शनिवार, 6 जुलाई 2013

चन्द्रगुप्त ही विक्रमादित्य थे

चन्द्रगुप्त ही विक्रमादित्य थे
अशोक "प्रवृद्ध"
कश्मीर के एक राजा मेघवाहन हुए हैं। महाराज मेघवाहन ही थे जिन्होंने भारत
में बाहर वर्षीय कुम्भों के समारोह की प्रथा आरम्भ की थी। मेघवाहन
का पुत्र प्रवरसेम था और उसके दो पुत्र थे- हिरण्य और तोरमाण।
दोनों भाई प्रेमपूर्वक राज्यकार बांटकर चलाते रहे। तोरमाण राज्य की अर्थ-
व्यवस्था देखता था। उस काल में मुद्राएँ साहूकार चलाते थे। तोरमाण
की पत्नी काशिराज की पुत्री होने से अपने पिता के राज्य की प्रथा चलाने
की प्रेरणा देने लगी और राज्य की ओर से निश्चित भार की दीनार नाम
की मुद्रा प्रचलित कर दी गई। मुद्रा पर नाम तोरमाण का मुद्रित किया गया।
बड़े भाई हिरण्य को पत्नी ने भड़काया और कहा कि अपने नाम से
मुद्रा चलाकर छोटा भाई स्वयं राजा बनना चाहता है। बड़े भाई हिरण्य
को जब संदेह हुआ तो उसने छोटे भाई को बन्दीगृह में डाल दिया।
उसकी पत्नी अंजना उसके साथ ही बन्दीगृह में रहने लगी। वहां उसके गर्भ
ठहरा तो वह बन्दीगृह से निकल आलोप हो गयी। सुदूर पूर्व में राज्य के
भीतर ही एक गांव में एक कुम्हार के घर में छुपे रहकर उसने पुत्र को जन्म
दिया और पुत्र का नाम उसके बाबा के नाम पर प्रवरसेन रख दिया।
मां को भय था कि हिरण्य अपनी पत्नी के सिखाने पर उसके पुत्र को न
मरवा दे, इस कारण वह गुप्त स्थान पर एक कुम्हार के परिवार में रहती हुई
पुत्र प्रवरसेन का गांव में ही पालन-पोषण करती रही।
कुछ काल के उपरांत बन्दीगृह में तोरमाण का देहान्त हो गया और कुछ
ही समय उपरान्त हिरण्य भी नि:संतान मर गया। इस प्रकार राज्यविहीन
हो गया। तब मन्त्रिगण मंत्री-सभा बना राज्य चलाने लगे। कई वर्ष तक
मन्त्रिमण्डल राज्य चलाता रहा। इस काल में मन्त्रियों में कोई प्रमुख
नहीं था। इस कारण सब लूट-खसोट करने लगे। अराजकता बढ़ने
लगी तो मन्त्रियों ने यह उचित समझा कि भारत-सम्राट विक्रमादित्य से
कहा जाये कि कोई अपने आधीन राजा वहां शासन करने के लिए भेज दें।
विक्रमादित्य ने अपनी सभा के कवि मातृगुप्त को वहां भेज दिया। इस
विक्रमादित्य के विषय में राजतरंगगिणी ने कहा है कि वह शकों को देश से
बाहर करने वाला था। इससे यह भास मिलता है कि वह विक्रमादित्य गुप्त
परिवार का शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था। इससे यह अनुमान भी ठीक
प्रतीत होता है कि मातृगुप्त विख्यात कवि कालिदास ही था। एक बात और
भी इस कल्पना का समर्थन करती है। वह यह कि कालिदास के माता-
पिता का ज्ञान नहीं।
यहां यह बता देना भी अति उपयुक्त होगा कि कुछ आचार्य इस
विक्रमादित्य को गुप्त परिवार का नहीं मानते। न ही मातृगुप्त को रघुवंश
का रचियता मानते हैं।
इतिहासकारों का विचार है कि चंद्रगुप्त द्वितीय को उसके पिता समुद्रगुप्त
ने तब ही विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित कर दिया था, जब वह
अभी राजकुमार ही था। वह उस समय भी शंकों से युद्ध में बहुत शौर्य प्रकट
कर चुका था।
इस अनुमान में एक प्रमाण यह भी है कि विक्रमादित्य नाम
का चक्रवर्ती राजा, जिससे किसी राज्य के लिए शासक मांगा गया; वह
इतिहास में चंद्रगुप्त द्वितीय ही हो सकता है। इतिहास में इसके अतिरिक्त
किसी अन्य विक्रमादित्य सम्राट् का उल्लेख नहीं मिलता।
विद्वानों काअनुमान है कि यही विक्रमादित्य अर्थात् चन्द्रगुप्त
विक्रमादित्य द्वितीय की विक्रम संवत का प्रवर्तक हुआ है। जो तिथि-
काल विदेशीय इतिहासज्ञों ने गुप्तकाल के लिए निश्चय किया है, वह
अशुद्ध है।

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