रविवार, 8 सितंबर 2013

व्यवहारभानु : -(भाग-1)

ओ३म्सर्वान्तर्यामिणेऽखिलगुरवे विश्वम्भराय नमः

व्यवहारभानुः

श्रीमत्स्वामिदयानन्दसरस्वतीरचितः
1 भूमिका

2 अथ व्यवहारभानुः

3 महामूर्ख का लक्षण

4 (“लालभुझक्कड़” का दृष्टान्त)

5 (अधर्मी बजाज और ग्राहक का) दृष्टान्त

6 धार्मिकों का दृष्टान्त

7 (अविद्वान और मूर्ख का) दृष्टान्त

8 धार्मिक राजा का दृष्टान्त

9 “अन्धेर नगरी” दृष्टान्त
भूमिका

मैंने परीक्षा करके निश्चय किया है कि जो धर्मयुक्त व्यवहार में ठीक-ठीक वर्त्तता है उसको सर्वत्र सुखलाभ और जो विपरीत वर्त्तता है वह सदा दुःखी होकर अपनी हानि कर लेता है । देखिये, जब कोई सभ्य मनुष्य विद्वानों की सभा में वा किसी के पास जाकर अपनी योग्यता के अनुसार नम्रतापूर्वक ‘नमस्ते’ आदि करके बैठ के दूसरे की बात ध्यान से सुन, उसका सिद्धान्त जान निरभिमानी होकर युक्त प्रत्युत्तर करता है, तब सज्जन लोग प्रसन्न होकर उसका सत्कार और जो अण्डबण्ड बकता है, उसका तिरस्कार करते हैं ।

जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान्य शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता है तब उसका विश्वास और मान्य मित्र भी नहीं करते । इसमें जो थोड़ी विद्या वाला भी मनुष्य श्रेष्ठ शिक्षा पाकर सुशील होता है उसका कोई भी कार्य्य नहीं बिगड़ता ।

इसलिये मैं मनुष्यों की उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादि शास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीतियुक्त इस ‘व्यवहारभानु’ ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करता हूं कि जिसको देख दिखा, पढ़ पढ़ाकर मनुष्य अपने और अपने अपने संतान तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें ।

इस ग्रन्थ में कहीं कहीं प्रमाण के लिए संस्कृत और सुगम भाषा लिखी और अनेक उपयुक्त दृष्टान्त देकर सुधार का अभिप्राय प्रकाशित किया है कि जिसको सब कोई सुख से समझ के अपना अपना स्वभाव सुधार के सब उत्तम व्यवहारों को सिद्ध किया करें ।

- दयानन्द सरस्वती

काशी

सं० १९३९

फाल्गुन शुक्ला १५

अथ व्यवहारभानुःऐसा कौन मनुष्य होगा कि जो सुखों को सिद्ध करने वाले व्यवहारों को छोड़कर उल्टा आचरण करे । क्या यथायोग्य व्यवहार किये बिना किसी को सर्व सुख हो सकता है ? क्या कोई मनुष्य अपनी और पुत्रादि सम्बन्धियों की उन्नति न चाहता हो ? इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि श्रेष्ठ-शिक्षा और धर्मयुक्त व्यवहारों से वर्तकर सुखी होके दुःखों का विनाश करें । क्या कोई मनुष्य अच्छी शिक्षा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फलों को सिद्ध नहीं कर सकता ? और इसके विना पशु के समान होकर दुःखी नहीं रहता है ? इसलिये सब मनुष्यों को सुशिक्षा से युक्त होना अवश्य है । जिसलिये यह बालक से लेके वृद्धपर्य्यन्त मनुष्यों के सुधार के अर्थ (व्यवहार संबन्धी शिक्षा का) विधान किया जाता है इसलिए यहां वेदादिशास्त्रों के प्रमाण भी कहीं कहीं दीखेंगे । क्योंकि उनके अर्थों को समझने का ठीक ठीक सामर्थ्य बालक आदि का नहीं रहता । जो विद्वान् प्रमाण देखना चाहे तो वेदादि अथवा मेरे बनाए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों में देख लेवें ।

प्रश्न
    कैसे पुरुष पढ़ाने और शिक्षा करनेहारे होने चाहियें ?
उत्तर
    पढ़ाने वालों के लक्षण -

आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षाधर्मनित्यता ।

यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डिता उच्यते ॥ १ ॥

जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान, जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी, सुखदुःखादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करने वाला, जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा कर अधर्म की ओर न खेंच सके वह पण्डित कहाता है ॥१॥

निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।

अनास्तिकः श्रद्दधान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥२॥

जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों का करने और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न सेवनेहारा, न कदापि ईश्वर, वेद और धर्म का विरोधी और परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी है वही मनुष्य ‘पण्डित’ के लक्षणयुक्त होता है ॥२॥

क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ।

नासंपृष्टो ह्युपयुंक्ते परार्थे तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥३॥

जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने, दीर्घकाल पर्य्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुनके ठीक ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करने, परमेश्वर से लेके, पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों को जानके उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् वर्तमान किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में विना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है, वही पण्डित का प्रथम बुद्धिमत्ता का लक्षण है ।३॥

नाप्राप्यमभिवाञ्च्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् ।

आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः ॥ ४॥

जो मनुष्य प्राप्ति होने के अयोग्य पदार्थों की कभी इच्छा नहीं करने, अदृष्ट वा किसी पदार्थ के नष्ट भ्रष्ट हो जाने पर शोक करने की अभिलाषा नहीं करने और बड़े बड़े दुःखों से युक्त व्यवहारों की प्राप्ति में मूढ़ होकर नहीं घबराते हैं वे मनुष्य पण्डितों की बुद्धि से युक्त कहाते हैं ॥४॥

प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।

आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥५॥

जिसकी वाणी सब विद्याओं में चलनेवाली, अत्यन्त अद्‍भुत विद्याओं की कथाओं को करने, विना जाने पदार्थों को तर्क से शीघ्र जानने जनाने, सुनी विचारी विद्याओं को सदा उपस्थित रखने और जो सब विद्याओं के ग्रन्थों को अन्य मनुष्यों को शीघ्र पढ़ानेवाला मनुष्य है, वही ‘पण्डित’ कहाता है ॥५॥

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।

असंभिन्नार्य्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ॥६॥

जिसकी सुनी हुई, पठित विद्या बुद्धि के सदा अनुकूल और बुद्धि और क्रिया सुनी पढ़ी विद्याओं के अनुसार जो, धार्मिक श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का रक्षक और दुष्ट डाकुओं की रीति को विदीर्ण करनेहारा मनुष्य है, वही ‘पण्डित’ नाम धराने के योग्य होता है ॥६॥

जहां ऐसे सत् पुरुष पढ़ाने और बुद्धिमान् पढ़ने वाले होते हैं वहां विद्या, धर्म की वृद्धि होकर सदा आनन्द ही बढ़ता जाता है और जहां निम्नलिखित मूढ़ पढ़ने पढ़ानेहारे होते हैं वहां अविद्या और अधर्म्म की उन्नति होकर दुःख ही बढ़ता जाता है ।

प्रश्न
    कैसे मनुष्य पढ़ाने और उपदेश करने वाले न होने चाहियें ?
उत्तर

अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः ।

अर्थाश्चाकर्म्मणा प्रेप्सुर्मूढ़ इत्युच्यते बुधै ॥१॥

जो किसी विद्या को न पढ़ और किसी विद्वान का उपदेश न सुनकर बड़ा घमण्डी दरिद्र होकर बड़े बड़े कामों की इच्छा करनेहारा और विना परिश्रम के पदार्थों की प्राप्‍ति में उत्साही होता है, उसी मनुष्य को विद्वान् लोग मूर्ख कहते हैं ॥१॥

दृष्टान्त
    जैसे – एक कोई दरिद्र शेखसेली नामक किसी ग्राम में था वहां किसी नगर का बनिया दश रुपये उधार लेकर घी लेने आया था । वह घी लेकर घड़े में भरकर किसी मजूर की खोज में था । वहां शेखसेली आ निकला, उसने पूछा कि इस घड़े को तीन कोस पर ले जाने की क्या मजूरी लेगा । उसने कहा कि आठ आने । आगे बनिये ने कहा कि चार आने लेना हो तो ले । उसने कहा – अच्छा । शेखसेली घड़ा उठा आगे चला और बनिया पीछे पीछे चलता हुआ मन में मनोरथ करने लगा कि दश रुपयों के इस घी के ग्यारह रुपये आवेंगे, दश रुपया सेठ को दूंगा और एक रुपया घर की पूंजी रहेगी, वैसे ही दश फेरे में दश रुपये हो जायेंगे । इसी प्रकार दश से सौ, सौ से सहस्र, सहस्र से लक्ष, लक्ष से करोड़ । फिर करोड़े से सब जगह कोठियां करूंगा और सब राजे लोग मेरे कर्जदार हो जायेंगे, इत्यादि बड़े बड़े मनोरथ करने लगा । और शेखसेली ने विचारा कि चार आने की रूई ले सूत कात कर बेचूंगा, आठ आना मिलेगा, फिर आठ आना से एक रुपया होगा, फिर वैसे ही एक से दो रुपये होंगे, उनसे एक बकरी लूंगा, जब उसके बच्चे कच्चे होंगे तब उनको बेच एक गाय लूंगा, उसके बच्चे कच्चे बेच एक भैंस लूंगा, उसके बच्चे कच्चे बेच एक घोड़ी लूंगा, उसके बच्चे कच्चे बेच एक हथिनी लूंगा और उसके बच्चे कच्चे बेच दो बीवियां ब्याहूंगा । एक का नाम प्यारी और दूसरी का नाम बेप्यारी रक्खूंगा । जब प्यारी के लड़के गोद में बैठने आवेंगे तब कहूंगा बच्चे आओ बैठो और जब बेप्यारी के लड़के आकर कहेंगे कि हम भी बैठें तब कहूंगा ऊँह उँह उँह । नहीं नहीं, ऐसा कहकर सिर हिला दिया । घड़ा गिर पड़ा, फूट गया और घी भूमि पर फैल गया, बनिया रोने लगा और शेखसेली भी रोने लगा । बनिये ने शेखसेली को धमकाया कि घी क्यों गिरा दिया और रोता क्यों है ? तेरा क्या नुकसान हुआ ?

