मंगलवार, 28 जनवरी 2014

उपनिषद्

उपनिषद्

रामायण यानी राम का अयन यानी घर अर्थात् रामायण में है राम की कथा। महाभारत उस युद्ध का विराट महाकाव्य है जिससे भारत के सभी राजा महाराजा शामिल हुए तो भारत के एक महायुद्ध के अर्थ में उसका नाम पड़ा महाभारत। ब्राह्मण ग्रन्थ इसलिए वैसे कहलाए क्योंकि उनमें ब्रह्म अर्थात वेद के मंत्रों की व्याख्या यज्ञों के सन्दर्भ में की गई। अरण्य में लिखे जाने के कारण एक खास साहित्य का नाम पड़ गया आरण्यक साहित्य। इसी कड़ी में एक अन्य प्रसिद्ध साहित्य का नाम है उपनिषद । उपनिषद् में तीन शब्द हैं उप, नि और षद। ‘उप’ का अर्थ है नजदीक, आसपास। जैसे राष्ट्रपति उसके एकदम नजदीक उपराष्ट्रपति। ‘नि’ का अर्थ संस्कृत में होता है अच्छी तरह से। ‘षद’ का वास्तविक शब्द है सद जो सन्धि के नियमों के कारण षद हो गया है। अर्थ है बैठना। तो उपनिषद का अर्थ है अच्छी तरह से आसपास बैठना। तो क्या किसी साहित्य का ऐसा नाम भी हो सकता है? हां क्यों नहीं हो सकता? और चूंकि ऐसा है तो इसलिए उसमें भारत की एक खास विचार परम्परा की शक्ल छिपी पड़ी है। कल्पना करिए कि एक आश्रम है। वहां एक पेड़ के नीचे या खुले में एक आचार्य बैठे हैं और उनके आसपास उनके चार-पांच या दस बारह या बीस-पच्चीस शिष्य बैठे हैं। इस आसपास बैठेने का कोई मकसद तो होगा। मकसद था सृष्टि के बारे में सोचना, जीवन के बारे में सोचना, आत्मा और परमात्मा पर विचार विमर्श करना। बन्धन और मोक्ष के बारे में एक-दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करना।

आसपास बैठकर विचारों के इस अच्छी तरह के मन्थन का नाम पड़ गया उपनिषद। और उस उपनिषद में से जो साहित्य निकला उसका नाम पड़ गया उपनिषद साहित्य। एक शब्द आजकल चलता है- सेमिनार। जिसका हिन्दी रूपान्तरण हमने कर दिया हैं संगोष्ठी। जो अर्थ सेमिनार या संगोष्ठी का है ठीक वही अर्थ उपनिषद का है। आप चाहें तो सेमिनार का रूपान्तरण उपनिषद भी कर सकते हैं। यह बात अलग है कि पिछले जमाने में एक सी उपनिषदों यानी एक सी सेमिनारों में दर्शन का ही विवेचन होता रहा इसलिए उपनिषद साहित्य में बस दर्शन ही दर्शन मिलता है। तो पिछले जमाने में यानी कब? हमारा मतलब है कि कब लिखी गई थीं उपनिषदें? दो तरह से जांच करके इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए।

कुल 108 मानी जाने वाली उपनिषदों में से एक उपनिषद का नाम है मैत्रायणी उपनिषद। उसमें एक जगह अपने वक्त की एक खास ज्योतिष संबंधी स्थिति की तस्वीर खींची गई है। ज्योतिष के विद्वान कहते हैं कि यह स्थिति 2000 ईसा पूर्व के आसपास की है।  मैत्रायणी उपनिषद पुरानी उपनिषदों में नहीं मानी जाती। अगर उसका समय 2000 ईसा पूर्व माना जा रहा है यानी आज से चार हजार साल पहले का माना जा रहा है तो जाहिर है कि प्राचीनतम उपनिषद का समय उससे चार-पांच सौ साल पहले का माना जा सकता है। संयोगवश यह वही समय है यानी 2500 ईसा पूर्व यानी आज से करीब साढ़े चार हजार साल पूर्व जब सिन्धु घाटी के किनारे (और देश में बाकी जगहों पर भी) हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे अति समृद्ध और सुविधा सम्पन्न शहर बसे हुए थे, जब ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हो रही थी और जब महाभारत का युद्ध हुए करीब पांच सौ साल बीत चुके थे।

