बुधवार, 31 जुलाई 2013

भारतीय धर्म*संस्कृति को नष्ट करने का अंग्रेजी सरकार का घिनौना प्रयत्न -अशोक "प्रवृद्ध"

भारतीय धर्म-संस्कृति को नष्ट करने का अंग्रेजी सरकार
का घिनौना प्रयत्न.......
  अशोक "प्रवृद्ध"
सर ए ओ ह्युम का कुत्सित प्रयास.......
ए. ओ. ह्यूम सन् 1882 में जब सरकारी सेवा से मुक्त हुए तो अपने सेवा-
काल में प्राप्त अनुभवों पर विचार करने लगे। उनका जीवन चरित्र लिखने
वाले सर विलियम वडरबर्न उनके अनुभवों के विषयमें इस प्रकार लिखते हैं
—‘सेवा-मुक्त होने से कुछ पहले ह्यूम के पास ऐसे प्रमाण एकत्रित हो गये
थे कि जिनसे उसे विश्वास हो गया कि हिन्दुस्तानी में एक गम्भीर,
स्थिति उत्पन्न हो चुकी है, जिसका अति भयंकर परिणाम निकल सकता है।
'"The evidence that convinced him of the immence of the
danger was contained in seven large………..volumes
containing a vast number of enteries…………from over thirty
thousand different reporters…………
(महान् भय के प्रमाण जो उसे मिले, वह सात वृहत्.....खण्डों में रखे गये थे।
उन प्रमाणों में लगभगतीस सहस्र सूचनाएँ सम्मिलित हैं।)इन सात खण्डों में
साधु-सन्त, महात्माओं और उनके चेलों के लिखे पत्र हैं, जो देश के
धार्मिक नेताथे। उनका अविश्वास नहीं किया जा सकता था। इन
प्रमाणों की उपस्थिति में सर वडरबर्न लिखते हैं—
Hume felt that a safety valve must be provided for the
suppressed discontentment of the masses and something
must be done to relive their despair, if a disaster was to
be averted………
(ह्यूम यह अनुभव करता था कि जनता में दबे हुए असन्तोष को निकलने
का स्थान होना चाहिए। उनकी निराशा को दूर करने का कुछ यत्न
करना चाहिए, जिससे भयंकर दुर्घटना होने से रोकी जा सके।)सर ह्यूम
सरकारी नौकरी में सन् 1849 में आये थे और सन् 1882 में सेवा-मुक्त हुए
थे। वेहिन्दुस्तान के उस ऐतिहासिक काल में भारत सरकार में रहे थे, जिसमें
सन् 1857 का अंग्रेज़ी राज्य के विरुद्ध भयंकर विद्रोह हुआ था और उस
विद्रोह के उपरान्त अंग्रेज़ सेनाशाही ने जनता से भीषण प्रतिशोध
लिया था। उस काल के अनुभव ही ह्यूम के मस्तिष्क पर बोझा बने हुए
प्रतीत होते हैं।परन्तु जो कुछ ह्यूम को अपने सेवा-काल में विदित हुआ था,
वही कुछ मैकॉले और उसके समान विचार वाले अंग्रेज़ विद्वानों को पहले
ही अनुभव हो चुका था। उन्होंने भी भारत के प्रशान्त सागर की तह के नीचे
गहराई में एक प्रबल धारा बहती देखी थी और उन्होंने इस धारा को दबा देने
का प्रयत्न अपने ढंग से किया था।
इस प्रतिशोध का स्वरूप दो प्रकार से दृष्टिगोचर हुआ था। एक ओर
राजा राममोहन राय की ब्रह्म-समाज के रूप में, तथा दूसरी ओर मैकॉले
साहब की सरकारी शिक्षा के रूप में। इसी विरोध का एक अन्य रूप हुआ, सर
ह्यूम द्वारा स्थापित इण्डियन नैशनल कांग्रेस।हिन्दू-समाज के प्रशान्त
सागर की गहराई में चल रही धारा को अंग्रेज़ विद्वानों ने देखा था और
समझा था। वह धारा थी भारतीय संस्कृति और धर्म की, जिसे
लम्बा मुसलमानी राज्य भी मिटा नहीं सका था।अंग्रेज़ी शासन के बंगाल में