शेखसेली – तेरा क्या बिगाड़ हुआ ? तू क्यों रोता है ?

बनिया – मैंने दश रुपये उधार लेकर प्रथम ही घी खरीदा था, उस पर बड़े लाभ का विचार किया था, वह मेरा सब बिगड़ गया, मैं क्यों न रोऊं !

शेखसेली – तेरी तो दश रुपये आदि की ही हानि हुई, मेरा तो घर ही बना बनाया बिगड़ गया, मैं क्यों न रोऊं ?

बनिया – क्या तेरे रोने से मेरा घी आ जायेगा?

शेखसेली – अच्छा, तो तेरे रोने से मेरा घर बन जायेगा, तू बड़ा मूर्ख है ।

बनिया – तू मूर्ख, तेरा बाप मूर्ख ।

दोनों आपस में एक दूसरे को मारने लगे, फिर मारपीट कर शेखसेली अपने घर की ओर भाग गया और बनिये ने धूल में मिले हुए घी को ठीकरे में उठाकर अपने घर की राह ली । ऐसे ही स्वसामर्थ्य के विना अशक्य मनोरथ किया करना मूर्खों का काम है ।

अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।

अविश्वस्ते विश्वसिति मूढ़चेता नराधमः ॥२॥

(महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर, अ० ३२)

जो विना बुलाये जहां तहां सभादि स्थानों में प्रवेश कर सत्कार और उच्चासन को चाहे वा ऐसे रीति से बैठे कि सब सत्पुरुषों को उसका आचरण अप्रिय विदित हो, विना पूछे बहुत अण्डबण्ड बके, अविश्वासियों में विश्वासी होकर सुखों की हानि कर लेवे वही मनुष्य ‘मूढ़बुद्धि’ और मनुष्यों में नीच कहाता है ॥२॥

जहां ऐसे ऐसे मूढ़ मनुष्य पठनपाठन आदि व्यवहारों को करनेहारे होते हैं वहां सुखों का तो दर्शन कहां ? किन्तु दुःखों की भरमार तो हुआ ही करती है । इसलिये बुद्धिमान् लोग ऐसे ऐसे मूढ़ों का प्रसंग वा इनके साथ पठनपाठनक्रिया को व्यर्थ समझ कर पूर्वोक्त धार्मिक विद्वानों का प्रसंग और उन्हीं से विद्या का अभ्यास किया करें और सुशील बुद्धिमान् विद्यार्थियों ही को पढ़ाया करें । ये विद्वान् और मूर्ख के लक्षणविधायक श्लोक विदुरप्रजागर के ३२ अध्याय में एक ही ठिकाने लिखे हैं ।

जो विद्या पढ़ें और पढ़ावें वे निम्नलिखित दोषयुक्त न हों –

आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च ।

स्तब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च ॥३॥

एते वै सप्‍त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः ।

सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ॥४॥

सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम् ॥

आलस्य, नशा करना, मूढ़ता, चपलता, व्यर्थ इधर उधर की अण्डबण्ड बातें करना, जड़ता – कभी पढ़ना कभी न पढ़ना, अभिमान और लोभ-लालच – ये सात (७) विद्यार्थियों के लिए विद्या के विरोधी ‘दोष’ हैं । क्योंकि जिसको सुख चैन करनी की इच्छा है उसको विद्या कहां और जिसका चित्त विद्याग्रहण करने कराने में लगा है उसको विषयसम्बन्धी सुख चैन कहां ? इसलिये विषयसुखार्थी विद्या को छोड़ें और विद्यार्थी विषयसुख से अवश्य अलग रहें नहीं तो परमधर्म्मरूप विद्या का पढ़ना पढ़ाना कभी नहीं हो सकता । ये साढ़े तीन श्लोक भी महाभारत विदुरप्रजागर अध्याय ३९ में लिखे हैं ।

प्रश्न
    कैसे मनुष्य विद्याप्राप्‍ति कर और करा सकते हैं ?
उत्तर

ब्रह्मचर्यस्य च गुणं श्रृणुत्वं वसुधाधिप !

आजन्ममरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह ॥१॥

न तस्य किञिचदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप !

बह्वयः कोट्य्स्त्वृषीणां च ब्रह्मलोके वसन्त्युत ॥२॥

सत्ये रतानां सततं दान्ताना मूर्धवरेत्साम् ।

ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम् ॥३॥

भीष्मजी युधिष्ठिर से कहते हैं कि – हे राजन् ! तू ब्रह्मचर्य्य के गुण सुन । जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेकर मरणपर्य्यन्त ब्रह्मचारी होता है ॥१॥ उसको कोई शुभगुण अप्राप्य नहीं रहता । ऐसा तू जान कि जिसके प्रताप से अनेक क्रोड़ों ऋषि ब्रह्मलोक अर्थात् सर्वानन्दस्वरूप परमात्मा में वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते हैं ॥२॥ जो निरन्तर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शान्तात्मा, उत्कृष्ट, शुभगुणस्वाभावयुक्त और रोगरहित पराक्रमयुक्त शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात् वेदादि सत्य शास्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास कर्मादि करते हैं वे सब बुरे काम और दुःखों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्म्मयुक्त कर्म्म और सब सुखों की प्राप्ति कराने हारे होते और इन्हीं के सेवन से मनुष्य उत्तम अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते हैं ॥३॥

प्रश्न
    विद्या पढ़ने और पढ़ाने वालों के विरोधी व्यवहार कौन कौन हैं ?
उत्तर
    जो विद्या और विद्वानों की सेवा न करना, अतिशीघ्रता और अपनी वा अन्य पुरुषों की प्रशंसा में प्रवृत्त होना है, ये तीन विद्या के शत्रु हैं । इनको पढ़ने और पढ़ानेहारे जो हैं, वे छोड़ दें ।

प्रश्न
    शूरवीर किनको कहते हैं ?
उत्तर

वेदाऽध्ययनशूराश्च शूराश्चाऽध्ययने रताः ।

गुरुशुश्रूषया शूराः पितृशुश्रूषयाऽपरे ॥१॥

मातृशुश्रूषया शूरा भैक्षयशूरास्तथाऽपरे ।

अरण्ये गृहवासे च शूराश्चाऽतिथिपूजने ॥२॥

जो कोई मनुष्य वेदादि शास्त्रों के पढ़ने पढ़ाने में शूर, जो दुष्टों के दलन और श्रेष्ठों के पालन में शूरवीर अर्थात् दृढ़ोत्साही उद्योगी, जो निष्कपट परोपकारक अध्यापकों की सेवा करके शूर, जो अपने जनक की सेवा करके शूर ॥१॥ जो माता की परिचर्या से शूर, जो संन्यासाश्रम से युक्त अतिथिरूप होकर सर्वत्र भ्रमण करके परोपकार करने के लिए भिक्षावृत्ति में शूर, जो वानप्रस्थाश्रम के कर्म्म और जो गृहाश्रम के व्यवहार में शूर होते हैं वे ही सब सुखों के लाभ करने कराने में अत्युत्तम होके धन्यवाद के पात्र होते हैं कि जो अपना तन, मन, धन, विद्या और धर्मादि शुभगुण ग्रहण करने में सदा उपयुक्त करते हैं ।

प्रश्न
    शिक्षा किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभगुणों की प्राप्‍ति और अविद्यादि दोषों को छोड़ के सदा आनन्दित हो सकें, वह शिक्षा कहाती है ।
प्रश्न
    विद्या और अविद्या किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जिससे पदार्थ का स्वरूप यथावत् जानकर उससे उपकार लेके अपने और दूसरों के लिए सब सुखों को सिद्ध कर सकें वह ‘विद्या’ और जिससे पदार्थों के स्वरूप को अन्यथा जानकर अपना और पराया अनुपकार करे वह ‘अविद्या’ कहाती है ।
प्रश्न
    मनुष्यों को विद्या की प्राप्‍ति और अविद्या के नाश के लिए क्या क्या कर्म करना चाहिये ?
उत्तर
    वर्णोच्चारण से लेके, वेदार्थज्ञान के लिए ब्रह्मचर्य आदि कर्म करना योग्य है ।
प्रश्न
    ब्रह्मचारी किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जो जितेन्द्रिय होके ब्रह्म अर्थात् वेदविद्या के लिये, आचार्य्यकुल में जाकर विद्या-ग्रहण के लिए प्रयत्न करे वह ‘ब्रह्मचारी’ कहाता है ।
प्रश्न
    आचार्य्य किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जो विद्यार्थियों को अत्यन्त प्रेम से विद्या और धर्मयुक्त व्यवहार की शिक्षा प्राप्‍ति के लिए तन, मन और धन से प्रयत्‍न करे उसको ‘आचार्य’ कहते हैं ।
प्रश्न
    अपने सन्तानों के लिए माता, पिता और आचार्य क्या क्या शिक्षा करें ?
उत्तर
    मातृमान् पितृमान् आचार्य्यमान् पुरुषो वेद । (शतपथ ब्राह्मण)

अहोभाग्य उस मनुष्य का है कि जिसका जन्म धार्मिक विद्वान् माता पिता और आचार्य के सम्बन्ध में हो क्योंकि इन तीनों की ही शिक्षा से उत्तम मनुष्य होता है । ये अपने सन्तान और विद्यार्थियों को अच्छी भाषा बोलने, खाने, पीने, बैठने, उठने, वस्त्र धारने, माता आदि के मान्य करने, उनके सामने यथेष्टाचारी न होने, विरुद्ध चेष्टा न करने आदि के लिए प्रयत्‍न से नित्यप्रति उपदेश किया करें और जैसा जैसा उसका सामर्थ्य बढ़ता जाये वैसे वैसे उत्तम बातें सिखलाते जायं । इसी प्रकार लड़के और लड़कियों को पांच वा आठ वर्ष की अवस्था पर्यन्त माता पिता की और इसके उपरान्त आचार्य की शिक्षा होनी चाहिये ।

प्रश्न
    क्या जैसी चाहें वैसी शिक्षा करें ?
उत्तर
    नहीं, जो पुत्र, पुत्री और विद्यार्थियों को सुनावें कि सुन मेरे बेटे बेटियां और विद्यार्थी ! तेरा शीघ्र विवाह करेंगे, तू इसकी दाढ़ी मूंछ पकड़ ले, इसका जूड़ा पकड़ ले, ओढ़नी फेंक दे, धौल मार, गाली दे, इसका कपड़ा छीन ले, पगड़ी वा टोपी फेंक दे, खेल-कूद, हँस, रो, तुम्हारे विवाह में फूलवारी निकालेंगे इत्यादि कुशिक्षा करते हैं उनको माता, पिता और आचार्य न समझने चाहियें किन्तु सन्तान और शिष्यों के पक्के शत्रु और दुःखदायक हैं, क्योंकि जो बुरी चेष्टा देखकर लड़कों को न घुड़कते और न दण्ड देते हैं वे क्योंकर माता, पिता और आचार्य हो सकते हैं ? और जो अपने सामने यथातथा बकने, निर्लज्ज होने, व्यर्थ चेष्टा करने आदि बुरे कर्मों से हटाकर विद्या आदि शुभ गुणों के लिए उपदेश कर तन, मन, धन लगा के उत्तम विद्या व्यवहार का सेवन कराकर अपने सन्तानों को सदा श्रेष्ठ करते जाते हैं, वे माता, पिता और आचार्य कहाकर धन्यवाद के पात्र हैं । फिर वे अपने सन्तान और शिष्यों को ईश्वर की उपासना, धर्म, अधर्म, प्रमाण, प्रमेय, सत्य, मिथ्या, पाखण्ड, वेद, शास्त्र आदि के लक्षण और उनके स्वरूप का यथावत् बोध करा और सामर्थ्य के अनुकूल उनको वेदशास्त्रों के वचन भी कण्ठस्थ कराकर विद्या पढ़ने, आचार्य के अनुकूल रहने की रीति भी जना देवें कि जिससे विद्याप्राप्‍ति आदि प्रयोजन निर्विध्न सिद्ध हों, वे ही “माता पिता और आचार्य” कहाते हैं ।

प्रश्न
    विद्या किस किस प्रकार और किस साधन से होती है ?
उत्तर
    चतुर्भिः प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति ।

आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति ॥ (महाभाष्य अ० १।१।१।आ० १।)

विद्या चार प्रकार से आती है – आगम, स्वाध्याय, प्रवचन और व्यवहारकाल ।

आगमकाल उसको कहते हैं कि जिससे मनुष्य पढ़ाने वाले से सावधान होकर ध्यान देके विद्यादि पदार्थ ग्रहण कर सके ।

स्वाध्यायकाल उसको कहते हैं कि जो पठन समय में आचार्य के मुख से शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की बातें प्रकाशित हों उनको एकान्त में स्वस्थचित्त होकर पूर्वापर विचार के ठीक ठीक हृदय में दृढ़ कर सके ।

प्रवचनकाल उसको कहते हैं कि जिससे दूसरे को प्रीति से विद्याओं को पढ़ा सकना ।

व्यवहारकाल उसको कहते हैं कि जब अपने आत्मा में सत्यविद्या होती है तब यह करना, यह न करना है वह ठीक ठीक सिद्ध होके वैसा ही आचरण करना हो सके, ये चार प्रयोजन हैं । तथा अन्य भी चार कर्म विद्याप्राप्‍ति के लिए हैं – श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार ।

श्रवण उसको कहते हैं कि आत्मा मन के और मन श्रोत्र इन्द्रिय के साथ यथावत् युक्त करके अध्यापक के मुख से जो जो अर्थ और सम्बन्ध के प्रकाश करने हारे शब्द निकलें उनको श्रोत्र से मन और मन से आत्मा में एकत्र करते जाना ।

मनन उसको कहते हैं कि जो जो शब्द अर्थ और सम्बन्ध आत्मा में एकत्र हुए हैं उनका एकान्त में स्वस्थचित्त होकर विचार करना कि कौन शब्द किस शब्द, कौन अर्थ किस अर्थ और कौन सम्बन्ध किस सम्बन्ध के साथ सम्बन्ध अर्थात् मेल रखता और और इनके मेल में किस प्रयोजन की सिद्धि और उल्टे होने में क्या क्या हानि होती है ।

निदिध्यासन उसको कहते हैं कि जो जो शब्द अर्थ और सम्बन्ध सुने विचारे हैं वे ठीक ठीक हैं वा नहीं ? इस बात की विशेष परीक्षा करके दृढ़ निश्चय करना ।

साक्षात्कार उसको कहते हैं कि जिन अर्थों के शब्द और सम्बन्ध सुने विचारे और निश्चित किये हैं उनको यथावत् ज्ञान और क्रिया से प्रत्यक्ष करके व्यवहारों की सिद्धि से अपना और पराया उपकार करना आदि विद्या की प्राप्‍ति के साधन हैं ।

प्रश्न
    आचार्य के साथ विद्यार्थी कैसा कैसा वर्तमान करें और कैसा कैसा न करें ?
उत्तर
    सत्य बोले, मिथ्या न बोले, सरल रहे, अभिमान न करे, आज्ञा पालन करे, आज्ञा भंग न करे, स्तुति करे, निन्दा न करे, नीचे आसन पर बैठे, उँचे न बैठे, शान्त रहे, चपलता न करे, आचार्य की ताड़ना पर प्रसन्न रहे, क्रोध कभी न करे, जब कुछ वे पूछें, हाथ जोड़कर नम्र होकर उत्तर दे, घमण्ड से न बोले, जब वे शिक्षा करें, चित्त देकर सुने, ठट्ठे में न उड़ावे, शुद्ध शरीर वस्त्र रक्खे, मैले कभी न रक्खे, जो कुछ प्रतिज्ञा करे उसको पूरी करे, जितेन्द्रिय होवे, लम्पटपन व्यभिचार कभी न करे, उत्तमों का सदा मान करे, अपमान कभी न करे, उपकार मान के कृतज्ञ होवे, किसी का अनुपकारी होकर कृतघ्न न होवे, पुरुषार्थी रहे, आलसी कभी न हो, जिस जिस कर्म से विद्याप्राप्‍ति हो उस उस को करता जाय, जो जो बुरे काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि विद्याविरोधी हों उनको छोड़कर उत्तम गुणों की कामना, बुरे कामों पर क्रोध, विद्याग्रहण में लोभ, सज्जनों में  मोह, बुरे कामों से भय, अच्छे काम न होने में शोक सदा करके विद्यादि शुभगुणों से आत्मा और जितेन्द्रिय हो वीर्य आदि धातुओं की रक्षा से शरीर का बल सदा बढ़ाता जाय ॥