दूसरी तरह से जांच करने पर भी हम इसी समय के करीब पहुंच जाते हैं। कैसे? ऐसे कि महाभारत के महाविनाश के बाद देश में विचारों का जो नया उन्मेष पैदा हुआ संसार और शरीर के प्रति विरक्ति का जो भाव बना और आत्मा की अमरता पर जैसी उत्कट भावाभिव्यक्ति होने लगी उसे देखते हुए उपनिषदों की ऊपरी समय सीमा वही जाकर बनती है जो ब्राह्मण ग्रन्थों के रचनाकाल की है। यानी 2500 ई.पू.। हां, उसमें एक अनुमान सहज ही हो सकता है कि चूंकि देश में यज्ञों के प्रति उत्साह लगातार क्षीण हो रहा था और अध्यात्मविद्या का प्रभाव लगातर फैल रहा था इसलिए जहां ब्राह्मणों और आरण्यकों की रचना पांच-सात सौ सालों में हो चुकी होगी वहां उपनिषदों की रचना लगातार करीब एक हजार साल तक चलती रही होगी। जैसे हर कोई चाहता है कि उसके वंश का, कुनबे का या कौम का कोई पुराना संदर्भ निकल आए ताकि वह अपने को खूब प्रामाणिक साबित कर सके वैसी ही इच्छा संसार को असार मानने के बावजूद उपनिषदकारों को भी हो गई हो तो क्या हैरानी? आखिर थे तो वे भी आपके और हमारे जैसे मनुष्य।

तो जो 108 उपनिषदें मानी जाती हैं उनमें से दो सबसे पुरानी और सबसे ज्यादा मशहूर उपनिषदें कभी उपनिषद के रूप में लिखी ही नहीं गई और उन्हें उपनिषद का दर्जा दे दिया गया। वे हैं ईशोपनिषद और बृहदारण्यकोपनिषद। ये दोनों लिखी नहीं गईं, इसका अर्थ यह है कि ये दोनों किसी दूसरी किताबों का हिस्सा हैं और चूंकि उनमें उसी दर्शन का मन्थन किया गया है जो उपनिषदों का प्रिय विषय है इसलिए उन्हें उनकी मूल किताबों में से निकाल कर स्वतंत्र उपनिषद का दर्जा दे दिया गया। जिसे हम ईशोपनिषद कहते हैं वह वास्तव में यजुर्वेद का चालीसवां यानी आखिरी अध्याय है और जिसे हम बृहदारण्यकोपनिषद कहते हैं वह असलियत में शतपथ ब्राह्मण का आखिरी अध्याय है। जैसे गीता महाभारत के भीष्मपर्व में होने के बावजूद एक स्वतंत्र पुस्तक का रूतबा हासिल कर चुकी है वैसी ही स्थिति ईशोपनिषद और बृहदारण्यकोपनिषद की भी बन गई है।

बृहदारण्यकोपनिषद का तो कुछ ऐसा आकर्षण बना कि पहले आरण्यककारों ने इसे आरण्यक कहना चाहा तो फिर अन्तत: उपनिषदकार इसे अपने कैम्प में खींच ले गए। इन दोनों अतिमहत्वपूर्ण उपनिषदों के अलावा ग्यारह और उपनिषदों को खूब महत्वपूर्ण जगह उपनिषद साहित्य में मिली। उनके नाम जान लेने में कोई हर्ज नहीं। ये हैं केन, कठ, प्रश्न, मण्डूक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, कौषीतकी, श्वेताश्वतर और मैत्रायणी। सवाल है कि 108 उपनिषदों में से इन तेरह उपनिषदों को ही क्यों इतना महत्वपूर्ण मान लिया गया? जवाब में कई कारण गिनाए जा सकते हैं। पहला और सबसे बड़ा कारण तो यही है कि अपने जिस अध्यात्म संबंधी विषयवस्तु के कारण उपनिषदों के हमारे देश में खास इज्जत मिली इन तेरह उपनिषदों में इस अध्यात्म का बहुत ही शानदार विवेचन मिलता है। एक बार जब उपनिषदों का स्थान देश में ऊंचा हो गया तो फिर कई तरह के सम्प्रदायों ने अपने-अपने सम्प्रदाय और उसके इष्टदेव की प्रमुखता स्थापित करने के लिए उपनिषदों की अध्यात्म शैली का सहारा लिया।

