शनिवार, 6 जुलाई 2013

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में हमने अंग्रेजों को तो देश से भगा दिया परन्तु इस भगाने के प्रयास में हमने राष्ट्र की आत्मा की हनन कर दी - अशोक "प्रवृद्ध"

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में हमने अंग्रेजों को तो देश से भगा दिया परन्तु
इस भगाने के प्रयास में हमने राष्ट्र की आत्मा की हनन कर दी
            अशोक "प्रवृद्ध"
द्वितीय विश्व-व्यापी युद्ध का इतिहास लिखने वाले एक विज्ञ लेखक ने
लिखा है कि वह युद्घ तो जीत लिया गया था, परन्तु शान्ति के मूल्य पर
उसके शब्द हैं-‘We won war but lost peace’। उस लेखक ने
इसका कारण भी बताया है। उसके कथन का अभिप्राय यह है कि मित्र-
राष्ट्रों की सेनाओं ने और जनता ने तो अतुल साहस और शौर्य का प्रमाण
दिया था, परन्तु युद्ध-संचालन करने वाले राजनीतिज्ञ भूल-पर-भूल करते
रहे। उनकी भूलों ने हिटलर को हटाकर, उसके स्थान पर स्टालिन
को स्थापित कर दिया।
भारत के विषय में भी हमारा कहना यही है। सन् 1857 से लेकर 1947 तक के
सतत संघर्ष से हमने भारत से अंग्रेजो को निकाल दिया, परन्तु इसे
निकालने के प्रयास में हमने भारत की आत्मा की हत्या कर दी है। हमने
अंग्रेजों को निकाल कर अपनी गर्दन नास्तिक अभारतीयों और मूर्खों के
हाथ में दे दी है। जहाँ देश के दोनों द्वार भारत विरोधियों (पाकिस्तानियों) के
हाथ में दे दिये हैं, वहाँ भारत का राज्य ऐसे नेताओं के हाथ में सौंप दिया है,
जो धर्म-कर्म विहीन हैं और कम्यूनिस्टों के पद-चिह्नों पर चलने लगे हैं।
1857 से पूर्व तो देश के लोग मुसलमानों से देश को मुक्त करने में लगे थे।
उस समय से पूर्व, देश को पुनः अपने वैभव और गौरव के स्थान पर ले जाने
के लिए यह आवश्यक समझा जा रहा था कि यहाँ मुसलमानों को निःशेष
किया जाये। कारण यह कि इस्लाम की शिक्षा, गै़र-मुसलमानों के साथ
अन्याय, अत्याचार और बलात्कार करने की ही होती थी। इसका स्वाभाविक
परिणाम यह हुआ था कि देश के गैर-मुसलमान
मुसलमानों को सदा अपना शत्रु मानते रहे।
परन्तु इस समय देश में एक तीसरी शक्ति अर्थात् अंग्रेज़ आ पहुँचे और
उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमान के इस वैमनस्य से लाभ उठा अपना राज्य
स्थापित करना आरम्भ कर दिया।
अतः देश के नेताओं ने अंग्रेज़ को साँझा शत्रु मान, परस्पर मैत्री कर
ली और 1857 का युद्ध लड़ा। वह मैत्री अस्वाभाविक थी। उद्देश्य एक
नहीं था। जीवन-मीमांसा भिन्न-भिन्न थी। कुछ अन्य भी कारण थे जिनसे
युद्ध अपने अन्तिम ध्येय को प्राप्त नहीं कर सका। इस पर भी कुछ
तो सफलता मिली। एक व्यावसायिक कम्पनी के अधिकार से निकलकर देश
अंग्रेज़ी पार्लियामैन्ट के अधीन चला गया।
इस युद्ध के पश्चात् अंग्रेज एक ओर मुसलमानों को हिन्दुओं के विरूद्ध
करने में लग गये और दूसरी ओर हिन्दुओं को समझाने-बुझाने लगे
कि देशवासी मिलकर रहेंगे तो लाभ होगा। इसके साथ-साथ वे हिन्दुओं में
फूट के बीज भी बोने लगे।
हिन्दू इस कूटनीति के शिकार हो गये और स्वभाव से अथवा अंग्रेज़ के
भड़काने से रूठे हुए मुसलमानों को मनाने के लिए उनको अधिक और अधिक
राजनीतिक सुविधाएँ तथा अधिकार देना स्वीकार करने लगे। मुसलमान इस
त्रिपक्षीय झमेले में लाभ की स्थिति में पहुँच गये।
हिन्दुओं को इस झमेले में से निकालने का मार्ग नहीं सूझा। यदि किसी ने
मार्ग सुझाया भी तो तत्कालीन नेताओं को समझ नहीं आया और
मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को उनके पास
गिरौ रखने का प्रयत्न 1885 से आरम्भ हो गया। कुछ अंग्रेज़ीपढ़े-लिखे
लोग एकत्रित होकर हिन्दुओं को समझाने लगे कि देश में मुख्य समुदाय होने
से उनको इन रूठे हुए मुसलमानों को समझा-बुझाकर अपने साथ