प्रश्न
    आचार्य विद्यार्थियों के साथ कैसे वर्त्तें ?
उत्तर
    जिस प्रकार से विद्यार्थी विद्वान्, सुशील, निरभिमान, सत्यवादी, धर्मात्मा, आस्तिक, निरालस्य, उद्योगी, परोपकारी, वीर, धीर, गम्भीर, पवित्राचरण, शान्तियुक्त, दमनशील, जितेन्द्रिय, ऋजु, प्रसन्नवदन होकर माता, पिता, आचार्य, अतिथि, बन्धु, मित्र, राजा, प्रजा आदि के प्रियकारी हों, जब कभी किसी से बातचीत करें तब जो जो उसके मुख से अक्षर, पद, वाक्य निकलें उनको शांत होकर सुनके प्रत्युत्तर देवें । जब कभी कोई बुरी चेष्टा, मलिनता, मैले वस्त्रधारण, बैठने उठने में विपरीताचरण, निन्दा, ईर्ष्या, द्रोह, विवाद, लड़ाई, बखेड़ा, चुगली, किसी पर मिथ्या दोष लगाना, चोरी, जारी अनभ्यास, आलस्य, अतिनिद्रा, अतिभोजन, अतिजागरण, व्यर्थ खेलना, इधर उधर अट्ट सट्ट मारना, विषयसेवा बुरे व्यवहारों की कथा करना वा सुनना, दुष्ट के संग बैठना आदि दुष्ट व्यवहार करे तो उसको यथाऽपराध कठिन दण्ड देवे । इसमें प्रमाणः –

सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः ।

लालनाश्रयिणो, दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः ॥१॥

महाभाष्य अ० ८ । पा० १ । सू० ८ । आ० १॥

आचार्य लोग अपने विद्यार्थियों को विद्या और सुशिक्षा होने के लिए प्रेमभाव से अपने हाथों से ताड़ना करते हैं क्योंकि सन्तान और विद्यार्थियों का जितना लाडन करना है, उतना ही उनके लिए बिगाड़ और जितनी ताड़ना करनी है उतना ही उनके लिए सुखलाभ है परन्तु ऐसी ताडना न करे कि जिससे अंग भंग वा मर्म में लगने से विद्यार्थी लोग व्यथा को प्राप्‍त हो जायं ॥१॥

प्रश्न
    क्यों जी !

पठितव्यं तदपि मर्त्तव्यं न पठितव्यं तदपि मर्त्तव्यं दन्तकटाकटेति किं कर्त्तव्यम् ?हुड़दंगा कहता है कि जो पढ़ता है वह भी मरता है और जो नहीं पढ़ता वह भी मरता है फिर पढ़ने पढ़ानें में दाँत कटाकट क्यों करना ?

उत्तर

न विद्यया विना सौख्यं नराणां जायते ध्रुवम् ।

अतो धम्मार्थ मोक्षेभ्यो विद्याभ्यासं समाचरेत् ॥१॥

सज्जन कहता है कि सुन भाई हुड़दंगे ! जो तू जानता है सो विद्या का फल नहीं कि विद्या के पढ़ने से जन्म, मरण, आंख से देखना, कान से सुनना आदि ईश्वरीय नियम अन्यथा हो जायें किन्तु विद्या से यथार्थज्ञान होकर यथायोग्य व्यवहार करने कराने से आप और दूसरों को आनन्दयुक्त करना ‘विद्या का फल’ है क्योंकि विना विद्या के किसी मनुष्य को निश्चल सुख नहीं हो सकता । क्या भया कि किसी को क्षण भर सुख हुआ, न हुआ सा है । किसी का सामर्थ्य नहीं कि अविद्वान् होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्वरूप को यथावत् जानकर सिद्ध कर सके । इसलिए सब को उचित है कि इनकी सिद्धि के लिए विद्या का अभ्यास तन, मन, धय से किया और कराया करें ॥१॥

हुड़दंगा – हम देखते हैं कि बहुत से मनुष्य विद्या पढ़े हुए दरिद्र और भीख मांगते तथा विना पढ़े हुए राज्य धन का आनन्द भोगते हैं ।

सज्जन – सुनो प्रिय ! सुख दुःख का योग आत्मा में हुआ करता है । जहाँ विद्यारूप सूर्य्य का अभाव और अविद्यान्धकार का भाव है वहां दुःखों की तो भरमार, सुख की क्या ही कथा कहना है ? और जहां विद्यार्क प्रकाशित होकर अविद्यान्धकार नष्ट हो जाता है, उस आत्मा में सदा आनन्द का योग और दुःख को ठिकाना भी नहीं मिलता है ।

हुड़दंगा शिर धुनकर चुप हो गया ।

प्रश्न
    आचार्य किस रीति से विद्या शिक्षा का ग्रहण करावे और विद्यार्थी करें ?
उत्तर
    आचार्य समाहित होकर ऐसी रीति से विद्या और सुशिक्षा करें कि जिससे उसके आत्मा के भीतर सुनिश्चित अर्थ होकर उत्साह बढ़ता जाय, ऐसी चेष्टा वा कर्म कभी न करें कि जिसको देख वा करके विद्यार्थी अधर्मयुक्त हो जावें । दृष्टान्त, हस्तक्रिया, यन्त्र, कलाकौशल विचार आदि से विद्यार्थियों के आत्मा में पदार्थ इस प्रकार साक्षात् करावें कि एक के जानने से हजारों पदार्थ यथावत् जानते जायें, अपने आत्मा में इस बात का ध्यान रक्खें कि जिस जिस प्रकार से संसार में विद्या धर्माचरण की बढ़ती और मेरे पढ़ाये मनुष्य अविद्वान् और कुशिक्षित होकर मेरी निन्दा का कारण न हो जायं कि मैं ही विद्या के रोकने और अविद्या की वृद्धि का निमित्त गिना जाऊं । ऐसा न हो कि सर्वात्मा परमेश्वर के गुण कर्म स्वभाव से मेरे गुण कर्म स्वभाव विरुद्ध होने से मुझको महादुःख भोगना पड़े । धन्य वे मनुष्य हैं कि जो अपने आत्मा के समान सुख में सुख और दुःख में दुःख अन्य मनुष्यों का जानकर धार्मिकता को कदापि नहीं छोड़ते, इत्यादि उत्तम व्यवहार आचार्य लोग नित्य करते जायं । विद्यार्थी लोग भी जिन कर्मों से आचार्य की प्रसन्नता होती जाय वैसे कर्म करें जिनसे उसका आत्मा सन्तुष्ट होकर चाहे कि ये लोग विद्या से युक्त होकर सदा प्रसन्न रहें । रात-दिन विद्या ही के विचार में लगकर एक दूसरे के साथ प्रेम से परस्पर विद्या को बढ़ाते जावें । जहां विषय वा अधर्म की चर्चा भी होती हो वहां कभी खड़े भी न रहें । जहां जहां विद्यादि व्यवहार और धर्म का व्याख्यान होता हो वहां से अलग कभी न रहें । भोजन-छादन ऐसी रीति से करें कि जिससे कभी रोग, वीर्यहानि वा प्रमाद न बढ़े । जो जो बुद्धि के नाश करने हारे नशा के पदार्थ हों उनका ग्रहण कभी न करें, किन्तु जो जो ज्ञान बढ़ाने और रोग नाश करनेहारे पदार्थ हों उनका सेवन सदा किया करें । नित्यप्रति परमेश्वर का ध्यान, योगाभ्यास, बुद्धि का बढ़ाना, सत्य धर्म की निष्ठा और अधर्म का सर्वथा त्याग करते रहें । जो जो पढ़ने में विध्नरूप कर्म हों उनको छोड़के पूर्णविद्या की प्राप्‍ति करें, ये दोनों के गुण कर्म हैं ।
प्रश्न
    सत्य और असत्य का निश्चय किस प्रकार से होता है क्योंकि जिसको एक सत्य कहता है दूसरा उसी को मिथ्या बतलाता है, उसके निर्णय करने में क्या क्या निश्चित साधन हैं ?
उत्तर
    पांच -

(१)ईश्वर, उसके गुण, कर्म, स्वभाव और वेदविद्या ।(२)सृष्टिक्रम ।(३)प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण ।(४) आप्‍तों का आचार, उपदेश, ग्रन्थ और सिद्धान्त ।(५) और अपने आत्मा की साक्षी, अनुकूलता, जिज्ञासा, पवित्रता और विज्ञान ।

    १.  ईश्वरादि से परीक्षा  करना उसको कहते हैं कि जो जो ईश्वर के न्याय आदि गुण पक्षपातरहित सृष्टि बनाने का कर्म और सत्य, न्याय, दयालुता, परोपकारिता आदि स्वभाव और वेदोपदेश से सत्य धर्म ठहरे वही सत्य और धर्म और जो जो असत्य और अधर्म ठहरे वही असत्य और अधर्म है । जैसे कोई कहे कि विना कारण और कर्त्ता के कार्य होता है सो सर्वथा मिथ्या जानना । इससे यह सिद्ध होता है कि जो सृष्टि की रचना करनेहारा पदार्थ है वही ईश्वर और उसके गुण-कर्म-स्वभाव वेद और सृष्टिक्रम से ही निश्चित जाने जाते हैं ।