पर इन तेरह उपनिषदों में ऐसा कुछ नहीं है और ब्रह्म, आत्मा, जगत बन्धन और मोक्ष पर ही बहस इनमें है। कुछ लोग श्वेताश्वतर को इस सन्दर्भ में इतना महत्व नहीं देते और उसे शैव सम्प्रदाय का उपनिषद मानना चाहते हैं जो एक हद तक ही ठीक है। पर फिर भी उसमें प्राय करके वैसा ही अध्यात्म चिंतन है जैसा शेष बारह उपनिषदों में है। इन तेरह उपनिषदों के अतिमहत्वपूर्ण  होने का एक कारण यह भी माना जाता है कि ये शायद सर्वाधिक प्राचीन उपनिषदें हैं। जाहिर है कि जिस दार्शनिकता के लिए उपनिषदें विख्यात है वह विषय उनमें सर्वश्रेष्ठ तरीके से मिल जाता है और उन्हें की देखा देखी सम्प्रदाय संबंधी उपनिषदों की रचना उनसे बाद में ही की गई होगी। शायद इन तेरह उपनिषदों के इसी महत्व को देखते हुए आदि शंकराचार्य ने इन्हीं में से दस उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा और जिन शेष तीन यानी कौषीतकी, श्वेताश्वतर और मैत्रायणी पर वे भाष्य नहीं लिख सके, उन्हें  उन्होंने अपने शेष भाष्यों में उद्धृत किया है। श्वेताश्वतर पर वैसे तो एक शंकर व्याख्या मिलती है पर वह आदि शंकराचार्य की न होकर उनके किसी उत्तराधिकारी की मानी जाती है। शंकर जैसे मौलिक और प्रामाणिक दार्शनिक द्वारा इस तरह महत्व मिल जाने पर इन तेरह उपनिषदों का महत्व मानो और भी पुख्ता हो गया।

देश का विराट दार्शनिक चिंतन इन उपनिषदों में हमारे यहां पनपे नौ दार्शनिक स्कूलों में सुरक्षित है। इन नौ सम्प्रदायों में वेदों को महत्व न देने के कारण तीन अतिप्राचीन सम्प्रदायों चार्वाक, जैन, बौद्ध को नास्तिक सम्प्रदाय माना जाता है। नास्तिको वेदानिन्दक यानी नास्तिक वह है जो वेद की निन्दा करता है। तो वेदों में श्रद्धा रखने के कारण बाकी छह अपेक्षाकृत कम प्राचीन सम्प्रदायों न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त को आस्तिक सम्प्रदाय माना जाता है। दो खास हिस्सों में बंटे होने के बावजूद सभी नौ दार्शनिक स्कूलों या सम्प्रदायों का बराबर का महत्व इस देश में रहा है। इन सभी नौ के नौ सम्प्रदायों के बीज वेदों और उपनिषदों में हैं और वहीं से इनका विकास हुआ।

पर इन सभी में उपनिषदों का महत्व सर्वाधिक माना गया और उनका दार्शनिक चिंतन सर्वश्रेष्ठ माना गया तो वह अकारण नहीं। कारण यह है कि जहां दार्शनिक स्कूलों की पुस्तकों में दर्शन का विवेचन सिद्धांतों, तर्कवितर्को और खण्डन-मण्डनों में बंधा है वहीं उपनिषदों में वह वैसा ही सहज प्रवाहपूर्ण और स्वत: स्फूर्त है जैसा गीता में है।

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