गुरुवार, 12 सितंबर 2013

महाभारत में वृक्षरोपण एवं जलाशय निर्माण

महाभारत में वृक्षरोपण एवं जलाशय निर्माण

महर्षि व्यासविरचित महाकाव्य महाभारत में एक प्रकरण है, जिसमें भीष्म
पितामह महाराज युधिष्ठिर को प्रजा के हित में शासन चलाने के बारे में
उपदेश देते हैं । यह प्रकरण कौरव-पांडव समाप्ति के बाद युधिष्ठिर
द्वारा राजकाज संभालने के समय का है । इसी के अंतर्गत एक स्थल पर
मृत्युशय्या पर आसीन भीष्म जलाशयों के निर्माण एवं वृक्षरोपण
की आवश्यकता स्पष्ट करते हैं । ये बातें महाकाव्य के अनुशासन पर्व के
अठावनवें अध्याय में वर्णित हैं । ३३ श्लोकों के उक्त अध्याय में बहुत-
सी बातें कही गई हैं ।
अतीतानागते चोभे पितृवंशं च भारत ।
तारयेद् वृक्षरोपी च तस्मात् वृक्षांश्च रोपयेत् ॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ५८, श्लोक २६)
(भारत! वृक्ष-रोपी अतीत-अनागते च उभे पितृ-वंशं च तारयेद्, तस्मात् च
वृक्षान् च रोपयेत् ।)
अर्थ - हे युधिष्ठिर! वृक्षों का रोपण करने वाला मनुष्य अतीत में जन्मे
पूर्वजों, भविष्य में जन्मने वाली संतानों एवं अपने पितृवंश का तारण करता है
। इसलिए उसे चाहिए कि पेड़-पौंधे लगाये ।
तस्य पुत्रा भवन्त्येते पादपा नात्र संशयः ।
परलोगतः स्वर्गं लोकांश्चाप्नोति सोऽव्ययान् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक २७)
(एते पादपाः तस्य पुत्राः भवन्ति अत्र संशयः न; परलोक-गतः सः स्वर्गं
अव्ययान् लोकान् च आप्नोति ।)
अर्थ - मनुष्य द्वारा लगाए गये वृक्ष वास्तव में उसके पुत्र होते हैं इस बात
में कोई शंका नहीं है । जब उस व्यक्ति का देहावसान होता है तो उसे स्वर्ग
एवं अन्य अक्षय लोक प्राप्त होते हैं ।
आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिंदू पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं ।
प्रायः सभी मानते हैं कि आत्मा अमर होती है और उसके जन्म का अर्थ है
भौतिक शरीर धारण करना और मृत्यु उस देह का त्यागा जाना । मृत्यु
पश्चात् वह इस मर्त्यलोक से अन्य लोकों में विचरण करती है जो उसके
कर्मों पर निर्भर करता है और जहां उसे सुख अथवा दुःख भोगने होते हैं ।
मान्यता यह भी है कि देहमुक्त आत्मा का तारण या कष्टों से मुक्ति में पुत्र
का योगदान रहता है । संस्कृत में पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति इसी रूप में
की गयी है । (पुंनाम्नो नरकाद्यस्मात्त्रायते पितरं सुतः । तस्मात्पुत्र
इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ अर्थात् ‘पुं’ नाम के नरक से जिस
कारण सुत पिता का त्रारण करता है उसी कारण से वह पुत्र कहलाता है
ऐसा स्वयंभू ब्रह्मा द्वारा कहा गया है । – मनुस्मृति, अध्याय 9, श्लोक
138 ।) विद्वानों का मानना है कि पुत्र शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त
किया गया है, अर्थात् यह पुत्र एवं पुत्री दोनों को व्यक्त करता है, कारण
कि पुत्री – स्त्रीलिंग – की व्युत्पत्ति भी वस्तुतः वही है । कई शब्द
पुल्लिंग में इस्तेमाल होते हैं, किंतु उनसे पुरुष
या स्त्री दोनों की अभिव्यक्ति होती है, जैसे मानव या मनुष्य अकेले मर्द
को ही नहीं दर्शाता बल्कि मर्द-औरत सभी उसमें शामिल रहते हैं ।
आदमी या इंसान स्त्री-पुरुष सभी के लिए प्रयोग में लिया जाता है । मैं
समझता हूं कि प्राचीन काल में पुत्र सभी संतानों के लिए चयनित शब्द
रहा होगा। कालांतर में वह रूढ़ अर्थ में प्रयुक्त होने लगा होगा।
उपर्युक्त श्लोकों के भावार्थ यह लिए जा सकते हैं
कि वृक्षों का लगाना संतानोत्पत्ति के समान है । वे मनुष्य की संतान के
समान हैं, इसलिए वे मनुष्य के पूर्वजों/वंशजों के उद्धार करने में समर्थ होते
हैं । वृक्ष की तुलना संतान से की गयी है।

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