    २. सृष्टिक्रम उसको कहते हैं कि जो सृष्टिक्रम अर्थात सृष्टि के गुण, कर्म और स्वभाव से विरुद्ध हो वह मिथ्या और अनुकूल हो वह सत्य कहाता है । जैसे कोई कहे कि विना मां बाप के लड़का, कान से देखना, आंख से बोलना आदि होता वा हुआ है । ऐसी ऐसी बातें सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से मिथ्या और माता पिता से सन्तान, कान से सुनना और आंख से देखना आदि सृष्टिक्रम के अनुकूल होने से सत्य ही हैं ।

    ३. प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाणों से परीक्षा उसको कहते हैं कि जो जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ठीक ठीक ठहरे वह सत्य और जो विरुद्ध ठहरे वह मिथ्या समझना चाहिये । जैसे किसी ने किसी से कहा कि यह क्या है ? दूसरे ने कहा कि पृथिवी यह ‘प्रत्यक्ष’ है । इसको देखकर इसके कारण का निश्चय करना ‘अनुमान’ । जैसे विना बनानेहारे के घर नहीं बन सकता वैसा ही सृष्टि का बनानेहारा ईश्वर भी बड़ा कारीगर है, यह दृष्टान्त ‘उपमान’ सत्योपदेष्टाओं का उपदेश ‘शब्द’ । भूतकालस्थ पुरुषों की चेष्टा, सृष्टि आदि पदार्थों की कथा ‘ऐतिह्य’ । एक बात सुनकर दूसरी बात को विना सुने कहे प्रसंग से जान लेना ‘अर्थापत्ति’ । कारण से कार्य होना ‘सम्भव’ और किसी ने किसी से कहा कि जल ले आ । उसने वहां जल के अभाव को देखकर तर्क से जाना कि जहां जल है वहां से लेआ के देना चाहिये यह ‘अभाव’ प्रमाण कहाता है ।

इन आठ प्रमाणों से जो जो विपरीत न हो वह वह सत्य और जो जो उल्टा हो वह वह मिथ्या है ।

    ४.  आप्‍तों के आचार और सिद्धान्त से परीक्षा करना उसको कहते हैं कि जो सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी, पक्षपातरहित, सब के हितैषी, विद्वान्, सबके सुख के लिए प्रयत्‍न करें वे धार्मिक लोग आप्‍त कहाते हैं । जो जो उनके उपदेश, आचार, ग्रन्थ और सिद्धान्त से युक्त हो, वह सत्य और जो जो विपरीत है वह असत्य है ।

    ५. आत्मा से परीक्षा उसको कहते हैं कि जो जो अपना आत्मा अपने लिये चाहे सो सब के लिए चाहना और जो जो न चाहे सो सो किसी के लिए न चाहना । जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा मन में वैसा क्रिया में होने को, जानने जनाने की इच्छा, शुद्ध भाव और विद्या से देखके सत्य और असत्य का निश्चय करना चाहिए ।

इन पांच प्रकार की परीक्षाओं से पढ़ाने और पढ़नेहारे तथा सब मनुष्य सत्याऽसत्य का निर्णय करके धर्म का ग्रहण और अधर्म का परित्याग करें और करावें ।

प्रश्न
    धर्म और अधर्म किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग पाँचों परीक्षाओं के अनुकूलाचरण, ईश्वराज्ञा का पालन, परोपकार करना रूप धर्म और जो इससे विपरीत वह अधर्म कहाता है । क्योंकि जो सबके अविरुद्ध वह धर्म और जो परस्पर विरुद्धाचरण सो अधर्म क्योंकर न कहावे ? देखो ! किसी ने किसी से पूछा कि तेरा क्या मत है ? उसने उत्तर दिया कि जो मैं मानता हूं । उससे उसने पूछा कि जो मैं मानता हूं वह क्या है ? उसने कहा कि अधर्म । यही पक्षपात अधर्म का स्वरूप है । और जब तीसरे ने दोनों से पूछा कि सत्य बोलना धर्म अथवा असत्य ? तब दोनों ने उत्तर दिया कि सत्य बोलना धर्म और असत्य बोलना अधर्म है, इसी का नाम धर्म जानो, परन्तु यहां पांच परीक्षा की युक्ति से सत्य और असत्य का निश्चय करना योग्य है ।
प्रश्न
    जब-जब सभा आदि व्यवहारों में जावें तब-तब कैसे-कैसे वर्तें ?
उत्तर
    जब सभा में जावें तब दृढ़ निश्चय कर लें कि मैं सत्य को जिताऊं और असत्य को हराऊंगा । अभिमान न करें, अपने को बड़ा न मानें । अपनी बात का कोई खण्डन करे उस पर क्रुद्ध वा अप्रसन्न न हो । जो कोई कहे उसका वचन ध्यान देकर सुन के जो उसमें कुछ असत्य भान हो तो उस अंश का ख्ण्डन अवश्य करें और जो सत्य हो तो प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करें । बड़ाई छोटाई न गिने, व्यर्थ बकवाद न करें न कभी मिथ्या का पक्ष करें और सत्य को कदापि न छोड़ें । ऐसी रीति से बैठे वा उठे कि किसी को बुरा विदित न हो । सर्वहित पर दृष्टि रक्खे, जिससे सत्य की बढ़ती और असत्य का नाश हो उसको करे, सज्जनों का संग करें और दुष्टों से अलग रहे, जो जो प्रतिज्ञा करे वह वह सत्य से विरुद्ध न हो और उसको सर्वदा यथावत् पूरी करे । इत्यादि कर्म्म सब सभा आदि व्यवहारों में करें ।
प्रश्न
    जड़बुद्धि और तीव्रबुद्धि किसे कहते हैं ?
उत्तर
    जो आप तो समझ ही न सके परन्तु दूसरे के समझाने से भी न समझे वह जड़बुद्धि और जो समझाने से झटपट समझे और थोड़े से समझाने से बहुत समझ जावे वह तीव्रबुद्धि कहाता है । यहां महाजड़ और विद्वान् का दृष्टान्त सुनो ।

एक रामदास वैरागी का चेला गोपालदास पाठ करता-करता कुए पर पानी भरने को गया, वहां एक पण्डित बैठा था । उसने अशुद्ध पाठ सुनकर कहा कि तू स्री गनेसाजनम ऐसा धोखता है सो शुद्ध नहीं है किन्तु श्रीगणेशाय नमः ऐसा शुद्ध पाठ कर । तब वह बोला कि मेरे महन्तजी बड़े पण्डित हैं । उनने जैसा मुझको सुनाय है वैसा ही कहूँगा । उसने पानी भरकर अपने गुरु के पास जाके कहा कि महाराज जी ! एक बम्मन् मेरे पाठ को असुद्ध बताता है, तब खाखी जी ने चेलों से कहा कि उस बम्मन् को यहां बुला लाओ, वह गुरु की लण्डी मेरे चेले को क्यों बहकाता और सुद्ध का असुद्ध क्यों बतलाता है ? चेला गया, पण्डितजी को बुला लाया । पण्डित से महन्त बोले कि इसके कितने प्रकार के पाठ तू जानता है ? पण्डित ने कहा कि एक प्रकार का ।

महन्तजी – तू कुछ भी नहीं जानता, देख मैं तीन प्रकार का पाठ जानता हूं – स्री गनेसाजनम, स्री गनेसापनम । तीसरा – स्री गनेसायनम ।

पण्डित – महन्तजी ! तुम्हारे पाठ में पांच दोष हैं । प्रथम श का स । ण का न । शा का सा । य  का ज, प बोलना और विसर्जनीय का न बोलना अशुद्ध कहता है ।

महन्तजी बोले – चल बे ! गुरु के बड़े घर में सब सुद्ध है । पण्डित चुपकर चले आये क्योंकि –

सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रकथितं मूर्खस्य नैव क्वचित् ।सब का औषध शास्त्र में कहा है परन्तु शठ मनुष्यों का कोई भी नहीं । ऐसे हठी मनुष्यों से अलग रहें परन्तु जो वे सुधरा चाहें तो विद्वान् उपदेश करके उनको अवश्य सुधारें ।

प्रश्न
    माता, पिता, आचार्य्य और अतिथि अधर्म करें और कराने का उपदेश करें तो मानना चाहिये वा नहीं ?
उत्तर
    कदापि नहीं । कुमाता कुपिता सन्तानों को कहते हैं कि बेटा ! बिटिया ! तेरा विवाह शीघ्र कर देंगे, किसी की चीज पावे तो उठा लाना, कोई एक गाली दे तो उसको तू पचास गाली देना । लड़ाई, झगड़ा, खेल, चोरी, जारी, मिथ्याभाषण, भांग, मद्य, गांजा, चरस, अफीम खाना, पीना आदि कर्म्म करने में कुछ भी दोष नहीं, क्योंकि अपनी कुलपरम्परा है । सुनो प्रमाण – ‘कुलधर्म्मः सनातनः’ जो कुल में धर्म पहले से चला आता है, उसके करने में कुछ भी दोष नहीं ।

(सुसन्तान बोले) जो तुमने शीघ्र विवाह करना, किसी की चीज उठा लाना आदि कर्म्म कहे वे दुष्ट मनुष्यों के काम हैं, श्रेष्ठों के नहीं, किन्तु श्रेष्ठ तो ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या पढ़कर स्वयंवर अर्थात् पूर्ण युवा अवस्था में दोनों की प्रसन्नता पूर्वक विवाह करना, किसी की करोड़ों की चीज जंगल में भी पड़े देखकर कभी ग्रहण करने की मन में इच्छा भी न करना आदि कर्म्म किया करते हैं । जो जो तुम्हारे उत्तम कर्म्म और उपदेश हैं, उन उन को तो हम ग्रहण करते हैं, अन्य को नहीं । परन्तु तुम कैसे ही हो, हमको तन, मन, धन से तुम्हारी सेवा करना परम धर्म्म है, क्योंकि तुमने बाल्यावस्था में जैसी हमारी सेवा की है, वैसी तुम्हारी सेवा हम क्यों न करें ?

(कुसन्तान आह) श्रेष्ठ माता पिता आचार्य्य अतिथियों से अभागिये सन्तान कहते हैं कि हमको खूब खिलाओ, पिलाओ, खेलने दो, हमारे लिए कमाया करो, जब तुम मर जाओगे तब हम ही को सब काम करना पड़ेगा । शीघ्र विवाह कर दो, नहीं तो हम इधर उधर लीला करेंगे ही, बाग में जा के नाच तमाशा करेंगे, वा भाग जायेंगे वा वैरागी हो जायेंगे । पढ़ने में बड़ा कष्ट होता है हमको पढ़के क्या करना है क्योंकि हमारी सेवा करने वाले तुम तो बने ही हो, हमको सैल सपट्टा, सवारी, शिकारी, नाच, तमाशे, खाने, पीने, ओढ़ने, पहरने के लिए खूब दिया करो नहीं तो जब हम जवान होंगे तब तुमको समझ लेंगे । दण्डादण्डि, नखानखि, केशाकेशि, मुष्टामुष्टि, युद्धमेवान्यत्किम् । ऐसे ऐसे सन्तान दुष्ट कहाते हैं ।

उत्तम माता आदि कहते हैं कि सुनो लड़को ! अब तुम्हारी पढ़ने, गुनने, सत्संग करने, अच्छी अच्छी बात सीखने, वीर्यनिग्रहण करने, आचार्य आदि की सेवा करके विद्वान् होने, शरीर और आत्मा की पूर्ण युवा अवस्था आदि उत्तम कर्म करने की अवस्था है, जो चूकोगे तो फिर पछतावोगे, पुनः ऐसा समय तुमको मिलना कठिन है क्योंकि जब तक हम घर का और तुम्हारे खाने पीने आदि का प्रबन्ध करने वाले हैं तब तक तुम सर्वोत्कृष्ट विद्या और सुशिक्षा रूप धन को संचित करो । यही अक्षय धन है कि जिसको चोर आदि न ले सकते, न भार होता और जितना दान करोगे उतना ही अधिक अधिक बढ़ता जायगा । इससे युक्त होकर जहां रहोगे वहां सुखी और प्रतिष्ठा पाओगे । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्बन्धी कर्म्मों को जानकर सिद्ध कर सकोगे । हम जब तुमको विद्यारूप श्रेष्ठ गुणों से अलंकृत देखेंगे, तब हमको परम सन्तोष होगा और जो तुम कोई दुष्ट काम करोगे तो हम अपना भी अभाग्य समझ लेंगे क्योंकि हमारे कौन से पापों के फल से हमको दुष्ट सन्तान मिले । क्या तुम नहीं देखते कि जिन मनुष्यों को राज्य धन प्राप्‍त है परन्तु वे विद्या और उत्तम शिक्षा के विना नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं और श्रेष्ठ विद्या सुशिक्षा से युक्त दरिद्र भी राज्य और ऐश्वर्य को प्राप्‍त होते हैं । तुमको चाहिये कि –

यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ॥(तैत्तिरीय आरण्यके प्रपाठक ७ अनुवाक ११)

जो जो हमारे उत्तम चरित्र हैं सो सो करो और जो कभी हम भी बुरे काम करें उनको कभी मत करो, इत्यादि उत्तम उपदेश और कर्म करने हारे माता पिता और आचार्य्य आदि श्रेष्ठ कहाते हैं ।

प्रश्न
    राजा, प्रजा और इष्ट मित्र आदि के साथ कैसा कैसा व्यवहार करें ?
उत्तर
    राजपुरुष प्रजा के लिए सुमाता पिता के समान और प्रजापुरुष राजसम्बन्ध में सुसन्तान के सदृश वर्त्तकर परस्पर आनन्द बढ़ावें । मित्र, मित्र के साथ सत्य व्यवहारों के लिये समान प्रीति से वर्त्तें परन्तु अधर्म्म के लिये नहीं । पड़ौसी के साथ ऐसा वर्त्ताव करें कि जैसा अपने शरीर के लिये करते हैं । स्वामी सेवक के साथ ऐसे वर्त्तें कि जैसा अपने हस्तपादादि अंगों की रक्षा के लिए वर्त्तते हैं । सेवक स्वामियों के लिये ऐसे वर्त्तें कि जैसे अन्न जल वस्त्र और घर आदि शरीर की रक्षा के लिये होते हैं ।
प्रश्न
    ब्रह्मचर्य का क्या क्या नियम है ?
उत्तर
    कम से कम २५ वर्ष पर्यन्त पुरुष और सोलह वर्ष पर्यन्त कन्या को ब्रह्मचर्य सेवन अवश्य करना चाहिये और अड़तालीसवें वर्ष से अधिक पुरुष और चौबीस से अधिक कन्या ब्रह्मचर्य का सेवन न करें किन्तु उसके उपरान्त गृहाश्रम का समय है ।
प्रश्न
    प्रमादी ब्रूते (पागल मनुष्य कहता है) कि सुनो जी ! कन्या का पढ़ना शास्त्रोक्त नहीं क्योंकि जब वह पढ़ जावेगी तो मूर्ख पति का अपमान कर, इधर उधर पत्र भेजकर अन्य पुरुषों से प्रीति जमा के व्यभिचार किया करेगी ।
उत्तर
    (सज्जनः समाधत्ते) श्रेष्ठ मनुष्य उसको उत्तर देता है सुनो जी तुम्हारे कहने से यह आया कि किसी पुरुष को भी न पढ़ना चाहिये क्योंकि वह भी पढ़कर मूर्ख स्त्री का अपमान और डाकगाड़ी चलाकर इधर उधर अन्य स्त्रियों के साथ सैल सपाटा किया करेगा ।
प्रश्न
    (प्रमादी) हां, पुरुष भी न पढ़े तो अच्छी बात है क्योंकि पढ़े भए मनुष्य चतुराई से दूसरों को धोखा देकर अपमान करके अपना मतलब सिद्ध कर लेते हैं ।
उत्तर
    सुनो जी ! यह विद्या पढ़ने का दोष नहीं किन्तु आप जैसे मनुष्यों के संग का दोष है और जो पढ़ना पढ़ाना, धर्म और ईश्वर की विद्या से रहित है सो तो प्रायः बुरे काम का कारण देखने में आता और जो पढ़ना पढाना उक्त विद्या से सहित है तो सबके सुख और उपकार ही के लिये होता है ।
प्रश्न
    कन्याओं के पढ़ने में वैदिक प्रमाण कहां है ।
उत्तर – सुनो प्रमाण -

ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् ।

अथर्ववेद कां ११ । सू. ५ । मं १८ ॥

अर्थ – जैसे लड़के लोग ब्रह्मचर्य्य करते हैं, वैसे कन्या लोग ब्रह्मचर्य्य करके वर्णोच्चारण से लेकर वेदपर्य्यन्त शास्त्रों को पढ़कर प्रसन्न करके स्वेच्छा से पूर्ण युवा अवस्था वाले विद्वान् पति को वेदोक्त रीति से ग्रहण करे ॥१॥ क्या अधर्मी से भिन्न कोई ऐसा भी मनुष्य होगा कि किसी पुरुष वा स्त्री को विद्या के पढ़ने से रोककर मूर्ख रक्खा चाहे और वेदोक्त प्रमाण का अपमान करके अपना अकल्याण किया चाहे ?

