठान किया करेगा ।

राजा – अच्छा जो आप कहें ।

दानाभक्ष – दश रुपये मासिक होने चाहियें ।

राजा – बहुत अच्छा ।

दानाभक्ष – छः महीने का प्रथम मिलना चाहिये ।

राजा – अच्छा कोषाध्यक्ष ! इसको छः महीने का जोड़ कर दे दो ।

कोषाध्यक्ष – जो आज्ञा ।

जब स्वार्थी रुपये लेने को गया, तब कोशाभक्ष बोले मुझको क्या देगा ?

स्वार्थी – आप भी एक दो ले लीजिये ।

कोशाभक्ष – छी ! छी ! दश से कम हम नहीं लेंगे, नहीं तो आज रुपये न मिलेंगे, फिर आना ।

जब तक दानाभक्ष ने एक नौकर भेज दिया कि उसको हमारे पास ले आओ, तब तक कोशाभक्ष जी ने भी दश रुपये उड़ा लिये । स्वार्थी पचास रुपये लेके चला । मार्ग में -

नौकर – कुछ मुझको भी दो ।

स्वार्थी – अच्छा भाई, तू भी एक रुपया ले ले ।

नौकर – लाओ ।

जब दरवाजे पर आया तब सिपाहियों ने रोका । कौन हो तुम ? क्या ले जाते हो ?

नौकर – मैं दानाभक्ष का नौकर हूं ।

सिपाही – यह कौन है ?

नौकर – जपानुष्ठानी ।

सिपाही – कुछ मिला ?

नौकर – यही जाने ।

सिपाही – कहो भाई क्या मिला ?

स्वार्थी – जितना तुम लोगों से बचकर घर पहुंचे सो ही मिला ।

सिपाही – हमको भी कुछ देता जा ।

स्वार्थी – लो आठ आने ।

सिपाही – लाओ ।

जब तक दानाभक्ष घबराया कि वह भाग तो नहीं गया । दूसरे नौकर से बोले कि देखो तो वह कहां गया ? तब तक वे स्वार्थी आदि भी आ पहुंचे ।

दानाभक्ष – लाओ, रुपये कहां हैं ?

स्वार्थी – ये हैं अड़तालीस ।

दानाभक्ष – बारह रुपये कहां गये ?

स्वार्थी ने जैसा हुआ था, वैसा कह दिया ।

दानाभक्ष – अच्छा तो चार मेरे गये और आठ तेरे ।

स्वार्थी – अच्छा जैसी आप की इच्छा हो ।

तब छब्बीस लिए दानाभक्ष ने और बाईस स्वार्थी ने ले के कहा कि मैं घर हो आऊँ, कल आ जाऊँगा । वह दूसरे दिन आया । उससे दानाभक्ष ने कहा कि तू गंगाजी पर जाकर राजा का जप कर और ये ले घोती, अंगोछा, पंचपात्र, माला और गोमुखी । वह लेके गंगा पर गया, वहां स्नान कर माला लेके जप करने बैठा । विचारा कि जो दानाध्यक्ष ने कहा था वही मन्त्र है । ऐसा वह मूर्ख समझ गया । सरप माला खटक मणका, मैं राजा का जप करूं, मैं राजा का जप करूं, मैं राजा का जप करू जपने लगा ।

