गुरुवार, 12 सितंबर 2013

वैदिक ग्रंथों में मधुव्िद्या

वैदिक ग्रंथों में मधुविद्या

आदि ग्रन्थ वेद ज्ञान के अथाह भण्डार हैं। इसमें जीवन के समस्त क्रिया- कलापों अर्थात सभी पहलूओं का वर्णन है। मनुष्य के लिए योग्य जीवन आचरण की विद्या भी हमें वेदों में अंकित मिलती है। जीवन में मधुरता लाने की विद्या मधुरविद्या की कुछ पंक्तिया आपके समक्ष  प्रस्तुत है -

वाचा वदामि मधुमदु भूयासं मधुसंदृशः।
अर्थात -  मै वाणी से मीठा बोलता हूँ जिससे मै मधुरता के मूर्ति बनूँगा।
अथर्ववेद के सूक्त में मधु विद्या की चर्चा है। मधुविद्या का परमलक्ष्य
यही है कि जगत को किस दृष्टिकोण से देखना चाहिए। इस विद्या से
यही सन्देश मिलता है कि जगत है अर्थात् मधुर है ऐसा मानकर जगत पर
दृष्टि डालनी चाहिए। मधुविद्या के नियम अनुसार:
मधुर स्वाभाव का होना - अपने अन्दर कटुता,
कठोरता या तीक्ष्णता हो उसे दूर करना चाहिए व आत्म निरिक्षण करके
निज दोषों को दूर करके निरन्तर स्वाभाव को मधुर बनाना चाहिए।
श्री कृष्ण के मधुर स्वभाव का वर्णन।
मधुर स्वभाव वालों से सम्बन्ध रखना - जो व्यक्ति मधुर स्वाभाव के
हों उनसे सम्बन्ध मित्रता करनी चाहिए जिससे मधुरता की वृद्धि हो।
मधुर जीवन व्यतीत करना - व्यक्तिगत जीवन को मधुर बनाना चाहिए।
इसके लिए मधुर भाषण व व्यवहार करना चाहिए, यहाँ तक कि हाव-भाव से
भी कटुता नहीं दृष्टिगत होनी चाहिए।
अन्य को मधुर बनाना चाहिए - स्वयं के मधुर व्यवहार, बोली व स्वभाव से
कठोर जनों को भी सुधार कर मधुर स्वभाव का बना देना चाहिए।
जिह्वाय अग्रे मधु में जिह्यमूले मधूलकम्। ममेदह
अतावसो ममचित्तमुपायसि।।
मेरी जिह्याके अग्रभाग में मधूरता रहे, मेरी जिह्या के मूल में मधुरता रहे। हे
मधुरता! तू मेरे कर्म में निश्चय से रह। मेरे चित्त में मधुरता बनी रहे।
विस्तारपूर्वक विचार से इस मंत्र में जिह्या के अग्रभाग में मधुरता रहने
का अभिप्राय है कि मेरी वाणी से मधुर शब्द ही निकले।
इतना ही नहीं मेरेकर्म भी मधुरतापूर्ण हो व्यवहार ही नही,मेरा चिंतभीमधुर
हो,जब चित मधुरहोगा तो चिन्तन भी मधुरहोगा तो व्यवहार भी मधुर होगा,
जब व्यहार मधुर होगा, तो वाणीं भी मधुर होगी।
इस प्रकार चित्त के विचार व वाणी के उच्चार एक रुप होकर मधुर बन गये
तो आचार व्यहार अर्थात् कर्म भी मीठे बन जायेंगे। चिन्तन, उच्चारण,
व्यवहार से सभी ओर मधुरता व्यापत होगी।
मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्। वाचा वदामि मधूमदु भूयासं
मधुसंदृशः।।
मेरा चाल चलन मधुर हो, मेरा दूर होना भी मधुर हो, मै वाणी से मधुर
बोलता हूँ जिससे मै मधुरता की मूर्ति बनूँगा।
इस मंत्र के मध्यम से प्रतिज्ञा की गई है कि जिस समय मेरे विचार व
आचार में स्वाभाविक अकृतिम मधुरता प्रवाहित होने लगेंगी उस समय में
माधुर्य की प्रतिमूर्ति होंउगा।
मनुष्य मधुरता के साथ जीवन व्यतीत करे अर्थात व्यतिगत जीवन को हर
प्रकार से मधुर बनाये। इसके लिए उसे उठने-बैठने, चलने, बोलने, विचारने व
व्यवहार में मधुरता लानी चाहिए।
मधुमान् भवति मधुमदस्याहार्य भवति। मधुमतो लोकान् जयति य एव वेद।।
जो यह जानता है वह मधुवाला होता है। उसका सब संग्रह मधु युक्त
होता है। मधुमय लोकों को जीत लेता है।

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