प्रश्न
    विद्या को किस किस क्रम से प्राप्‍त हो सकता है ?
उत्तर
    शुद्ध वर्णोच्चारण, व्यवहार की शुद्धि, पुरुषार्थ, धार्मिक विद्वानों का संग, विषयकथाप्रसंग का त्याग, सुविचार से व्याकरण आदि से शब्द अर्थ और सम्बन्धों को यथावत् जानकर उत्तम क्रिया करके सर्वथा साक्षात् करता जाय । जिस जिस विद्या के लिये जो जो साधनरूप सत्यग्रन्थ हैं, उनको पढ़कर विद्यादि साध्य ग्रन्थों के अर्थों को जानना आदि कर्म शीघ्र विद्वान् होने के साधन हैं ।
प्रश्न
    विना पढ़े हुए मनुष्यों की क्या गति होगी ?
उत्तर
    दो – अच्छी और बुरी । अच्छी उसको कहते हैं कि जो मनुष्य विद्या पढ़ने का सामर्थ्य तो नहीं रखता, परन्तु वह धर्माचरण किया चाहे तो विद्वानों के संग और अपने आत्मा की पवित्रता और अविरुद्धता से धर्मात्मा अवश्य हो सकता है क्योंकि सब मनुष्यों को विद्वान् होने का तो सम्भव नहीं, परन्तु धार्मिक होने का सम्भव सब के लिये है क्योंकि जैसे अपने लिये सुख की प्राप्‍ति और दुःख के त्याग, मान्य के होने, अपमान के न होने आदि की अभिलाषा करते हैं तो दूसरों के लिये क्यों न करनी चाहिये ? जब किसी की कोई चोरी या या किसी पर झूठा जाल लगाता है तो क्या उसको अच्छा लगता है अर्थात् जिस जिस कर्म के करने में अपने आत्मा को शंका, लज्जा और भय नहीं होता, वह वह धर्म और जिस जिस कर्म में शंकादि होते हैं, वह वह अधर्म किसी को विदित क्या नहीं होता ? क्या जो कोई आत्म विरोध अर्थात् आत्मा में कुछ और, वाणी में कुछ भिन्न, और क्रिया में विलक्षण करता है वह अधर्मी और जिसके जैसा आत्मा में वैसा वाणी और जैसा वाणी में वैसा ही क्रिया में आचरण है, वह धर्मात्मा नहीं है ? प्रमाण –

असूर्य्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।

तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥१॥

यजुर्वेद अ० ४०।म० ३॥

अर्थ – (ये) जो (आत्महनः) आत्महत्यारे अर्थात् आत्मस्थ ज्ञान से विरुद्ध कहने मानने और करने हारे हैं (ते) वे ही (लोकाः) लोग (असुर्य्या नाम) असुर अर्थात् दैत्य राक्षस नाम वाले मनुष्य हैं वे (अन्धेन तमसावृताः) बड़े अधर्मरूप अन्धकार से युक्त होके जीते हुए और मरण को प्राप्‍त होकर (तान्) दुःखदायक देहादि पदार्थों को (अभिगच्छन्ति) सर्वथा प्राप्‍त होते हैं और जो आत्मरक्षक अर्थात् आत्मा के अनुकूल ही कहते, मानते और आचरण करने वाले मनुष्य विद्यारूप शुद्ध प्रकाश से युक्त होकर देव अर्थात् विद्वान् नाम से प्रख्यात हैं, वे सर्वदा सुख को प्राप्‍त होकर मरने के पीछे भी आनन्दयुक्त देहादि पदार्थों को प्राप्‍त होते हैं ।

प्रश्न
    विद्या और अविद्या किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जिससे पदार्थ यथावत् जानकर न्याययुक्त कर्म किये जावें वह ‘विद्या’ और जिससे किसी पदार्थ का यथावत् ज्ञान न होकर अन्यायरूप कर्म किये जायं वह ‘अविद्या’ कहाती है ।
    प्रश्न : न्याय और अन्याय किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जो पक्षपात रहित सत्याचरण करना है वह ‘न्याय’ और जो पक्षपात से मिथ्या आचरण करना है वह अन्याय कहाता है ।
प्रश्न
    धर्म और अधर्म किसको कहते हैं ?
उत्तर
    जो न्यायाचरण सबके हित का करना आदि कर्म हैं उनको धर्म और जो अन्यायाचरण सबके अहित के कम करने हैं उनको अधर्म जानो ।

महामूर्ख का लक्षण

एक प्रियादास का चेला भगवानदास अपने गुरु से बारह वर्ष पर्यन्त पढ़ा । एक दिन उसने पूछा कि महाराज ! मुझको संस्कृत बोलना नहीं आया । गुरु बोले – सुन बे ! पढ़ने पढ़ाने से विद्या नहीं आती, किन्तु गुरु की कृपा से आती है । जब गुरु सेवा से प्रसन्न होता है तब जैसे कुञ्जियों से ताला खोलकर मकान के सब पदार्थ झट देखने में आते हैं, वैसे ऐसी युक्ति बतला देते हैं कि हृदय के कपाट खुल जाकर सब पदार्थ, विद्या तत्क्षण आ जाती है । सुन ! संस्कृत बोलने की तो सहज युक्ति है ।

(भगवानदास) – वह क्या है महाराजजी?

(गुरु) संसार में जितने शब्द संस्कृत वा देशभाषा में हों उन पर एक एक बिन्दु धरने से सब शुद्ध संस्कृत हो जाते हैं ।

अच्छा तो महाराज जी ! लोटा, जल, रोटी, दाल, शाक आदि शब्दों पर बिन्दु धर के कैसे संस्कृत हो जाते हैं ?

देखो – लोटां, जलं, रोटीं, दालं, शाकं ।

चेला बोला – वाह-वाह ! गुरु के विना क्षणमात्र में पूरी विद्या कौन बतला सकता है ? भगवानदास ने अपने आसन पर जाकर विचार के यह श्लोक बनाया –

बांपं आंजां नंमं स्कृंत्यं पंरं पांजं तंथैवं चं ।
मंयां भंगंवांदांसेंनं गींतां टींकां कंरोम्यंहंम् ॥

जब उसने प्रातःकाल उठकर हर्षित होके गुरु के पास जाकर श्लोक सुनाया तो प्रियादासजी भी बहुत प्रसन्न हुए कि चेले हों तो तेरे जैसे कि गुरु के वचन पर विश्वासी और गुरु तो मेरे जैसे ।

ऐसे लोगों का क्या औषध है विना अलग रहने के ?

प्रश्न
    विद्या पढ़ते समय और पढ़ के किसी दूसरे को पढ़ावें वा नहीं ?
उत्तर
    बराबर पढ़ाता जाय, क्योंकि पढ़ने से पढ़ाने में विद्या की वृद्धि अधिक होती है । पढ़ के आप अकेला विद्वान् होता है, पढ़ाने से दूसरा भी हो जाता है । उत्तरोत्तर काल में विद्या की हानि नहीं होती । विद्या को प्राप्‍त होकर वह मनुष्य परोपकारी, धार्मिक अवश्य होता है क्योंकि जैसे अंधा कूएं में गिर पड़ता है वैसे देखनेहारा कभी नहीं गिरता और अविद्या की हानि होने इत्यादि प्रयोजन पढ़ाने से ही सिद्ध होते हैं ।
प्रश्न
    पोप उवाच – सभी विद्वान् हो जायेंगे तो हमको कौन पूछेंगे ? और आप ही आप सब पुस्तकों को बांचकर अर्थ समझ लेंगे, पूजा पाठ में भी न बुलायेंगे । विशेष विघ्न धनाढ्य और राजाओं के पढ़ाने में है क्योंकि उनसे हम लोगों की बड़ी जीविका होती है ।

किसी शूद्र ने उनके पास पढ़ने की इच्छा से जाके कहा कि मुझको आप कुछ पढ़ाइये ।

अल्पबुद्धि पोप जी – तू कौन है और क्या काम करता है और तेरे घर में क्या व्यवहार होता है ?

उत्तर – मैं तो महाराज आपका दास शूद्र हूं, कुछ जिमींदारी खेतीबाड़ी भी होती है और घर में कुछ लेन देन का भी व्यवहार है ।

नष्टमति पोपजी – छी ! छी ! छी ! तुमको सुनने और हमको सुनाने का भी अधिकार नहीं है । जो तू अपना धर्म छोड़कर हमारा धर्म्म करेगा तो क्या नरक में न पड़ेगा? हां, तुझको वेदों से भिन्न ग्रन्थों की कथा सुनने का तो अधिकार है । जब तेरी सुनने की इच्छा हो तब हमको बुला लेना, सुना देंगे । परन्तु आप से आप मत बांच लेना, नहीं तो अधर्मी हो जावेगा, जो कुछ भेंट पूजा लाया हो सो धर कर चला जा । और सुन, हमारे वचन को मान, नहीं तो तेरी मुक्ति कभी नहीं होगी, खूब कमा और हमारी सेवा किया कर, इसी में तेरा कल्याण और तुझ पर ईश्वर प्रसन्न होगा ।

दास – महाराज ! मुझको तो पढ़ने की बहुत इच्छा है, क्या विद्या का पढ़ना बुरी चीज है कि दोष लग जाय ?

वकवृत्ति पोप जी – बस बस तुझको किसी ने बहका दिया है जो हमारे सामने उत्तर प्रत्युत्तर करता है । हाय ! क्या करें कलियुग आ गया, विद्या को पढ़कर हमारा उपदेश नहीं मानते, बिगड़ गये ।

दास – क्या महाराज ! हमारे ही ऊपर कलियुग ने चढ़ाई कर दी कि जो हम ही को पढ़ने और मुक्ति से रोकता है ?

स्वार्थी पोप जी – हाँ, हाँ जो सत्ययुग होता तो तू हमारे सामने ऐसा बर बर कर सकता ?

दास – अच्छा तो महाराज जी, आप नहीं पढ़ाते तो हमको जो कोई पढ़ावेगा उसके चेले हो जावेंगे ।

अन्धकारी पोप जी – सुन सुन कलियुग में और क्या होना है ।

दास – आपकी हम सेवा करें और बदले आप हमको क्या देंगे ?