तब किसी दूसरे मूर्ख ने विचारा कि जब उसका लग गया तो मेरा भी लग जायेगा, चलो । वह गया, वैसा ही हुआ । चलते समय दानाभक्ष बोले कि तू जा, जैसा वह करता है वैसा करना । वह गया । वैसे ही आसन पर बैठकर पहले वाले का मन्त्र सुनकर जपने लगा कि तू करे सो मैं करूं, तू करे सो मैं करूं । वैसे ही तीसरा कोई धूर्त जाके सब कुछ करा लाया । चलते समय दानाभक्ष ने कहा कि जब तक निर्वाह होता दीखे तब तक करना । वह भी इसी अभिप्राय को मन्त्र समझ के वहां जाकर जप करने को बैठ के जपने लगा कि ऐसा निभेगा कब तक, ऐसा निभेगा कब तक, ऐसा निभेगा कब तक । वैसे ही चौथा कोई मूर्ख सब प्रबन्ध कर कराके गंगा पर जाने लगा तब दानाभक्ष ने कहा कि जब तक निभे तब तक निभाना । वह भी इसको मन्त्र ही समझके गंगा पर जाके जप करने को बैठ के उन तीनों का मन्त्र सुना कि एक कहता है – मैं राजा का जप करूं, मैं राजा का जप करूं, दूसरा – तू करे तो मैं करूं, तू करे सो मैं करूं । तीसरा – ऐसा निभेगा कब तक, ऐसा निभेगा कब तक, और चौथा जपने लगा कि जब तक निभे तब तक, जब तक निभे तब तक ।

ध्यान रक्खो कि सब अधर्म्मी और स्वार्थी लोगों की लीला ऐसी ही हुआ करती है कि अपने मतलब के लिए अनेक अन्यायरूप कर्म करके अन्य मनुष्यों को ठग लेते हैं । अभाग्य है ऐसे मनुष्यों का कि जिनके आत्मा अविद्या और अधर्म्मान्धकार में गिर के कदापि सुख को प्राप्‍त नहीं होते ।
धार्मिक राजा का दृष्टान्त

यहाँ किसी एक धार्मिक राजा का दृष्टान्त सुनो -

कोई एक विद्वान धार्मिक राजा था । उसके और उसके दानाध्यक्ष के पास किसी ऐसे ही धूर्त ने जाकर कहा कि मेरी जीविका करा दो ।

दानाध्यक्ष – तुमने कौन कौन शास्‍त्र पढ़ा और क्या क्या काम करते हो ?

अर्थी -  मैं कुछ भी नहीं पढ़ा हूँ । बीस वर्ष तक खेलता कूदता गाय, भैंस चराता और खेतों में डोलता रहा और माता पिता के सामने आनन्द करता था । अब सब घर का बोझ पड़ गया है, आपके पास आया हूँ, कुछ करा दीजिये ।

दानाध्यक्ष – नौकरी चाकरी करो तो कर दें ।

अर्थी – मैं ब्राह्मण साधु और जहां तहां बाजारों में उपदेश करने वाला हूँ, मुझसे ऐसा परिश्रम कहां बन सकता है ?

दानाध्यक्ष – तू विद्या के विना ब्राह्मण, परोपकार के विना साधु और विज्ञान के विना उपदेश कैसे कर सकता होगा ? इसलिए नौकरी चाकरी करना तो तो कर नहीं तो चला जा ।

वह मूर्ख वहां से निराश होकर चला कि यहां मेरी दाल न गलेगी, चलो राजा से कहें । जब जाके वैसे ही राजा से कहा तब राजा ने वैसा ही जवाब दिया कि जैसा दानाध्यक्ष ने दिया था । वह वहां से चला गया । इसके पश्चात् एक योग्य विद्वान् ने आके दानाध्यक्ष से मिल के बातचीत की तो दानाध्यक्ष ने समझ लिया कि यह बहुत अच्छा सुपात्र विद्वान् है, जाके राजा से मिला के कहा कि इन पण्डितजी से आप भी कुछ बातचीत कीजिये । वैसा ही किया । तब राजा ने परीक्षा करके जाना कि यह अति श्रेष्ठ विद्वान् है, ऐसा जान कर कहा कि आपको हजार रुपये मासिक मिलेंगे, आप सदा हमारी पाठशाला में विद्यार्थियों को पढ़ाया और धर्मोपदेश दिया कीजिये, वैसा ही हुआ । धन्य ऐसे राजा और दानाध्यक्षादि हैं जिनके हृदय में विद्या, परमात्मा और धर्मरूप सूर्य प्रकाशित होता है ।

प्रश्न
    दानाभक्ष और दानाध्यक्ष किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जो दाता के दान का भक्षण करके अपना स्वार्थ सिद्ध करता जाय वह दानाभक्ष और जो दाता के दान को सुपात्र विद्वानों को देकर उनसे विद्या और धर्म की उन्नति कराता जाय, वह दानाध्यक्ष कहाता है ।
प्रश्न
    राजा किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जो विद्या, न्याय, जितेन्द्रियता, शौर्य, धैर्य आदि गुणों से युक्त होकर अपने पुत्र के समान प्रजा के पालन में श्रेष्ठों की यथायोग्य रक्षा और दुष्टों को दण्ड देकर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्‍ति से युक्त होकर, अपनी प्रजा को कराके, आनन्दित रहता और सबको सुख से युक्त करता है वह राजा कहाता है ।
प्रश्न
    प्रजा किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जैसे पुत्रादि तन, मन, धन से अपने माता पितादि की सेवा करके उनको सर्वदा प्रसन्न रखते हैं वैसे प्रजा अनेक प्रकार के धर्मयुक्त व्यवहारों से पदार्थों को सिद्ध करके राजसभा को कर देकर उनको सदा प्रसन्न रक्खे वह प्रजा कहाती है । और जो अपना हित और प्रजा का अहित करना चाहे वह न राजा और जो अपना हित और राजा का अहित चाहे वह प्रजा भी नहीं है किन्तु उनको एक दूसरे का शत्रु डाकू चोर समझना चाहिये । क्योंकि दोनों धार्मिक होके एक दूसरे का हित करने में नित्य प्रवर्त्तमान हों, तभी उनकी राजा और प्रजा संज्ञा होती है, विपरीत की नहीं । जैसे -

“अन्धेर नगरी” दृष्टान्त

अन्धेर नगरी गवर्गण्ड राजा ।

टके सेर भाजी टके सेर खाजा ॥

एक बड़ा धार्मिक विद्वान् सभाध्यक्ष राजा यथावत् राजनीति से युक्त प्रजापालनादि उचित समय में ठीक ठीक करता था । उसकी नगरी की नाम प्रकाशवती, राजा का नाम धर्मपाल और व्यवस्था का नाम यथायोग्य करनेहारी था । वह तो मर गया । पश्चात् उसका लड़का जो महा अधर्मी मूर्ख था उसने गद्दी पर बैठ के सभा से कहा कि  जो मेरी आज्ञा माने वह मेरे पास रहे और जो न माने वह यहां से निकाला जाय । जब बड़े बड़े धार्मिक सभासद् बोले कि जैसे आपके पिता सभा की सम्मति के अनुकूल वर्त्तते थे, वैसे आप को भी वर्त्तना चाहिये ।

राजा – उनका काम उनके साथ गया, अब मेरी जैसी इच्छा होगी वैसा करूंगा ।

सभा – जो आप सभा का कहा न करेंगे तो राज्य का नाश अथवा आपका ही नाश हो जायेगा ।

राजा – मेरा तो जब होगा तब होगा परन्तु तुम यहां से चले जाओ नहीं तो तुम्हारा नाश तो मैं अभी कर दूंगा ।

सभासदों ने कहा कि विनाशकाले विपरीतबुद्धिः । जिसका शीघ्र नाश होना होता है उसकी बुद्धि पहिले ही से विपरीत हो जाती है । चलो ! यहां अपना निर्वाह न होगा । वे चले गये और महामूर्ख धूर्त्त खुशामदी लोगों की मण्डली उसके साथ हो गई । राजा ने कहा कि आज से मेरा नाम ‘गवर्गण्ड ‘, नगरी का नाम ‘अन्धेर’ और जो जो मेरा पिता और सभा करती थी उससे सब काम मैं उलटा ही करूंगा । जैसे मेरा पिता और सभासद् रात में सोते और दिन में राज्यकार्य्य करते थे । उससे विपरीत हम लोग दिन में सोवें और रात में राज्यकार्य करेंगे । उनके सामने उनके राज्य में सब चीज अपने अपने भाव पर बिकती थीं, हमारे राज्य में केशर कस्तूरी से ले के मिट्टी पर्यन्त सब चीज एक टके सेर बिकेगी ।

जब ऐसी प्रसिद्धि देश देशान्तरों में हुई तब किसी स्थान में दो गुरु शिष्य वैरागी अखाड़ों में मल्लविद्या करते पांच पांच सेर खाते और बड़े मोटे थे । चेले ने गुरु से कहा कि चलिए अन्धेर नगरी में वहां दश (१०) टकों से दश (१०) सेर मलाई आदि माल चाब के खूब तैयार होंगे । गुरु ने कहा कि वहां गवर्गण्ड  के राज्य में कभी न जाना चाहिये क्योंकि किसी दिन खाया पीया सब निकल जावेगा किन्तु प्राण भी बचना कठिन होगा । फिर जब चेले ने हठ किया तब गुरु भी मोह से साथ चला गया । वहां जा के अन्धेर नगरी के समीप बगीचे में निवास किया और खूब माल चबाते और कुश्ती करते रहते थे । इतने में कभी एक आधी रात में किसी साहूकार का नौकर एक हजार रुपयों की थैली ले के किसी साहूकार की दुकान पर जमा करने को जाता था । बीच में उचक्के आकर रुपयों की थैली छीन कर भागे । उसने जब पुकारा तब थाने के सिपाहियों ने आकर पूछा कि क्या है ? उसने कहा कि अभी उचक्के मुझसे रुपयों को छीन कर इधर भागे हैं । सिपाही ने धीरे धीरे चल के किसी भले आदमी को पकड़ लिया कि तू ही चोर है । उसने कहा कि मैं फलाने साहूकार का नौकर हूँ, चलो पूछ लो ।

सिपाही – हम नहीं पूछते, चल राजा के पास । पकड़ कर राजा के पास ले जा के कहा कि इसने हजार रुपयों की थैली चोर ली है ।

गवर्गण्ड और आस-पास वालों में से किसी ने कुछ न पूछा न गाछा । वह विचारा पुकारता ही रहा कि मैं उस साहूकार का नौकर हूँ, परन्तु किसी ने न सुना । झट हुक्म चढ़ा दिया कि इसको शूली पर चढ़ा दो ।

शूली लोहे की बरछी और सरों के वृक्ष के समान अणीदार होती है । उस पर मनुष्य को चढ़ा उलटा कर नाभि में उसकी अणी लगा देने से पार निकल जाने से वह कुछ विलम्ब में मर जाता है ।

गवर्गण्ड के नौकर भी उसके सदृश क्यों न हों ? क्योंकि “‘समानव्यसनेषु मैत्री”‘ जिनका स्वभाव एक सा होता है उन्हीं की परस्पर मित्रता भी होती है । जैसी धर्मात्माओं की धर्मात्माओं, पण्डितों की पण्डितों, दुष्टों की दुष्टों और व्यभिचारियों की व्यभिचारियों के साथ मित्रता होती है । न कभी धर्मात्मादि का अधर्मात्मादि और न अधर्मात्माओं का धर्मात्माओं के साथ मेल हो सकता है ।

गवर्गण्ड के सिपाहियों ने विचारा कि शूली तो मोटी और मनुष्य है पतला, अब क्या करना चाहिये । तब राजा के पास जाके सब बात कही । उस पर गवर्गण्ड ने हुक्म दिया कि अच्छा तो इस आदमी को छोड़ दो और किसी शूली के सदृश मोटे आदमी को पकड़ के इसके बदले चढ़ा दो । तब गवर्गण्ड के सिपाहियों ने विचारा कि शूली के सदृश खोजो, तब किसी ने कहा कि इस शूली के सदृश तो बगीचे वाले गुरु चेला दोनों वैरागी ही हैं । सब बोले ठीक ठीक तो उसका चेला ही है । जब बहुत से सिपाहियों ने बगीचे में जाके उसके चेले से कहा कि तुमको महाराज का हुक्म है शूली पर चढ़ने के लिए चल । तब तो वह घबरा के बोला कि हमने तो कोई अपराध नहीं किया है ।

सिपाही – अपराध तो नहीं किया परन्तु तू ही शूली के समतुल्य है हम क्या करें ?

साधु – क्या दूसरा कोई नहीं है ?

सिपाही – नहीं, बहुत बर बर मत करो । चलो । महाराज का हुक्म है ।

तब चेला गुरु से बोला कि महाराज अब क्या करना चाहिए ।

गुरु – हमने तुझ से प्रथम ही कहा था कि अन्धेर नगरी गवर्गण्ड के राज्य में मुफ्त में माल चाबने को मत चलो, तूने नहीं माना । अब हम क्या करें, जैसे हो वैसा भोगो, देख अब सब खाया पिया निकल जावेगा ।

चेला – अब किसी प्रकार बचाओ तो यहां से दूसरे राज्य में चले जावें ।

गुरु – एक युक्ति है बचने की, सो करो तो सम्भव है । शूली पर चढ़ते समय तू मुझको हठा, मैं तुझको हठाऊं, इस प्रकार परस्पर लड़ने से कुछ बचने का उपाय निकल आवेगा ।

चेला – अच्छा, तो चलिये ।

ये सब बातें दूसरे देश की भाषा में कीं इससे सिपाही कुछ न समझे । सिपाहियों ने कहा चलो देर मत लगाओ नहीं तो बांध के ले जायेंगे । साधुओं ने कहा कि हम प्रसन्न्तापूर्वक चलते हैं तुम क्यों बांधो ?

सिपाही – अच्छा तो चलो ।

जब शूली के पास पहुंचे तब दोनों लंगोट बांध के मिट्टी लगा के खूब लड़ने लगे ।

गुरु ने कहा कि शूली पर मैं ही चढ़ूंगा ।

चेला – चेला का धर्म नहीं कि मेरे होते गुरु शूली पर चढ़े ।

गुरु – मेरा भी धर्म नहीं कि मेरे सामने चेला शूली पर चढ़ जाय, हां, मुझ को मार कर पीछे भले ही शूली पर चढ़ जाना । क्यों बकता है चुप रह, समय चला जाता है ।

ऐसा कह कर शूली पर चढ़ने लगा । जब चेले ने गुरु को पकड़ कर धक्का देकर अलग किया, आप चढ़ने लगा । फिर गुरु ने भी वैसा ही किया । तब तो गवर्गण्ड के सिपाही कामदार सब तमाशा देखते थे । उन्होंने पूछा कि तुम शूली पर चढ़ने के लिए क्यों लड़ते हो ? तब दोनों साधु बोले कि हमसे इस बात को मत पूछो, चढ़ने दो क्योंकि हमको ऐसा समय मिलना दुर्लभ है ।

यह बात तो यहाँ ऐसी ही होती रही और गवर्गण्ड के पास खुशामदियों की सभा भरी हुई थी । आप वहां से उठ और भोजन करके सिंहासन पर बैठकर सबको बोला कि बैंगन का शाक अत्युत्तम होता है । सुनकर खुशामदी लोग बोले कि धन्य है महाराज की बुद्धि को । बैंगन के शाक को चखते ही शीघ्र उसकी परीक्षा कर ली । सुनिये महाराज ! जब बैंगन अच्छा है तभी तो परमेश्वर ने उसके ऊपर मुकुट, चारों ओर कलंगी, ऊपर का वर्ण घनश्याम और भीतर का वर्ण मक्खन के समान बनाया है । ऐसा सुनकर गवर्गण्ड और सब सभा के लोग अति प्रसन्न होकर हँसे । जब गवर्गण्ड अपने महलों में सोने को गया, ड्योढ़ी बन्द हुई । तब खुशामदी लोगों ने चौकी पहरे वालों से कहा कि जब तक प्रातःकाल हम न आवें तब तक किसी का मिलाप महाराज के साथ मत होने देना । उनने कहा कि अच्छा आज के दिन कुछ गहरी प्राप्‍ति नहीं हुई ।

खुशामदी – आज न हुई कल हो जावेगी, हमारा और तुम्हारा तो साझा ही है । जो कुछ खजाने में और प्रजा से निकाल पर अपने घर में पहुंचे वही अपना है । जब राजा को नशा और रंडीबाजी आदि खेल में सब लोग मिलकर लगा देंगे, तभी अपना गहरा होगा । और सब खजाना अपना ही है इसलिये आपस में मिले रहो, फूटना न चाहिये । सबने कहा, हां जी ! हां ! यही ठीक है !

ये तो चले गये । जब गवर्गण्ड सोने को गया तब गर्म मसाले पड़े हुए बैंगन के शाक ने गर्मी की और जंगल की हाजत हुई । ले लोटा जाजरू में गया, रात भर खूब जुलाब लगा । घड़ी घड़ी में कोई तीस दस्त हुए । रात्रि भर नींद न आई, बड़ा व्याकुल रहा । उसी समय वैद्यों को बुलाया । वे भी गवर्गण्ड के सदृश ही थे, ऊँटपटांग औषधियाँ दीं, उनने और भी बिगाड़ किया । क्योंकि गर्वगण्ड के पास बुद्धिमान् क्योंकर ठहर सकते हैं ?

जब प्रातःकाल हुआ तब खुशामदियों की मण्डली ने सभा का स्थान घेर के दासियों से पूछा कि महाराज क्या करते हैं ?

दासी – आज रात भर जुलाब लगा और व्याकुल रहे ।

खुशामदी – क्या कोई रात्रि में महाराज के पास आया भी था ?

दासी – दस बारह जने आये थे ।

खुशामदी – कौन कौन आये थे ? उनके नाम भी जानती हो ?

दासी – हां, तीन के नाम जानती हूँ, अन्य के नहीं ।

तब तो खुशामदी लोग विचारने लगे कि किसी ने अपनी निन्दा तो न कर दी हो इसलिये आज से हम में से एक दो पुरुषों को रात में ड्योढ़ी में अवश्य रहना चाहिये । सबने कहा बहुत ठीक है । इतने में जब आठ बजे के समय मुखमलीन गवर्गण्ड आकर गद्दी पर बैठा तब खुशामदियों ने भी उनसे सौ गुणा मुख बिगाड़ कर शोकाकृति-मुख होकर ऊपर से झूठमूठ अपनी चेष्टा जनाई ।

गवर्गण्ड – बैंगन का शाक खाने में तो स्वादु होता है परन्तु बादी करता है । उससे हमको बहुत दस्त लगने से रात्रि भर दुःख हुआ ।

खुशामदी – वाह वाह महाराज ! आपके सदृश न कोई राजा हुआ, न होगा । और न कोई इस समय है क्योंकि महाराज ने खाते समय तो उसके गुणों की परीक्षा की और रात्रि भर में उसके दोष भी जान लिये । देखिये महाराज ! जब बैंगन दुष्ट है तभी तो परमेश्वर ने उसके ऊपर खूंटी, चारों ओर कांटे लगा दिये । ऊपर का वर्ण कोयलों के समान और भीतर का रंग कोढ़ी की चमड़ी के सदृश किया है ।

गवर्गण्ड – क्योंजी ! कल रात को तो तुमने इसकी प्रशंसा में मुकुट आदि का अलंकार और इस समय उन्हीं को निन्दा में खूंटी आदि की उपमा दे दी । हम किसे सच्ची मानें ?

खुशामदी – घबरा के बोले कि धन्य धन्य धन्य है आपकी विशाल बुद्धि को ! क्योंकि कल सायं की बात अब तक भी नहीं भूले । सुनिये महाराज ! हमको साले बैंगन से क्या लेना देना था, हमको तो आपकी प्रसन्नता में प्रसन्नता और अप्रसन्नता में अप्रसन्नता है । जो आप रात को दिन और दिन को रात, सत्य को झूठ वा झूठ को सत्य कहें, सो सभी ठीक है ।

गवर्गण्ड – हाँ हाँ नौकरों का यही धर्म है कि कभी स्वामी की किसी बात में प्रत्युत्तर न दें किन्तु हाँ जी, हाँ जी ही करता जाय ।

खुशामदी – ठीक है, राजाओं का यही धर्म है कि किसी बात की चिन्ता कभी न करें, रात दिन अपने सुख में मगन रहें, नौकर चाकरों पर सदा विश्वास करके सब काम उनके आधीन रक्खें । बनिये बक्काल के समान हिसाब किताब कभी न देखें । जो कुछ सुपेद का काला और काले का सुपेद करें सो ही ठीक रक्खें । जिस दरख्त को लगावें उसको कभी न काटें, जिसको ग्रहण किया उसको कभी न छोड़ें चाहे कितना ही अपराध करें क्योंकि राजा होके भी जब किसी काम पर ध्यान देकर आप अपने आत्मा, मन और शरीर से यदि परिश्रम किया तो जानो उनका कर्म फूट गया और जब हिसाब आदि में दृष्टि की तो वह महादरिद्र है, राजा नहीं ।

गवर्गण्ड – क्योंजी ! कोई मेरे समान राजा और तुम्हारे सदृश सभासद् कभी हुए होंगे और आगे कोई होंगे वा नहीं ?

खुशामदी – नहीं, नहीं, नहीं, कदापि नहीं ।

गवर्गण्ड – सत्य है, क्या ईश्वर भी हमसे अधिक उत्तम होगा ?

खुशामदी – कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसको किसने देखा है ? आप तो साक्षात् परमेश्वर हैं, क्योंकि आपकी कृपा से दरिद्र का धनाढ़्य, अयोग्य से योग्य और अकृपा से धनाढ़्य का दरिद्र, योग्य से अयोग्य तत्काल ही हो सकता है ।

इतने में नियत किये प्रातःकाल को सायंकाल मानकर सोने को सब लोग गये । जब सायंकाल हुआ तब जगे और फिर सभा लगी । इतने में सिपाहियों ने आकर साधुओं के झगड़े की बात कही । सुनकर गर्वगण्ड ने सभा सहित वहां जाके साधुओं से पूछा कि तुम शूली पर चढ़ने के लिए क्यों सुख मानते हो ?

साधु – तुम हमसे मत पूछो, चढ़ने दो, समय चला जाता है । ऐसा समय हमको बड़े भाग्य से मिला है ।

गर्वगण्ड – इस समय में शूली पर चढ़ने से क्या फल होगा ?

साधु – हम नहीं कहते, जो चढ़ेगा वह फल देख लेगा, हमको चढ़ने दो ।

गवर्गण्ड – नहीं नहीं, जो फल होता हो सो कहो । सिपाहियो ! इनको इधर पकड़ लाओ ।

पकड़ लाये ।

साधु – हमको क्यों नहीं चढ़ने देते ? झगड़ा क्यों करते हो ?

गवर्गण्ड – जब तक तुम इसका फल न कहोगे तब तक हम कभी न चढ़ने देंगे ।

साधु – दूसरे को कहने की तो यह बात नहीं है परन्तु तुम हठ करते हो तो सुनो । जो कोई मनुष्य इस समय में शूली पर चढ़कर प्राण को छोड़ेगा, वह चतुर्भुज होकर विमान में बैठ के आनन्द स्वरूप स्वर्ग को प्राप्‍त होगा ।

गवर्गण्ड – अहो ! ऐसी बात है तो मैं ही चढ़ता हूँ, तुमको न चढ़ने दूंगा ।

ऐसा कहकर झट आप ही शूली पर चढकर प्राण छोड़ दिये । साधु अपने आसन पर आये । चेले ने कहा कि महाराज चलिये, यहां अब रहना न चाहिये । गुरु ने कहा कि अब कुछ चिन्ता नहीं, जो पाप की जड़ था वह मर गया । अब धर्म का राज्य होगा, क्या चिन्ता है, यहीं रहो । उसी समय उसका छोटा भाई बड़ा विद्वान्, पिता के सदृश धार्मिक और जो उसके पिता के सामने धार्मिक सभासद् और प्रजा में से सत्पुरुष जो कि उसके पिता के मरने के पश्चात् गवर्गण्ड ने निकाल दिये थे, वे सब आके सुनीति नामक छोटे भाई को राज्याधिकारी करके उसके मुरदे को शूली पर से उतार के जला दिया और खुशामदियों की मण्डली को अत्युग्र दण्ड दे के कुछ कैद कर दिया और बहुतों को नौका में बैठाकर किसी समुद्र के बीच निर्जन द्वीपान्तर में बन्धीखाने में डालकर, अत्युत्तम विद्वान् धार्मिकों की सम्मति से श्रेष्ठों का पालन, दुष्टों का ताडन, विद्या, विज्ञान और सत्यधर्म की वृद्धि आदि उत्तम कर्म करके पुरुषार्थ से यथायोग्य राज्य की व्यवस्था चलाने लगे और पुनः प्रकाशवती नगरी नाम का प्रकाश हुआ और उचित समय पर सब उत्तम काम होने लगे ।

जब जिस देशस्थ प्राणियों का अभाग्योदय होता है तब गर्वगण्ड के सदृश स्वार्थी अधर्मी प्रजा का विनाश करनेहारा राजा, धनाढ़्य खुशामदियों की राजसभा और उनके समतुल्य अधर्मी उपद्रवी राजविद्रोही प्रजा भी होती है और जब जिस देशस्थ प्राणियों का सौभाग्योदय होने वाला होता है तब सुनीति के समान धार्मिक, विद्वान्, पुत्रवत् प्रजा का पालन करने वाली राजसहित सभा और धार्मिक पुरुषार्थी पिता के समान राजसम्बन्ध में प्रीतियुक्त मंगलकारिणी प्रजा होती है । जहां अभाग्योदय वहां विपरीतबुद्धि मनुष्य परस्पर द्रोहादिस्वरूप धर्म से विपरीत दुःख के ही काम करते जाते हैं और जहां सौभाग्योदय वहां परस्पर उपकार, प्रीति, विद्या, सत्य धर्म आदि उत्तम कार्य अधर्म से अलग होकर करते रहते हैं, वे सदा आनन्द को प्राप्‍त होते हैं ।

जो मनुष्य विद्या कम भी जानता हो परन्तु पूर्वोक्त दुष्ट व्यवहारों को छोड़कर धार्मिक होके खाने-पीने, बोलने-सुनने, बैठने-उठने, लेने-देने आदि व्यवहार सत्य से युक्त यथायोग्य करता है वह कहीं कभी दुःख को नहीं प्राप्‍त होता और जो सम्पूर्ण विद्या पढ़ के पूर्वोक्त उत्तम व्यवहारों को छोड़ के दुष्ट कर्मों को करता है वह कहीं कभी सुख को प्राप्‍त नहीं हो सकता । इसलिए सब मनुष्यों को उचित है कि अपने लड़के, लड़की, इष्टमित्र, अड़ौसी-पड़ौसी और स्वामी, भृत्य आदि को विद्या और सुशिक्षा से युक्त करके सर्वदा आनन्द करते रहें !!

इति श्रीमद्‍दयानन्दसरस्वतीरचितो व्यवहारभानुः समाप्‍तः ॥

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