बुधवार, 29 जनवरी 2014

सिद्धा श्रमणी शबरी

सिद्धा श्रमणी शबरी

शबरी भारतवर्ष की इतिहास - चक्र का एक ऐसा महत्वपूर्ण पड़ाव हैं कि उनके बिना रामकथा के पूरी होने की कोई संभावना कदापि नहीं दिख्लाई देती । उस पर तुर्रा यह कि अगर रामकथा का विकास बहुत थोड़ा ही हुआ है तो शबरी के चरित्र में भक्ति का जितना अंश वाल्मीकि रामायण में है, उसका तो भरपूर विकास हुआ है।

शबरी के सन्दर्भ में यह बात प्रसिद्ध है कि उन्होंने राम को बेर खिलाए थे और पक्का करने के लिए कि बेर मीठे हैं, शबरी उन्हें खुद चखकर, पक्का करके कि फलां बेर मीठा है, फिर राम को खाने के लिए दे रही थीं और राम बड़े मजे में उनके जूठे बेर खाते जा रहे थे। फिर यह भी जोड़ दिया गया था कि बेरों को जूठा देखकर लक्ष्मण ने खाने से परहेज किया और आंख बचाकर उन्होंने बेर एक ओर फेंक दिए। फिर यह जुड़ा कि जो बेर लक्ष्मण ने फेंक दिए वे ही बाद में वह जड़ी-बूटी बन गए, जिसे सुंघाकर वैद्यराज सुषेण ने लक्ष्मण को मेघनाद की शक्ति से उत्पन्न मूर्छा से बचाया था। पर यह तमाम बेर प्रसंग वाल्मीकि रामायण में नहीं है और जाहिर है कि शबरी के महत्व को बढ़ाने के लिए ये कथाएं-उपकथाएं जोड़ दी गई हैं।

बाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता अपहरण के बाद जब राम उन्हें ढूंढ़ते हुए भयंकर दण्डकारण्य में मारे-मारे फिर रहे थे, तो पहले उन्हें मरणासन्न जटायु मिले। रावण द्वारा सीता अपहरण की सूचना देकर जटायु ने देह त्याग दी तो राम लक्ष्मण ने उनका दाह-संस्कार किया।

फिर दोनों भाइयों का सामना कबन्ध नामक राक्षस से हुआ, जो सिर्फ धड़ ही था और जिसका मुंह उसके पेट में था। उसे मारा तो मरते ही वह दिव्य पुरुष हो गया और उसने राम लक्ष्मण को बताया कि पश्चिमी कोने (नैट्टत्य) में मतंग मुनि का आश्रम है, जहां लोग तो अब नहीं रहते, पर उनकी परिचारिका श्रमणी शबरी वहां रहती है और आपके दर्शन की उसे लालसा है।

अरण्यकांड के सर्ग 74 में शबरी प्रसंग है। मतंग मुनि का आश्रम दण्डकारण्य में पम्पा सरोवर के किनारे था और हमें मालूम रहना जरूरी है कि संस्कृत साहित्य में पम्पा सरोवर खास आकर्षण का केंद्र रहा है, जिसके आसपास अनेक ऋषि मुनियों ने अपने-अपने तरह-तरह के आश्रम बना रखे थे, जिनका रंग-बिरंगा वर्णन कालिदास के ‘रघुवंश’ महाकाव्य के तेरहवें सर्ग में मिल जाता है। उसी सरोवर के किनारे बने मतंग आश्रम में शबरी रहा करती थीं। वाल्मीकि ने शबरी के लिए दो विशेषणों का खूब प्रयोग किया है-सिद्धा और श्रमणी।

सर्ग 73 के श्लोक 26 में दिव्य शरीरधारी कबन्ध ने शबरी को श्रमणी कहा है- श्रमणी शबरी नाम (अरण्यकांड, 73.26)। वाल्मीकि ने उन्हें 74.7 में एकबार फिर श्रमणी कहा है-तामुवाच ततो राम: श्रमणीं धार्मसंस्थिताम्। उसी अरण्यकांड ने श्लोक 74.6 और 74.10 में कवि ने शबरी को सिद्धा कहा है। अर्थात् आध्यात्मिक उपलब्धियों के क्रम में शबरी ने कुछ मुकाम पार कर लिए थे। पर जिस तल्लीनता से वे पिछले साढ़े तेरह वर्षों से राम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं, यह उनके शक्तिमती, प्रपत्तिमति होने का संकेत है और इस तरह शबरी हमारी भक्ति परम्परा का प्राचीनतम प्रतीक बनकर हमारे सामने उभर आती है।

 सिद्धा श्रमणी शबरी के आश्रम में आते ही राम ने दो श्लोकों में जो उनसे पूछा वह पढ़ने लायक है-कच्चित्तो निर्जिता: विघ्ना: कच्चित्तो वर्धाते तप:। कच्चिते नियत: कोप आहारश्य तपोधने। कच्चित्तो नियमा: प्राप्ता कच्चित्तो मनस: सुखम् कच्चित्तो गुरुशुश्रुषा सफला चारुभाषिणी। (74.8-9) अर्थात् हे तपोधने, तुम्हारे सारे विघ्न खत्म हो गए हैं? तुम्हारा तप ठीक चल रहा है? क्या तुमने क्रोध और आहार पर विजय पा ली है? क्या नियमों का पालन ठीक तरह से हो रहा है? क्या मन को सुख मिला हुआ है? क्या गुरु की सेवा सफलतापूर्वक हो रही है?

जवाब में शबरी ने कहा है ‘हे राम, जब आप (साढे तेरह वर्ष पूर्व) चित्रकूट आए थे, तभी मुझे गुरुओं ने कहा था कि आप इस आश्रम में पधारेंगे। मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही हूं और मैंने आपके लिए फल-मूल इकट्ठे कर रखे हैं।’ शायद बेरों वाला प्रसंग इसी आधार पर बाद में विकसित हुआ। इसके बाद उन सिद्धा शबरी ने राम लक्ष्मण को वह सुन्दर मतंग आश्रम दिखाया और फिर प्रसन्नचित्त वे राम के सामने ही अग्नि प्रज्वलित कर उसमें प्रवेश कर गईं।

अब बताइए इस पूरी कहानी में क्या खास बात है? रामायण, महाभारत और पुराणों में ऐसे सैकड़ों प्रसंग मिल जाएंगे, जहां भक्तजन अपने प्रभु के किसी रूप के आगे लोटपोट होते और प्राणत्याग करते रहे हों। पर ऊपर से सामान्य नजर आने वाले इस प्रसंग का भारत की सभ्यता के विकास में एक खास महत्व है और इसे हम कवष ऐलूष और शम्बूक ऋषि के चरित्र के साथ जोड़कर देखना चाहते हैं।

ऐसा लगता है कि भारत की सभ्यता के विकास के क्रम में राम के आसपास का समय काफी महत्वपूर्ण है। अब तक देश में मुख्यधारा सिर्फ एक ही बह रही थी, यज्ञ की धारा। वही विद्वान ऋषिपद को पा सकता था जो मंत्र रचना करे और उसके मंत्रों का यज्ञों में बकायदा प्रयोग, जिसे यज्ञ की तकनीकी भाषा में विनियोग कहते हैं, हो सके। बेशक एक धारा दूसरी भी चल रही थी, आध्यात्म धारा जिसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रवर्तित किया, उनके पुत्र जड़ भरत ने आगे बढ़ाया।

दीर्घतमा मामतेय जैसे कुछ महाकवियों के ‘अस्य वामीय’ सरीखे कुछ सूक्तों में उसका विकास भी हो रहा था, पर जिसका वास्तविक विकास, वेदों के सन्दर्भ में, पांच हजार साल पहले हुए कृष्ण के समय के आसपास हुआ, जब पुरुषसूक्त, कालसूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त, सृष्टिसूक्त जैसे विशिष्ट दार्शनिक सूक्तों की रचना हुई। पर छह हजार साल पहले हुए राम के समय तक भारत में यज्ञ की मुख्यधारा और आध्यात्म की उपधारा के साथ-साथ तप और भक्ति की एक नई धारा का प्रवर्तन भी हो चुका था। सरस्वती नदी के किनारे कवष ऐलूष ने जिस हठयोग से ब्राह्मणों को विवश किया, वह हम देख चुके। दण्डकारण्य में शम्बूक ऋषि ने शरीर को कठोर तप का माध्यम बनाकर पूरी व्यवस्था की नींद हराम कर दी, यह भी हम देख चुके।

इधर, वाल्मीकि शबरी को सिद्धा, श्रमणी कह रहे हैं और राम उनसे पूछ रहे हैं कि उनके नियम कैसे चल रहे हैं, तप कैसा चल रहा है। दण्डकारण्य में राम ऐसे अनेक मुनियों से मिले जो तपस्या करने की कई तरह की नई विधियों को ईजाद कर अपने हिसाब से कई तरह से तपश्चर्या में लीन थे। यह सब देखकर लगता है कि यज्ञ के साथ, और मन्द स्वर में सुनाई दे रही आध्यात्म वाणी के साथ, तपस्या और भक्ति को अलग-अलग धाराएं मान सकते हैं, पर दोनों को एक हो जाने में कोई लम्बा रास्ता नहीं तय करना पड़ता। फिर भी अगर दोनों को अलग मानना हो तो आप शम्बूक को तपस्या का और शबरी को भक्ति का मूर्तिमान रूप मानकर नए प्रर्वतकों में शामिल कर सकते हैं।

शबरी ने जिस भक्ति का प्रदर्शन किया है, उसका एक रूप किष्किन्धा काण्ड में हनुमान विकसित कर रहे थे, जिसमें दास्य और ज्ञान का अद्भुत समावेश था तो दूसरी ओर लंका में विभीषण उसे नामजप द्वारा एक आयाम दे रहे थे। शबरी की भक्तिधारा में प्रपत्ति यानी शरणागति शिखर पर है, जो इस महानारी द्वारा राम की इतनी लम्बी प्रतीक्षा में व्यक्त होती है। मतंगमुनि अपना आश्रम छोड़कर चले गए, शेष सारे मुनि भी आश्रम छोड़ गए, पर चूंकि कह गए कि राम एक दिन इधर आएंगे। सो श्रमणी शबरी ने राम की प्रतीक्षा करनी शुरू कर दी। प्रतीक्षा में वे तंग आकर कभी भी वैसे ही अग्नि में प्रवेश कर सकती थीं जैसा उन्होंने राम के सामने किया। पर शबरी ने उस प्रतीक्षा को अपना लिया जिसके आखिरी छोर का उन्हें स्वयं भी पता नहीं था। मतंग आश्रम अपने सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध था और राम भी उस आश्रम का सौन्दर्य देखने उधर आए थे।

राम आएं तो वे आश्रम देखकर निराश न हों, इसलिए सिद्धा श्रमणी शबरी ने आश्रम का सौन्दर्य पूरे परिश्रम से बरकरार रखा और जैसे ही राम वहां आए, उनकी सेवा शुश्रुषा कर उन्हें तुरन्त सारा आश्रम दिखाया, यह बताते हुए कि कौन ऋषि कहां क्या-क्या करते थे। हमारे इतिहास में भक्ति के इस रूप का पहला उदाहरण है श्रमणी शबरी और इसलिए आश्चर्य नहीं कि वे इस देश की सबसे लोकप्रिय प्रेरक कथा रामकथा का अभिन्न अंग हमेशा के लिए बन चुकी हैं।

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