मिला लेना चाहिए। मुसलमान किसी भी गैर-मुसलमान का मित्र नहीं। हिन्दू
भारत-द्रोही का मित्र नहीं हो सकता। इस पर
भी मुसलमानों की मैत्री प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को अपने देश प्रेम
का बलिदान करना पड़ा। एक-एक विशेष अधिकार, जो मुसलमान
को दिया जाता था, वह देश के नागरिकों के अधिकारों में से छीन कर
ही दिया जाता था।
यह 1885 से लेकर 1916 तक चलता रहा। इसके पश्चात तो मुसलमान बंदर
बाँट की भाँति अंग्रेजों और हिन्दुओं में तराजू पकड़ कर बैठ गये। अंग्रेज़
भी घाटे में रहे और हिन्दू भी। अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा और सख्त
बदनाम होकर। हिन्दुओं को पाकिस्तान देना पड़ा लाखों की हत्या कराकर।
मजे में रहे मुसलमान। यह ठीक है कि मुसलमान उतना लाभ नहीं उठा सके,
जितना बन्दर बाँट की कहानी में बन्दर को प्राप्त हुआ था। इसमें कारण
था उनकी अपनी दुर्बलता।
1919 के पश्चात् हिन्दुओं में एक और देवता अवतीर्ण हुए। यह थे
महात्मा गाँधी। इन्होंने मुसलमानों के लिए बहुमत और उचित हिन्दू-पक्ष के
धर्म और संस्कृति का बलिदान तो किया ही, साथ ही इन्होंने
ईमानदारी की भी बलि देने की शिक्षा देनी आरम्भ कर दी। मुसलमान
को प्रत्येक मूल्य पर प्रसन्न करना धर्म बन गया। अहिंसा के पर्दे के पीछे
ईमानदार और सरल चित्त देश-प्रेमियों का इस कारण विरोध आरम्भ
हो गया कि मुसलमानों को प्रसन्न करना है।
अतः We won freedom but lost our soul’-अर्थात् हमने राजनीतिक
स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली, परन्तु देश की आत्मा की हत्या कर बैठे हैं।
भारतीय समाज, जो धर्म-ईमान के लिए जान हथेली पर रखकर धर्म-क्षेत्र
में अवतीर्ण थी, कैसे स्वराज्य मिलने पर भीरू, देशद्रोही, धर्म-कर्म विहीन
और सब प्रकार के दुर्गणों से युक्त हो गई है ?
आज से नौ सौ पूर्व मुसलमानों से पराजित होने का कारण, जीवन
सम्बन्धी मिथ्या-मीमांसा का व्यापक प्रचार था। उस जीवन-
मीमांसा का आधार था, जैन तथा बौद्ध मत की अहिंसा की नीति, वैष्णव
मत का
भगवान् पर अन्ध-विश्वास कर स्वयं अकर्मण्य बने रहने की प्रवृत्ति और
नवीन वेदान्तियों का संसार को मिथ्या मानना। ये मिथ्या मीमांसाएँ न
तो प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति की देन थीं, न ही इनका स्रोत
धर्म में था। इस पर भी ये थीं और इनके व्यापक प्रचार के कारण ही, कुछ
सहस्र मुसलमान, विदेश से आकर इस विशाल देश में राज्य जमा बैठे और
फिर यहाँ कि कोटि-कोटि जनता पर अत्याचार करते रहे।
इन जीवन मीमांसाओं का भारत के समाज पर इतना गहरा प्रभाव था कि जब
देश ने करवट ली तो महात्मा गाँधी-जैसे सहज में ही यहाँ के नेता बन गये।
यही कारण है कि स्वतन्त्रता मिल जाने पर जाति घोर पतन की ओर
अग्रसर हो रही है।
कितने दुःख की बात है कि भारतीय स्वधीनता संग्राम थीै स्वतन्त्रा प्राप्त
करने की और उसके लिए आत्मा की हत्या कर दी। इसमें कारण वे शूरवीर
नवयुवक नहीं हैं, जो देश के लिए सब प्रकार का त्याग और तपस्या करते
रहते हैं। कारण है, उन नेताओं की अशुद्ध नीति, जो 1885 से 1947 तक के
आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे हैं। ये
नेता अपनी नीति की असफलता का दोष जनता पर देते रहते हैं। और
जनता के त्याग तथा तपस्या का श्रेय स्वयं लेते रहे हैं।
स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् भारत समाज का नैतिक पतन तथा देश
की राजनीतिक दुर्बलता इस दूषित नेतृत्व का ही परिणाम है। यह
सर्वथा वैसा ही है, जैसा द्वितीय विश्व-व्यापी युद्ध में और उससे पूर्व,
मित्र राष्ट्रों के नेताओं की अशुद्ध नीति के कारण योरूप को कम्यूनिस्टों के
पाँवों में डाला जाना था।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें