गुरुवार, 12 सितंबर 2013

सत्यमेव जयते अथवा सत्यमेव जयति

सत्यमेव जयते अथवा सत्यमेव जयति?

हमारे देश भारतवर्ष की संघीय व्यवस्था में अशोक की लाट शासन के प्रतीक के तौर
पर स्वीकारा गया है और उसके साथ अंकित रहता है प्रेरक वाक्य ‘सत्यमेव
जयते’ । ‘संस्कृत सूक्ति रत्नाकर’ नाम की पुस्तक में सत्यमेव जयते शब्द
अंकित है और वहां इसका संदर्भ दिया है मुण्डकोपनिषद् । किंतु वहां ‘जयते’
के स्थान पर ‘जयति’ है । विविध संस्कृत शब्दकोश के अनुसार एवं व्याकरण
की दृष्टि से ‘जयते’ गलत है और उसके स्थान पर होना चाहिए ‘जयति’ ।
उल्लेखनीय है कि ‘जयति’ भ्वादिगण के परस्मैपदी धातु ‘जि’ से प्राप्त
क्रियापद है । हां, ‘परा’ तथा ‘वि’ उपसर्गों के साथ ‘जि’ धातु
आत्मनेपदी रहता है और तदनुसार ‘पराजयते’ एवं ‘विजयते’ सही हैं, किंतु
‘जयते’ नहीं । उक्त प्रेरक वाक्य में यह त्रुटि कैसे आयी और
किसी संस्कृतज्ञ ने शासन का ध्यान आरंभ में उस ओर
क्यों नहीं खींचा यह जानना रोचक होगा ।
सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम् ।।
(मुण्डकोपनिषद् 3/1/6)
शब्दार्थ के अनुसार यह वचन कहता है कि सत्य की ही जय अंत में होती है,
न कि असत्य की । यही सत्य उस देवयान नामक मार्ग पर छाया है जिसके
माध्यम से ऋषिगण, जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों, सत्य के परम धाम
परमात्मा तक पहुंचते हैं ।
वैदिक चिंतन में जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य मोक्षप्राप्ति है और
मानवयोनि उसके लिये विवेकमय एक अवसर प्रदान करती है । इस योनि के
द्वारा ही वह देवत्व या सच्चिदानंद की आध्यात्मिक अवस्था तक पहुंच
सकता है । मेरे मत में इस वचन की सार्थकता शुद्ध रूप से आध्यात्मिक है ।
सत्य ही उस अंतिम लक्ष्य तक ले जाता है, न कि असत्य
जो उसको जन्ममरण के अनवरत चल रहे चक्र में बांधे रहता है ।
लेकिन मैंने देखा है कि व्याख्याकार उक्त वाक्य की अर्थवत्ता रोजमर्रा के
जीवन में भी समान रूप से दर्शाते हैं । मैं नहीं मानता कि इस संसार में सत्य
सदैव विजयी रहता है । अनुभव बताता है कि सत्य तथा असत्य के बीच
संघर्ष निरंतर चलता रहता है । कभी सत्य सफल होता है तो कभी असत्य
उसके ऊपर हावी हो जाता है । यदि सत्य असत्य के ऊपर
विजयी हो ही चुका हो तो बारंबार असत्य के साथ लड़ने
की स्थिति क्यों बनती ? मैं यही मानता हूं कि एहिक लोक में दोनों अस्तित्व
में रहते हैं । दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के सापेक्ष रहता है । असत्य
का अस्तित्व सदैव रहता है और वह मनुष्य को पूरी ताकत से अपने पक्ष में
किये रहता है । सत्य मनुष्य को उससे मुक्त करने को संघर्षरत रहता है ।
कभी वह सफल होता है तो कभी असफल । मैं यही मानता हूं
कि ऋषियों द्वारा ‘सत्यमेव जयति’ विशुद्ध आध्यात्मिक संदर्भ में
ही कहा गया होगा, न कि भौतिक संसार के संदर्भ में ।

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