मार्जारलिंगी पोप जी – आशीर्वाद ।

दास – उस आशीर्वाद से क्या होगा ?

धूर्त पोप जी – तुम्हारा कल्याण ।

दास – जब आप हमारा कल्याण चाहते हैं, तो क्या विद्या के पढ़ने से अकल्याण होता है ?

पोप जी उवाच – अब क्या तू हमसे शास्त्रार्थ करता है ?

प्रश्न
    पोप का क्या अर्थ है ?
उत्तर
    यह शब्द अन्य देश की भाषा का है । वहां इसका अर्थ पिता और बड़े का है परन्तु यहां तो केवल धूर्तता करके अपने मतलब सिद्ध करनेहारे का नाम है ।
प्रश्न
    जो विद्या पढ़ा हो और उसमें धार्मिकता न हो तो उसको विद्या का फल होता है वा नहीं ?
उत्तर
    कभी नहीं, क्योंकि विद्या का यही फल है कि मनुष्य को धार्मिक अवश्य होना, जिसने विद्या के प्रकाश से अच्छा जान कर न किया और बुरा जानकर न छोड़ा तो क्या वह चोर के समान नहीं है ? क्योंकि चोर भी तो चोरी को बुरी जानता हुआ करता और साहूकारी को अच्छी जानके भी नहीं करता है । वैसे ही जो पढ़ के भी अधर्म को नहीं छोड़ता और धर्म को नहीं करने हारा मनुष्य है ।
प्रश्न
    जब कोई मनुष्य मन से बुरा जानता है परन्तु किसी विशेष भय आदि निमित्तों से नहीं छोड़ सकता और अच्छे काम को नहीं कर सकता तब भी क्या उसको दोष वा गुण होता है अथवा नहीं ?
उत्तर
    दोष ही होता है क्योंकि जो उसने अधर्म्म कर लिया उसका फल अवश्य होगा और जानकर भी धर्म्म को न किया उसको सुखरूप फल कुछ भी नहीं होगा, जैसे कोई मनुष्य कूएं में गिरना बुरा जान के भी गिरे, क्या उसको दुःख न होगा और अच्छे मार्ग में चलना उत्तम जानकर भी न चले, उसको सुख कभी होगा ? इसलिए –

यथा मतिस्तथोक्तिर्यथोक्तिस्तथा कृतिस्सत्पुरुषस्य ।

लक्षमणतो विपरीतमसत्पुरुषस्येति ॥

वही सत्पुरुष का लक्षण है कि जैसा आत्मा का ज्ञान वैसा वचन और जैसा वचन वैसा ही कर्म्म करना, और जिसका आत्मा से मन, उससे वचन और वचन से विरुद्ध कर्म करना है वही असत्पुरुष का लक्षण है । इसलिए मनुष्यों को उचित है कि सब प्रकार का पुरुषार्थ करके अवश्य धार्मिक होना चाहिये ।

प्रश्न
    पुरुषार्थ किसको कहते और उसके कितने भेद हैं ?
उत्तर
    उद्योग का नाम पुरुषार्थ और उसके चार भेद हैं । एक – अप्राप्‍त की इच्छा । दूसरा – प्राप्‍त की यथावत् रक्षा । तीसरा – रक्षित की वृद्धि और चौथा – बढ़ाये हुए पदार्थों का धर्म में खर्च करना । जो जो न्यायधर्म से युक्त क्रिया से अप्राप्‍त पदार्थों की अभिलाषा करके उद्योग करना । उसी प्रकार उसकी सब प्रकार से रक्षा करनी कि वह पदार्थ किसी प्रकार से नष्ट भ्रष्ट न हो जाय । उसको धर्म्मयुक्त व्यवहार से बढ़ाते जाना और बढ़े हुए पदार्थ को उत्तम व्यवहारों में खर्च करना, ये चार भेद हैं ।
प्रश्न
    किस किस प्रकार से किस किस व्यवहार में तन, मन, धन लगाना चाहिये ?
उत्तर
    निम्नलिखित चारों में –  विद्या की वृद्धि, परोपकार, अनाथों का पालन और अपने सम्बन्धियों की रक्षा । विद्या के लिए शरीर को आरोग्य और उससे यथायोग्य क्रिया करनी, मन से अत्यन्त विचार करना कराना और धन से अपने सन्तान और अन्य मनुष्यों को विद्यादान करना कराना चाहिये । परोपकार के लिए शरीर और मन से अत्यन्त उद्योग और धन से नाना प्रकार के व्यवहार तथा कारखाने खड़े करने कि जिनमें अनेक मनुष्य कर्म्म करके अपना अपना जीवन सुख से किया करें । अनाथ उसको कहते हैं कि जिनका सामर्थ्य अपने पालन करने का भी न हो, जैसे कि बालक, वृद्ध, रोगी, अंगभंग आदि हैं, उनको भी तन, मन, धन लगाकर सुखी रख के जिस जिस से जो जो काम बन सके, उस उस से वह कार्य्य सिद्ध कराना चाहिये कि जिससे कोई आलसी होके नष्टबुद्धि न हों और अपने सन्तान आदि मनुष्यों के खान पान अथवा विद्या की प्राप्‍ति के लिए जितना तन, मन, धन लगाया जाय उतना थोड़ा है, परन्तु किसी को निकम्मा कभी न रहना और न रखना चाहिये ।
प्रश्न
    विवाह करके स्त्री पुरुष आपस में कैसे कैसे वर्तें ?
उत्तर
    कभी कोई किसी का अप्रियाचरण अर्थात् जिस जिस व्यवहार से एक दूसरे को कष्ट हो वैसा व्यवहार कभी न करें, जैसे कि व्यभिचार आदि । एक दूसरे को देखकर प्रसन्न हों, एक दूसरे की सेवा करें । पुरुष भोजन, वस्त्र, आभूषण और प्रियवचन आदि व्यवहारों से स्त्री को सदा प्रसन्न रक्खे और घर के सब कृत्य उसके आधीन करे । स्त्री भी अपने पति से प्रसन्नवदन, खान पान प्रेमभाव आदि से उसको सदा हर्षित रक्खे कि जिससे उत्तम सन्तान हो और सदा दोनों में आनन्द बढ़ता जाय ।
प्रश्न
    ऐसा न करें तो क्या बिगाड़ है ?
उत्तर
    सर्वस्वनाश । क्योंकि परस्पर प्रीति के विना न गृहाश्रम का किञ्चित सुख, न उत्तम सन्तान और न प्रतिष्ठा वा लक्ष्मी आदि श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्‍ति कभी होती है । सुनो, मनुजी कहते हैं -

सन्तुष्टो भार्य्या भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।

यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥१॥

मनु. अ. ३.६०॥

जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री आनन्दित रहती है उसी में निश्चित कल्याण की स्थिति रहती है । परन्तु यह बात कब होगी कि जब ब्रह्मचर्य से विद्या शिक्षा ग्रहण करके युवावस्था में परस्पर परीक्षा करके प्रसन्नतापूर्वक स्वयंवर ही विवाह करेंगे क्योंकि जितनी हानि विद्या सुख और उत्तम प्रजा की बाल्यावस्था में विवाह और व्यभिचार से होती है उतना ही सुखलाभ ब्रह्मचर्य से शरीर और आत्मा की पूर्ण युवावस्था होकर परस्पर प्रीति से विवाह करने से होता है । जो मनुष्य परस्पर प्रीति से स्वयंवर विवाह करके सन्तानों को उत्पन्न करते हैं उनके सन्तान भी ऐसे योग्य होते हैं कि लाखों में एक ही होते हैं कि जिन में बुद्धि, बल, पराक्रम, धर्म्म, शील आदि शुभगुण पूर्ण होते हैं कि जो महाभाग्यशाली कहाकर अपने कुल को अति प्रशंसित कर देते हैं ।

प्रश्न
    मनुष्यपन किसको कहते हैं ?
उत्तर
    इस मनुष्य जाति में एक ऐसा गुण है कि वैसा किसी दूसरी जाति में नहीं पाया जाता ।
प्रश्न
    वह कौन सा है ?
उत्तर
    जितने मनुष्य से भिन्न जातिस्थ प्राणी हैं उनमें दो प्रकार का स्वभाव है – बलवान से डरना, निर्बल को डराना और पीड़ा देना अर्थात् दूसरे का प्राण तक निकाल के अपना मतलब साध लेना, ऐसा देखने में आता है । जो मनुष्य ऐसा ही स्वभाव रखता है उसको भी इन्हीं जातियों में गिनना उचित है, परन्तु जो निर्बलों पर दया, उनका उपकार और निर्बलों को पीड़ा देने वाले अधर्मी बलवानों से किञ्चिन्मात्र भी भय शंका न करके इनको परपीड़ा से हठा के निर्बलों की रक्षा तन, मन, धन से सदा करना ही मनुष्य जाति का निज गुण है, क्योंकि जो बुरे कामों के करने में भय और सत्य कामों के करने में किञ्चित् भी भय शंका नहीं करते वे ही मनुष्य धन्यवाद के पात्र कहाते हैं ।

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