स्थापित होते ही, अंग्रेज़ विद्वान अधिकारियों को यह जानने की चिन्ता लग
गयी थी कि जो कुछ इस्लामी राज्य मोराकों से अफ़गानिस्तान तक कुछ
ही वर्षों में सम्पन्नकर सका था, वह हिन्दुस्तान में अपने सात सौ वर्ष के
राज्य-काल में क्यों नहीं कर सका ? उनकी खोजका यह परिणाम
निकला कि यह भारत की प्राचीन संस्कृति और धर्म की धारा थी,
जो इस्लाम के यहाँ असफल होने में कारण बनी। इसको विनष्ट करने में
ही अंग्रेज़ सरकार को अपनी भलाई दिखाई देने लगी थी।यह ठीक है
कि राजा राममोहन राय के विचार पूर्वोक्त अंग्रेज़ों के कहने से नहीं बने थे।
वे उनके अपने बाल्यकाल में मुसलमानों से सम्पर्क के कारण बने थे। साथ
ही ये विचार बने थे ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के सेवा-काल में उनके एक
योग्य अंग्रेज़ अधिकारी की संगत से। राजा साहब ने
उपनिषदादि ग्रंथों का अपने विशेष दृष्टिकोण से अध्ययन भी किया था,
परन्तु जब उनके विचार ब्रह्म-समाज में मूर्त होने लगे तो अंग्रेज़ी सरकार
को राजा राममोहन राय अपनी योजना के अनुकूल प्रतीत हुए। उन्हेंवे उस
तरंग की सहायता करते प्रतीत हुए, जिससे सरकार भारतीय सांस्कृतिक
धारा का विरोध करना चाहती थी। अतः सरकार इसमें सहायक होने लगी।
ब्रह्म-समाज की स्थापना सन् 1828 में हुई थी।
इस आन्दोलन के विषय में और राजा साहब के विषयमें
महात्मा गांधी की जीवनी लिखने वाले श्री प्यारेलाल लिखते हैं—
But with all his love of liberty he did not raise the
standard of revolt against the british rule.
(उनका स्वतंत्रता के लिए अत्यन्त प्रेम होने पर भी उन्होंने ब्रिटिश राज्य
के विरुद्ध विद्रोह काझण्डा ऊँचा नहीं किया।)ब्रह्म-समाज के विषय में
श्री प्यारेलाल लिखते हैं—
The church (Brahma Samaj) was to be closed to none and
was to serve as a universal house of prayer open to all
men without distinction of colour, cast, nation
orreligion…………In the gift deed the founder laid down that
no religion shall be reviled or slighted or contemptuously
spokenof or alluded to.
.(ब्रह्म-समाज का मन्दिर किसी के लिए भी बन्द नहीं था। यह सार्वजनिक
प्रार्थना का स्थान था, जो सब मानवों के लिए था और जहाँ बिना जाति,
रंग, समुदाय तथा मज़हब के भेद-भाव के सब आ सकते थे।)किसी मज़हब
की निन्दा नहीं की जायेगी तथा बुरा-भला नहीं कहा जायेगा। किसी के
प्रति घृणा नहीं कीजायेगी और न ही संकेत में कहीं जायेगी।)अंग्रेज़
नीतिज्ञों को कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि यह ब्रह्म-समाज भी उस गहराई में
चलने वाली धारा काएक प्रकार से विरोध ही कर रही है। अतः ब्रह्म-समाज
को उनका समर्थन और सहायता प्रस्तुत हो गई और सन् 1828 से लेकर,
हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज्य के अन्त काल तक, यह उनको प्राप्त रही।
इसी अर्थ मैकॉले की सरकारी शिक्षा की योजना थी। मैकॉले ने एक समय
अपने पिता को एक पत्र में लिखा था—
The effect of this education on the Hindoos is prodigious.
No Hindoo, who has received our English education, ever
remains sincerely attached to his religion.
(इस शिक्षा का हिन्दुओं पर प्रभाव आश्चर्यजनक होगा। कोई भी हिन्दू,
जिसने यह अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त कर ली है, कभी भी निष्ठापूर्वक अपने
धर्म से सम्बद्ध नहीं रह सकता।)ब्रह्म-समाज 1828 में स्थापित हुई।
अंग्रेज़ी सरकारी शिक्षा 1835 में चालू की गई और ह्यूम साहब
की इण्डियन नैशनल कांग्रेस सन् 1885 में स्थापित की गई। तीनों तरंगे
जान-बूझ करअथवा अनजाने में हिन्दू-समाज की आभ्यान्तरिक सांस्कृतिक
धारा को नाश करने में संलग्न रहीं। जितना-जितना इनका बल बढ़ता गया,
सांस्कृतिक धारा का विरोध, ये उतने ही बल से करती रहीं।परन्तु इस तरंग
का विरोध भी हुआ। सन् 1857 में इस तरंग के विरोध-स्वरूप
महर्षि स्वामी दयानन्द ने बम्बई में आर्य-समाज की स्थापना की। वैसे
स्वामी दयानन्द ने इसका आरम्भ पाखण्ड-खण्डिनी ध्वजा के नीचे सन्
1867 में हरिद्वार में कुम्भ के अवसर पर किया था। परन्तु इसका मूर्त रूप
सन् 1871-72 में कलकत्ता में विचार किया गया और सन् 1875 में बम्बई में
इसकी स्थापना की गई।श्री प्यारेलाल (महात्मा गांधी के जीवन-चरित्र में)
आर्य-समाज के विषय में लिखते हैं—
Swami Dayanand with his generation had noted with deep
inner anguish the onslaught on the one hand of superficial
European rationalism and, on the other hand, of
Christianity which coming as a hand-maid of western
imperialism, had disrupted their national solidarity, bred
asepticism and schism when it entered a family and
undermined their own religion without providing an
adequate substitute for it.
(उस समय की पीढ़ी के साथ स्वामी दयानन्द ने यह अति दुःख के साथ
अनुभव किया था कि एक ओर बाहरी यूरोपीय बुद्धिवाद ने, और दूसरी ओर
ईसाईयत ने, जो देश में विदेशीय साम्राज्यवाद के साथ
आया था औरयहाँ की समाज में फूट डलवा रहा था, भारतीय परिवार पर
आक्रमण कर, यहाँ के मज़हब को विनष्ट कर दियाथा और
उसका स्थानापन्न प्रस्तुत नहीं किया गया था।)स्वामी दयानन्द
द्वारा स्थापित आर्य-समाज के विषय में यही महाशय लिखते हैं—
In marked contrast with the reformist Brahma Samaj was
the Arya Samaj—the church militant within the Hindoo
fold-bearing to Hinduism what Protestanism is to the
Roman Catholic church……..it was revivalist movement with
return to the pure ancient Vedic faith, culture and
institution as its goals.(सुधार करने वाली ब्रह्म-समाज से
सर्वथा विपरीत आर्य-समाज थी। यह संघर्षमयी संस्था थी। हिन्दुओं के
भीतर इसका स्थान वही था, जो प्रोटैस्टैण्ट समुदाय को रोमन कैथॉलिक के
प्रति था....यहपुनरुद्धार करने वाला आन्दोलन था। यह पुनः प्राचीन वैदिक
मत को, इसकी सभ्यता और रीति-रिवाज को चाहता था।)यही अंग्रेज़
नीतिज्ञ नहीं चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि विचारों के वे तत्त्व जीवित
और जाग्रत रहें, जिन्होंने इस्लाम जैसे बलशाली समुदाय का मुख मोड़
दिया था। अतः पूर्ण अंग्रेज़ी सरकार, इसका विरोध करने पर उद्यत हो गई।
भारतवर्ष में विशाल हिन्दू-समाज, जिसके पाँव दृढ़ता से अपनी प्राचीन
संस्कृति और धर्म में जमे हैं, काल की विपरीत गतियों का सफलतापूर्वक
सामना करती चली आती थी। भारतवर्ष पर गिद्ध-सी दृष्टि रखने वाले
विदेशीय, हिन्दू समाज के पाँव उखाड़ने में यत्नशील हो गये। एक दूषित
संयोग, इस्लाम, ईसाईयत और अंग्रेज़ी शिक्षा-प्राप्त आस्था-विहीन
हिन्दुस्तानी घटकों का बन गया और इस संयोग का विरोध करने के लिए
आर्य-समाज हिन्दू-समाज की कायाकल्प करने की चेष्टा करने लगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें